मनुष्य का शरीर है परोपकार के लिये

July 1947

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(रचियता-श्री ‘राजेश’)

ये बात ठीक है, कहीं नहीं प्रचार के लिये।

मनुष्य का शरीर है परोपकार के लिये॥

परोपकार-हीन व्यक्ति भूमि हेतु भार है,

किसी बड़े विचारवान का बड़ा विचार है।

कि जो परोपकार-लीन है तथा उदार है,

वही महान है, वही बड़ा सभी प्रकार है॥

बड़े बनो, बनो न किन्तु भूमि-भार के लिये।

मनुष्य का शरीर है परोपकार के लिये॥

तमाम भूमि-लोक आज रोग-शोक से भरा,

कुभावना मिटा रही मनुष्य की परम्परा।

समाज के बचाव का रहा न और आसरा,

पुकारती तुम्हें अधीरता भरी वसुन्धरा॥

सहायता करो व्यथा भरी पुकार के लिये।

मनुष्य का शरीर है परोपकार के लिये॥

बनो सुकर्म वीर, वक्त है न बात चीत का,

प्रसार हो नये समाज में नवीन गीत का।

विचार आज छोड़ दो भविष्य का, अतीत का,

रहे न सामने कभी सवाल हार-जीत का॥

करो न व्यर्थ हर्ष-शोक, जीत-हार के लिये।

मनुष्य का शरीर है परोपकार के लिये॥

कुरूढ़िवाद छोड़ विश्व का नवीन गात हो,

कुरीतियाँ मिटें सभी, नई प्रत्येक रात हो।

निशाचरी निशा विलीन हो, नया प्रभात हो,

तथा नये समाज का नवीन सूत्र-पात हो।

नवीन हो, बढ़ो नवीन मुक्ति-द्वार के लिये।

मनुष्य का शरीर है परोपकार के लिये॥

*समाप्त*


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