ईश्वर ने तुमको इस पृथ्वी पर रखा है और तुम अपने करोड़ों सजातियों से आवेष्टित (घिरे हुए) हो, जिनके हृदय तुम्हारे हृदय से बल पाते हैं, जिनकी उन्नति या अवनति तुम्हारी उन्नति व अवनति के साथ और जिनका जीवन तुम्हारे जीवन के साथ सम्बन्ध संश्लिष्ट है। एकान्तवास के भय और दुःख से बचाने के लिये ईश्वर ने तुमको ऐसी इच्छायें दी हैं, जिनको तुम एकाकी अपनी शक्ति से पूरा नहीं कर सकते और जो निरंतर तुमको अपने सजातियों के साथ मिलकर रहने को प्रेरणा करती हैं। जिनके कारण तुम इतर जंतुओं से (जिनमें कि वे स्वाभाविक इच्छायें दबी पड़ी हैं) अधिक महत्व रखते हो। ईश्वर ने तुम्हारे आसपास ऐसे प्राकृतिक दृश्य स्थापित किये हैं, जो स्वाभाविक सौंदर्य और वैचित्र्य से युक्त हैं। ऐसे वैचित्र्य से जो यद्यपि ईश्वरीय इच्छा का द्योतक है, तथापि सब अवस्थाओं में तुम्हारा परिश्रम चाहता है और तुम्हारे उद्योग से अपना आकार परिवर्तन करता रहता है। जितने अधिक तुम परिश्रमी और ज्ञानवान होते जाते हो, उसी परिणाम से उसकी शक्ति और स्थिति में भी उन्नति होती जाती है।
ईश्वर ने तुम्हारे हृदय में कई प्रकार की सहानुभूति और संवेदना शक्ति उत्पन्न की है, जो दूर नहीं हो सकती। जैसे दुःखित मनुष्यों पर दया करना, सुखी को देखकर प्रसन्न होना, जो दीनों पर अत्याचार करते हैं उन पर क्रोध करना, सदा सत्य की खोज में रहना, उस व्यक्ति की प्रशंसा करना जो सच्चाई का कोई नवीन अंश या रहस्य प्रकट करें, उन मनुष्यों के सहानुभूति दिखलाना जो उस सचाई को मनुष्य जाति के हितार्थ कार्य में परिणत करने का उद्योग करें और उन मनुष्यों को आदरणीय एवं नन्दनीय जानना, जो यद्यपि उस सचाई को फैलाने में सफल-प्रयत्न न हुये हों, तथापि जिन्होंने अपने रुधिर से उसके बीज को सींचा और अपने प्राण उस पर न्यौछावर कर दिये। ये सब तुम्हारे मानवीय उद्देश्य के चित्र हैं, जिनको ईश्वर ने तुम्हारे हृदय पर चित्रित कर दिया है, परन्तु तुम इनको क्यों स्वीकार नहीं करते और क्यों इनका खंडन करते हो? जब तुम इनके साथ का अनादर करते हो और यह कहते हो कि हम अपनी सारी शक्तियों को केवल अदृष्ट के चिन्तन में लगावें, तो संसार का आधार छोड़ना सम्भव है कि हमारे लिये असाध्य हो।
यदि संसार में तुम्हारे आने का यह प्रयोजन नहीं कि तुम अपने कर्त्तव्य की सीमा में और अपने हस्तगत साधनों के अनुसार ईश्वर की इच्छा को पूर्ण करो तो फिर और क्या प्रयोजन है? तुम्हारा मनुष्य जाति की एकता में जो ईश्वर की एकता का सुनिश्चित परिणाम है, विश्वास रखने का क्या फल है? यदि तुम उसकी सुनिश्चित सिद्धि के लिये उस अनुचित भेदभाव और विरोध को, जो अभी तक मनुष्य जाति के भिन्न समुदायों में भिन्नता और पार्थक्य का कारण है, दूर करने का यत्न नहीं करते।
यह भूमि हमारा कर्मक्षेत्र है, हमें यह उचित नहीं कि हम इसको बुरा कहें, किन्तु यह उचित है कि हम इसको पवित्र बनावें।