(महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 13 से)
कायेन त्रिविधं कर्म वाचाचापि चतुर्विधम्।
मनसात्रिविधं चैव दश कर्मपथाँ त्यजेत्॥
भीष्म जी बोले - हे युधिष्ठिर! शरीर से तीन, वाणी के चार और मन के तीन पाप होते हैं। इनको त्याग देना चाहिए।
प्राणानिपातः स्तैन्यं च परदारा नथापि च।
त्रीणि पायानि कायेन सर्वतः परिवर्जयेत्॥
हिंसा, चोरी (अन्याय से दूसरे का धन हरण करना) पर स्त्री गमन, यह तीन शरीर के पाप हैं। इनको सर्वथा त्याग देना चाहिए।
असत्प्रलापं पारुष्यं पैशुन्यमनृतं तथा।
चत्वारि वाचा राजेन्द्र न जल्पेन्नानुचिन्तयेत्॥
व्यर्थ का बकवाद, कडुआ भाषण, चुगलखोरी और मिथ्या भाषण। हे राजन्! यह चार वाणी के पाप हैं, इनको त्याग दें यहाँ तक कि मन से भी चिन्तन न करे।
अनभिध्यापरस्वेषु सर्व सत्वेषु सौहृदम्।
कर्मण फलमस्तीति त्रिविधं मानसाचरेत्॥
दूसरे का धन लेने की इच्छा न करना, प्राणीमात्र का शुभ चिन्तक होना, कर्मों का फल अवश्य ही मिलता है ऐसी भावना रखना, यह मन के तीन पुण्य हैं, इनके विपरीत पराये धन को चाहना, दूसरे का बुरा चाहना, कर्मों का फल नहीं मिलता ऐसी नास्तिक बुद्धि रखना पाप है।
ये पापानि न कुर्वन्ति मनोवाक् कर्म बुद्धिभिः।
ते तपन्ति महात्मानो न शरीरस्य शोषणम्॥
जो इन दस पापों को मन, वाणी, कर्म और बुद्धि से नहीं करता वही महात्मा है। शरीर को सुखाने मात्र से कोई महात्मा नहीं होता।