सत्य, अहिंसा, सेवा, धैर्य, संयम आदि के प्रमुख धर्म आधार सनातन हैं, उनकी उपयोगिता और महत्ता में कभी अन्तर नहीं आता। फिर भी समय और परिस्थिति के अनुसार कार्य प्रणाली में हेर-फेर करना आवश्यक होता है। इस हेर-फेर की आवश्यकता को शास्त्रकारों ने स्वीकार किया है और उसे युग धर्म कहा है।
प्राचीन काल में भारत उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर था, समृद्धि की कमी न थी, शान्ति का अटल राज्य था, लोक में सात्विक विचार और कार्यों का बाहुल्य था, जीवन क्रम में कोई संघर्ष न था। किसी से कभी कोई भूल होती थी तो उसे साधारण से नैतिक दबाव से सुधार दिया जाता था। उस समय की स्थिति के अनुकूल ही तब रीति, रिवाज, प्रथा, परम्परा, विचार कार्य आदि व्यवस्था होती थी। पर आज तो स्थिति में असाधारण अन्तर हो गया है। जो कठिनाइयाँ आज हमारे सामने हैं वे असाधारण हैं, इसलिए उनके सुलझाव के लिए भी नये दृष्टिकोण से, सामाजिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर विचार करना होगा तदनुकूल कार्य प्रणाली का निर्धारण करना पड़ेगा। शान्ति काल में आत्मोन्नति का आयोजन करना होता है पर विपत्ति काल में आत्मरक्षा के साधन ढूँढ़ने में सारी शक्ति लगानी होती है। आज ऐसा ही असाधारण समय है आज हमारी सभी समस्याएं उलझी पड़ी हैं, इस अवसर पर धर्म के मूल भूत सिद्धान्तों का ध्यान रखते हुए कार्य प्रणाली को युग धर्म के अनुकूल बनाना ही श्रेष्ठकर है।