बदला किससे लें?

November 1947

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आततायियों ने जिस बर्बरता, क्रूरता और नृशंसता के साथ हत्याकाण्ड मचाए हैं उनकी मिसाल मानव जाति के इतिहास में लिखना कठिन है। इस पैशाचिकता की देखकर कंस, रावण और साक्षात् शैतान को की लज्जित होना पड़ा है। निर्दोष, मासूम असहाय, शरणागत, रक्षा के लिए त्राहि-पुकारते हुए भय से काँपते हुए, दया के लिए झोली पसारे हुए बाल-वृद्धों पर माता-पुत्रियों पर जिस निर्दयता और क्रूरता के साथ खंजर चलाये गये हैं, उस बर्बरता को देखकर यही कहना पड़ता है, इन धर्मान्ध लोगों तक धर्म की गन्ध भी नहीं पहुँची है, धर्म ने इनकी आत्मा का स्पर्श तक नहीं किया है। पुस्तकों में नरभक्षी राक्षसों की कथाएं कही जाती थी उन्हें किसी ने देखा न था, पर आज वह असुरत्व बाढ़ की तरह उबल पड़ा है और उसने जो दानवी कृत्य उपस्थित किये हैं उसकी भयंकरता को देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

आज हर व्यक्ति के मस्तिष्क में इस बर्बरता के प्रति विक्षोभ की आग जल रही है, हर व्यक्ति इस शैतानी से सन्न रह गया है। हर व्यक्ति सोचता है कि मनुष्यता को, इंसानियत को, निगलने के लिए मुँह फाड़ कर दौड़ी आ रही इस पैशाचिकता का कैसे अन्त किया जाय? क्रिया की प्रतिक्रिया होती है-आत्मरक्षा के भाव, इस बर्बरता के प्रति रोष, क्रोध और प्रतिशोध को लिए हुए जन साधारण के हृदयों में उबल रहे हैं। हम देखते हैं कि मनुष्यों के मस्तिष्क में आज यह एक ही प्रश्न प्रधान रूप से धूम रहा है, गूँज रहा है।

जिनके माता पिताओं के दुधमुँहे सुकुमार बालक उनके हाथों से छीनकर उनकी आँखों के आगे कत्ल किए गए हैं-जिन्होंने अपने भाई, बहिन, पत्नी, पति सगे संबंधियों को गंवाया है, अपनी जन्म भर की कमाई को लुटते और मिटते देखा है, जो अपनी सुनहरी जीवन व्यवस्था को गंवाकर दाने-दाने के मुहताज बन रहे हैं उनके हृदयों में जो हाहाकार मच रहा है उसकी विषमता का अन्दाज लगाना कठिन है। जिन लोगों ने प्राण गंवाते समय दुःसह पीड़ा को भुगता है उसकी तो कल्पना करना भी मस्तिष्क की शक्ति से बाहर है। यह प्रत्यक्ष अनुभूतियाँ आज मानव मनों में भैरवी हुँकार के साथ नृत्य कर रही हैं।

जनता के मनों में जो उद्वेग है उसे अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता है। ऐसी परिस्थितियों में भी जिसे उद्वेग्न आवे उसे या तो पाषाण कहा जा सकता है या परमहंस योगी। मनुष्य प्राणी की मानसिक रचना उसी आधार पर हुई है कि उसे शैतानियत के विरुद्ध क्रोध आता है। यह क्रोध इसलिए आता है कि उस उत्तेजना के द्वारा खतरनाक तत्वों से वह लड़ पड़े। इस स्वाभाविक प्रक्रिया के अनुसार आए दिन संघर्षों की सृष्टि होती रहती है। पक्के मकान और कुएं तक ध्वनि की प्रतिध्वनि उपस्थित करते हैं गाली का जवाब गाली से देते हैं, पानी में ईंट फेंकने पर पानी उछलता है फिर है यह संभव नहीं कि जिनके हृदय में आघात लगे हैं वे प्रत्युत्तर की बात न सोचें। क्षमा करो और भूल जाओ की शिक्षा बड़ी उत्तम है पर यह उस अवसर पर दी जाती है जब आक्रमणकारी शक्तियाँ घुटने टेक देती हैं झुके हुए के प्रति कटुता रखने की अपेक्षा उसे क्षमा कर देना ही बड़प्पन है। शान्त रहो और सहन करो का उपदेश में या तो प्रतिकार की असमर्थता होती है या युद्ध नीति के अनुसार समय की प्रतीक्षा की जाती है। तपस्वी, ब्रह्मपरायण, वीरात्मा महात्मा ही अपनी साधना के लिए कठोर तप करते हुए तितीक्षा भावना से शान्त रहो और सहन करो का आदर्श अपनाते हैं। जन साधारण के लिए यह कठिन है कि वह उत्तेजनात्मक वातावरण में इन आदर्शों को अक्षरशः पालन करे। हम भी ऐसी आशा किसी से नहीं करते और न ऐसे उपदेश करते हैं।

अनीति को देखकर क्रोध आना स्वाभाविक है। पर इस क्रोध में एक अस्वाभाविक दोष छिपा रहता है वह यह कि क्रोधी अन्धा हो जाता है, उसकी विवेक बुद्धि, अंतःदृष्टि कुँठित हो जाती हैं तदनुसार वह यह निर्णय नहीं कर सकता कि अपने शत्रु पर कहाँ और किस प्रकार प्रहार करूं। असली शत्रु को पहचानना भी उसके लिए कठिन हो जाता है, ऐसी दशा में उसके प्रहार प्रायः गलत स्थान पर होते हैं और उस गलत प्रहार का परिणाम भी गलत ही होता है। इस प्रकार क्रोधान्ध को दुहरा घाटा रहता है एक तो पहले ही अनीति के कारण हानि हो चुकी थी, दूसरे गलत प्रतिरोध से वह प्रहार अपने ही ऊपर पड़ता है और दूनी हानि का कुफल भोगना होता है। इस खतरे से अनभिज्ञ होने के कारण प्रायः ऐसे कदम उठ जाते हैं जिनसे अनीति के उन्मूलन का लाभ तो दूर उलटी एक नई विपत्ति सिर पर आ पड़ती है। जिससे क्रोधान्ध व्यक्ति अपनी शक्ति यों सहित नष्ट हो जाता है। इसी खतरे को ध्यान में रख कर अध्यात्म के आचार्यों ने क्रोध की निन्दा की है पर विवेक पूर्वक अन्याय के प्रतिकार को धर्मयुद्ध कहकर प्रोत्साहित किया है। हमें यह देखना है कि आज के बर्बर हत्याकाण्डों का उत्तरदायी असली शत्रु कौन है और उससे पूरा-पूरा प्रतिशोध लेने के लिए- किन हथियारों, किन साधनों को प्रयोग करना चाहिए। हम वर्तमान दंगों को हिन्दू-मुसलिम संघर्ष नहीं मानते। क्योंकि हिन्दू धर्म या मुसलिम धर्म का एक भी सच्चा अनुयायी इन पैशाचिकता भरे कृत्यों को नहीं कर सकता। हमने कुरान को दसियों बार बड़े ध्यान पूर्वक पढ़ा है, वेदों का बीस साल से निरन्तर स्वाध्याय करते हैं एवं सिखों के ग्रन्थ साहब से भी हम अपरिचित नहीं हैं। इनमें से किसी में भी ऐसी शिक्षाएं नहीं हैं। वरन् इसके प्रतिकूल दया, प्रेम, उदारता, रक्षा, सेवा, सहायता, क्षमा, आदि के उपदेश भरे पड़े हैं। जिन्होंने यह कृत्य किये हैं उनको किसी धर्म का अनुयायी नहीं कहा जा सकता। फिर उनकी करतूतों को हिन्दू-मुसलिम संघर्ष किस प्रकार कहा जा सकता है?

हम राजनैतिक घटना चक्र में जाने की जरूरत नहीं समझते और न पिछले दिनों जो लोग और काँग्रेस के नेताओं में जो तू-तू मैं-मैं हुई हैं उसका कौन अधिक दोषी हैं इस पर प्रकाश डालना चाहते हैं। वर्तमान हत्याकाण्डों में किस जाति ने किस जाति के लोगों को अधिक संख्या में एवं अधिक निर्दयता से मारा इसका विस्तार करने की भी कुछ आवश्यकता नहीं समझते। हमारी दृष्टि में निश्चित रूप से इस असुरत्व ने पैशाचिकता ने, दोनों ही जाति के लोगों को आच्छादित किया है, यह प्रश्न महत्व का नहीं कि कौन उसका अधिक शिकार हुआ कौन कम। घृणा, द्वेष, अज्ञान, अनीति, क्रूरता और पशुता के तूफान में लोगों की आँखें मिट जाती है और वे न करने योग्य स्थान पर प्रहार करते हैं। जिसके बच्चे का कत्ल जिसने किया है वह उसको मार डाले तो यह समझ में आ सकता है पर जिसने कत्ल नहीं किया है उसके बच्चे पर हाथ उठाना कौन सा न्याय है? यदि उसी ने कत्ल किया भी हो तो भी उसका बच्चा तो सर्वथा निर्दोष है। निर्दोषों पर हमला करना न तो बदला है और न अनीति को रोकने का मार्ग। यह तो वैसा ही है जैसे कोई शराब पीकर उत्पात मचा रहा हो तो उसका बदला लेने के लिए खुद भी शराब पीकर वैसे ही कृत्य करने लगे। इससे तो जिस अनीति के विरुद्ध हमारे मन में घृणा थी उसी को स्वयं भी अपना लेने से हम स्वयं को भी घृणास्पद बना लेंगे।

मनुष्य मिट्टी का पुतला है, उसके ऊपर विचार तत्वों का प्रभुत्व रहता है। जिस प्रकार के विचार जिस पर छाये रहते हैं वह उसी साँचे में ढल जाता है। निखिल आकाश में सत् और असत् की दो धाराएं बहती हैं। जब असत् की, पाप की, शैतानी की धारा जोर पकड़ जाती है तो उससे अनेकों मनुष्यों के मस्तिष्क विकृत हो जाते हैं। आज वही विकृति ताण्डव नृत्य कर रही हैं। हमारी असली शत्रु यही ताड़का है। इसी पूतना ने हमारे बालकों को खाया है। इसी से हमें बदला चुकाना है, इसी दुढ़रा राक्षसी को होली में जलाना है।

जहाँ घृणा, अहंकार, असमानता, फूट, स्वार्थ अज्ञान एवं निर्बलता होती है वहाँ असुरता को अपनी घात लगाने का अवसर मिलता है। इतनी विशाल जाति पर बाहर का कोई जाति हानि नहीं पहुँचा सकती। उसको खतरा तो आन्तरिक विकृतियों से है। हमने अपनों को पराया बनाया उन्हें बहिष्कृत किया, अपमानित किया उस विकृति ने दूसरों के मन में घृणा उपजी। इस घृणा ने शत्रुता का रूप धारण करके हमें दो भागों में बाँट दिया। हमारी फूट, स्वार्थपरता और असावधानी ने हमें अनुचित रीति से दबाया। यह आन्तरिक निर्बलता जब तक रहेगी तब तक हमें उन आघातों से छुटकारा न मिलेगा जो एक हजार वर्ष से बराबर लग रहे हैं। हम जानते हैं कि हर जाति का हर व्यक्ति उद्विग्न है और शत्रु से बदला लेने की सोचता है। इस विषम घड़ी में हम जरा सा चूके सर्वनाश की ओर दौड़ पड़ेंगे। मनुष्यों का उद्विग्नता से प्रयोजन सिद्ध न होगा। सन्निपात रोग ग्रसित रोगी को, या भूतावेश से उन्मत्त प्राणी को मार डालने की जरूरत नहीं, जरूरत सन्निपात और भूत को मार भगाने की है यही करना चाहिए। हमारे आत्मीयों की उत्तम प्राणों की, श्रम उपार्जित जीवन उपकरणों, सुख-शाँति की, सद्भावों की निर्मम हत्या मूर्ख पागलों से नहीं सन्निपात ग्रस्त आदमियों से नहीं उनके निर्दोष बाल-बच्चों से भी नहीं, हत्यारी असुरता से बदला लेंगे, जिसने हमें मानवता से बाँट कर दिया, जिसने निर्दोषों के रक्त से दूषित करके इस देवभूमि को कलंकित कर दिया इस सूर्पणखा की नाक हमारी संघ शक्ति जातीय स्वस्थता की छुरी से कटेगी।

आइए, हम घायलों के, विपद् ग्रस्त जख्मों को, घावों पर अपनी अकूत सहानुभूति, अपनी अधिकतम सहायता का मरहम लगा उन्हें सान्त्वना दें। जनसाधारण के मस्तिष्क भरे हुए असुरता के उन्माद से लड़ें और सतोमयी प्रचंड शक्तियों का आविर्भाव जिनके आगे आज घमंड से विजयोल्लास अहंकार करने वाली असुरता को नाक रगड़ के आत्म समर्पण करना पड़े। आज का जोश हम अनुपयुक्त मार्ग में व्यय नहीं वरन् उस मार्ग में लगावेंगे जिससे भविष्य में इस प्रकार के अवसर आना ही असंभव हो जाता है।

असुरता का बढ़ना हर धर्म के लिए जाति के लिए, हर प्रदेश के लिए खतरा है खतरे से मनुष्यता के अस्तित्व के लिए खतरा हो गया हैं। इस विषम घड़ी में मनुष्य मात्र का कर्त्तव्य है कि बिना जाति धर्म का विचार करे शैतानी शक्तियों को निर्मूल करने उन्हें कुचलने के लिए पूरी शक्ति के साथ प्रयत्न करें।


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