(श्री पं. दीनानाथ भार्गव ‘दिनेश’)
चाहें किसी भी धर्म को न मानता परन्तु ‘मनुष्य’ बनकर रहना बहुत अच्छा है। मूढ़ धर्म को मानना अच्छा नहीं है। मूढ़ धर्म का अर्थ है धर्म का सत्य, सुन्दर और शिवरूप नष्ट करके अथवा धर्म में से मनुष्यता निकाल कर उसे मिथ्याचार, पशुता और क्रूरता से जोड़ देना। आजकल वास्तविक धर्म का स्थान इसी मूढ़ धर्म ने ले लिया है और निःसंदेह यह घृणा करने के योग्य है।
ऐसे धर्म में ‘मनुष्यता’ नहीं रहती। जहाँ मनुष्यता है, वहाँ चाहे धर्म का नाम हो न हो, ‘धर्म’ वहाँ अवश्य रहता है। धर्म और मनुष्यता पृथक नहीं किए जा सकते। मनुष्य बनने के लिए धर्म है। यदि मनुष्य न होता तो आज धर्म ही न होता, मनुष्य का इतिहास भी न होता, संस्कृति, सभ्यता और विकास भी न होता और हमारा जीवन, जीवन के रस से शून्य जड़ के समान अथवा ज्ञानहीन पशु के जीवन से महत्वपूर्ण न होता।
यह धर्म ही है, जिसने दया, प्रेम, सेवा, सत्य, अहिंसा और ब्रह्मचर्य का संदेश दिया। वह धर्म ही है किसने शिक्षा, कला-कौशल, सम्पूर्ण ज्ञान और विज्ञान को सुरक्षित रखा। धर्म मनुष्य की आत्मा है, वह देखने में नहीं आता। यदि दीख गया तो वह धर्म नहीं रहता। अन्दर रहकर धर्म जीवन में प्राण भरता है और उसे ज्योतिर्मय करता है।
ऐसे सच्चे, वास्तविक, धर्म से चिढ़ना उससे घृणा करना और उसके सत्य रूप को न जानकर उसे छोड़ देना भयंकर पतन की सूचना है और उससे भी बड़ा पतन है, धर्म में मूढ़ता को जोड़कर उनका स्वाँग बनाना।