उदार दृष्टिकोण की आवश्यकता

July 1947

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(श्री दौलतरामजी कटरहा बी. ए.)

हम स्वीकार करते हैं कि भारतवर्ष धर्म-प्रधान देश है और इसे अन्य देशवासी भी प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करेंगे किंतु हमारा यह कथन कि भारत वर्ष में दूसरे देशों की अपेक्षा सदा ही धर्म पर अधिक जोर दिया गया है, उन्हें एक दम्भपूर्ण उक्ति सी प्रतीत हो सकती है। हम मानते हैं कि दूसरे देशों में किसी कारणों से धर्म पर उतना जोर आज नहीं दिया जाता जितना कि भारतवर्ष में दिया जा रहा है किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं हो सकता कि अन्य देशों की प्रजा भारतवर्ष से कम धार्मिक है। सच तो यह है कि आज भी ईसाई देश में जो ‘मिशनरी स्पिरिट’ पाई जाती है वह अन्य देशों या धर्मावलंबियों में नहीं पाई जाती। इतिहास के विद्यार्थी जानते हैं कि यूरोप में एक ऐसा युग था जब कि सहस्रों लोगों ने अग्नि में जीते जी जलाया जाना प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार किया किंतु कैथलिक से प्रोटेस्टेंट या प्रोटेस्टेंट से कैथलिक होना स्वीकार नहीं किया। यद्यपि इन प्राण-त्यागी महापुरुषों के सामने स्वधर्म को छोड़कर परधर्म स्वीकार करने का सवाल था किन्तु इनके स्वधर्म और परधर्म में वैसा महदन्तर नहीं था जैसा कि उन धर्मों के बीच में पाया जाता है जिनका कि जन्म भिन्न-2 परिस्थितियों, देशकाल या कारणों से होता है। इनमें वैसा ही अन्तर है जैसा कि शैवों और वैष्णवों में, या शिया और सुन्नियों में है। इतिहास से प्रकट है कि रोमन कैथलिक या प्रोटेस्टेंटों ने, एक ही धर्म के अनुयायी होते हुए भी अपने-2 मत के लिए उत्साह-पूर्वक प्राण त्याग कर जो धर्म-परायणता प्रकट की वह अन्य देशों में सामूहिक रूप में शायद ही कभी देखने में आई हो। अतएव यह कहना कि भारतवासी अन्य देश वासियों से अधिक धर्मप्राण हैं एक गर्वोक्ति सी प्रतीत होती है। ऐसी ही गर्वोक्तियाँ तो सांप्रदायिक वैमनस्य और अन्तर्राष्ट्रीय मनोमालिन्य पैदा करती हैं।

प्रत्येक देश या धर्म का व्यक्ति अपने देश या धर्म की मुक्त कंठ से प्रशंसा करने के लिये स्वतन्त्र है, पर जिस वक्त अपने देश-प्रेम या धर्म-प्रेम से उन्मत्त होकर अपने देश या धर्म को दूसरे देश या धर्म से अपेक्षा कृत श्रेष्ठ कहने में गर्व का अनुभव करने लगता है, वहीं वह दूसरों को मानों चुनौती देता है और अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्विताओं, युद्ध या साम्प्रदायिक संघर्ष का बीज बोता है। अपने देश, धर्म, जाति या कुल को दूसरों से मिलान कर अपेक्षाकृत श्रेष्ठ बताने की मदोन्मत्त भावना में ही अनेकों बुराइयों की जड़ छुपी हुई है। मैं मानता हूँ कि हमें अपने देश, धर्म, गुरु और माता- पिता को श्रेष्ठ समझकर उनमें अपूर्व श्रद्धा रखनी चाहिये किंतु हमारा यह दावा करना कि हमारे माता - पिता ही दुनिया के सब लोगों से श्रेष्ठ हैं और हमारा हिन्दू धर्म, ईसाई या इस्लाम आदि धर्मों से अच्छा है क्या हमारा अन्य लोगों के साथ संघर्ष न करावेगा? हमारी तो ऐसी कुछ आदत पड़ी है कि जब तक हम किसी चीज को सबसे अच्छी न कह सकें अथवा जब तक हम अपनी ही वस्तु को सबसे अच्छी न कह लें तब तक हमारा जी नहीं भरता और न उस वस्तु के प्रति हमारे हृदय में पूर्ण श्रद्धा ही उत्पन्न होती है। शायद इसी कारण उस धर्म के प्रति जिसे कि हम सबसे अच्छा नहीं समझते अथवा जिसे एक दम अपने धर्म से अपेक्षाकृत हीन समझते हैं समुचित श्रद्धा नहीं रखना चाहते और न उसके प्रति दूसरों की पूर्ण श्रद्धा को ही सहन कर सकते हैं और शायद इसी कारण हम दूसरों को काफिर, यवन या मलेच्छ कहते हैं।

यद्यपि तुलनात्मक समालोचना एक विशेष अवस्था में विशेष सीमा तक उपयुक्त है किंतु आज यह प्रवृत्ति लोगों में इतनी अधिक बढ़ गई है कि इसमें प्रत्यावर्तन की आवश्यकता है। नदी की बाढ़ के समान जब यह प्रवृत्ति बढ़ चलती है तब इसे रोकना बड़ा मुश्किल हो जाता है अतएव हमें यह समझ लेना चाहिये कि तुलनाएं अरुचिकर और द्वेषात्मक होती हैं। तुलना करने की ही प्रवृत्ति के द्वारा अनेकों सम्प्रदायवादी धार्मिक संस्थाएं और स्वार्थी लोग हममें छोटाई बड़ाई और भिन्नता का भाव बढ़ाकर हमारी लड़ाकू अन्तःशक्तियों को उत्तेजित कर सकते हैं और इस तरह हमें युद्ध के मोर्चे में भी खड़ा कर सकते हैं। आखिर हिटलर ने भी तो जर्मनी की इस प्रवृत्ति को ही उकसाया था।

इतिहास कहता है कि जब तक यूरोप में ‘रिनेसाँ’ (क्रद्गठ्ठड्डद्बह्यह्यड्डठ्ठष्द्ग) की लहर नहीं दौड़ी तब तक यूरोप में धर्म पुरोहितों का ही अधिक बोलबाला रहा और सारे का सारा देश अज्ञान अन्धकार में डूबा रहा। वह युग कला और विज्ञान की उन्नति में बाधक था, यहाँ तक कि सत्य के जिज्ञासुओं को धर्म-द्रोही और शैतान का प्रतिनिधि कहकर अनेकों प्रकार से पीड़ित किया जाता था। कारण यह था कि धर्म-शास्त्रों में कथित बातें उनके अन्वेषणों से मेल नहीं खाती थीं। दुनिया को रुपये जैसी चपटी न कहकर नारंगी जैसी गोल कहना शैतान की प्रेरणा समझा जाता था। अतएव दिनोंदिन सत्य भक्तों के बलिदानों से लोगों के हृदय में एक क्राँति पैदा होने लगी, जिसके कारण लोगों ने अन्ध-श्रद्धा को तिलाँजलि दे दी और सभी मसलों पर स्वतंत्र रूप से विचार करना आरम्भ किया। उन लोगों ने धीरे धीरे पाप द्वारा नियंत्रित धर्म-रूपी जुए को उतार फेंका और वे अपनी अपनी विचार-पद्धति पर चलने के लिये स्वतंत्र हो गए और परिणाम यह हुआ कि कुछ ही सदियों में यूरोप एक समृद्ध महाद्वीप हो गया। ज्यों-ज्यों वहाँ के लोगों का वैज्ञानिक दृष्टिकोण बढ़ता गया और इसके फलस्वरूप अनुपात की दृष्टि से उनका धार्मिक दृष्टिकोण घटता गया त्यों-त्यों वहाँ भौतिक उन्नति प्रबल वेग से होती गई। इस तरह यूरोप ने आगे चलकर अपने शरीर को बचाने की कोशिश में अपनी आत्मा को खो दिया और हम कह सकते हैं कि द्वितीय विश्व-युद्ध इस भौतिक दृष्टिकोण का ही परिणाम था। यदि यूरोप का दृष्टिकोण समन्वयात्मक होता अर्थात् यदि वह धार्मिक और वैज्ञानिक दोनों दृष्टिकोणों को ध्यान में रख व्यवहार करने की चेष्टा करता तो ऐसी नौबत बहुत मुमकिन है कि न आती। जीवन के इन दोनों दृष्टिकोणों में से कोई भी अकेले ही परिपूर्ण नहीं है क्योंकि ये एक दूसरे के परिपूरक हैं। किन्तु मनुष्य समन्वयात्मक दृष्टिकोण को दृष्टि में बहुत कम रख सकता है क्योंकि उसके मन की प्रवृत्ति जड़वत् है। जिस तरह जड़ पदार्थ किसी एक दिशा में संचालित किए जाने पर उस ओर से स्वेच्छापूर्वक विरत नहीं हो सकता उसी प्रकार मन भी एक बार जिस दिशा में चल पड़ता है उस दिशा में चलते जाना उसके लिये स्वाभाविक हो जाता है और एतदर्थ हमारे मस्तिष्क की रचना से भी उसे सहायता मिलती है। अतएव मनुष्य का मन जिस दिशा में प्रवृत्त हो जाता है उससे निवृत्त होने की शक्ति प्रायः उसमें नहीं रहती। इसी सिद्धान्त के अनुसार यूरोपवासियों का दृष्टिकोण दिनों दिन भौतिक होता चला गया उनकी धर्मभावना विलुप्त प्रायः होती गई और इस तरह उनकी विचार-पद्धति में संतुलन जाता रहा।

इसके ठीक विपरीत हम देख रहे हैं कि जहाँ यूरोप वासियों का दृष्टिकोण आधुनिक समय में वैज्ञानिक अधिक है वहाँ हमारे दृष्टिकोण में धार्मिकता की प्रधानता है। हममें और उनमें समानता इसी बात में है कि जिस तरह उनका दृष्टिकोण एकाँकी है उसी तरह हमारा भी। वे प्रत्येक बात को सिद्ध करने के लिये जहाँ वैज्ञानिक विचार-पद्धति का आश्रय लेते हैं वहाँ हम अनेक बातों को शास्त्रों का रेखागणित के प्रेमियों की तरह प्रमाण देकर सिद्ध करना चाहते हैं अर्थात् जहाँ उनके लिये प्रत्यक्ष सत्य ही प्रमाण है वहाँ हमारे लिए आत्म-वाक्य ही प्रमाण है। हमारी बात का समर्थन करने वाली किसी शास्त्र में लिखी हुई कोई बात मिली नहीं कि हम आर्किमिडीज की तरह ही “पा गया” “पा गया” कहकर चिल्लाने लगे। यदि मुझे चातुर्वण्य के ईश्वर सृष्ट होने में सन्देह हो, यदि मुझे पुनर्जन्म के अस्तित्व में संदेह हो, यदि मैं एक सहस्र युगों का ब्रह्मा का एक दिन न मानता होऊं तो मुझे गीता या वैसी ही अन्य प्रामाणिक मानी जाने वाले पुस्तक का प्रमाण दिया जावेगा और यदि मैं कहीं यह कह दूँ कि भले ही मैं हिंदू हूँ पर मैं गीता, वेद, योग-वाशिष्ठ ब्रह्म-सूत्र आदि की प्रामाणिकता स्वीकार नहीं करता, तब तो मुझे सीधे नरक में ही ढकेल दिया जावेगा, क्योंकि मैं इन पर विश्वास लाये बिना आध्यात्मिक उन्नति कर ही नहीं सकता।

हमने जो विचार-सरणि निर्माण की है उसका आधार धार्मिक श्रद्धा या विश्वास है। हमारा आजकल का साहित्य भी इसी तरह की बातों से भरा पड़ा है। जिस ग्रंथ में या लेख में पूर्वजों के जितने अधिक प्रमाण हों वह उतनी ही अधिक प्रामाणिक मानी जाती है। व्यक्तिगत तौर पर तो मैं इसी प्रमाण - प्रियता के ही कारण भारत-वर्ष धर्म-प्रधान देश मानता हूँ। इसलिये पाश्चात्य जीवन में जहाँ अत्यन्त स्वार्थमयी क्रियाशीलता के कारण संघर्ष होने का खतरा है वहाँ हमारे जीवन में पुरानी विचार-सरणि पर कदम व कदम चलना न छोड़ सकने पर निष्क्रियता से उत्पन्न श्मशान जैसी शाँति होने की आशंका है। अतएव हमें पश्चिम की भूल से शिक्षा लेनी चाहिए और अपने धार्मिक दृष्टिकोण को बनाए रखते हुए उसका वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संयोग कर सुन्दर समन्वय करना चाहिए।


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