देवऋण का परिशोध

August 1947

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(श्री दौलतरामजी कटरहा, बी. ए. दमोह)

देवता अनेक हैं पर बृहदारण्यक उपनिषद् के मतानुसार इनमें से तैंतीस देवता ही मुख्य हैं। (एवैषामेते त्रयस्त्रिंशत्त्वेव देवाः।) यथा आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, इन्द्र और यज्ञ। आठ वसुदेवता परोक्षतः यथाक्रम से पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, भू, र्भुव और स्व हैं। किंतु बृहदारण्यकोपनिषद् के अनुसार वे सब यथाक्रम से पृथिवी, अग्नि, वायु, अन्तरिक्ष, सूर्य, स्वर्ग, चन्द्रमा और नक्षत्र हैं। पाँच कर्मेन्द्रियाँ (मुख, हस्त, पाद,उपस्थ और वायु), पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (मुख, हस्त, पाद, उपस्थ और वायु), पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (श्रोत्र, नेत्र, नासिका, जिह्वा, त्वक्) और वागिन्द्रिय (मन) ही एकादश रुद्र देवता है। किन्तु बृहदारण्यक के कथनानुसार दश प्राण (प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाम, कर्म, कृकल, देवदत्त, धनंजय) और आत्मा ही रुद्र देवता है। द्वादश आदित्य यथाक्रम से वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़ श्रावण, भाद्र, आश्विन, कार्तिक मार्गशीर्ष, पौष, माघ, फाल्गुन एवं चैत्र हैं। इन्द्र देवता मेघ है और यज्ञ देवता प्रजापति है।

उपरोक्त देवताओं की पूजा को ही नित्य नैमित्तिक कर्म कहते हैं। इन्हीं कर्तव्य कर्मों द्वारा देवऋण का परिशोध होता है। वसु और रुद्र देवताओं की पूजा को नित्य कर्म तथा आदित्य इन्द्र और यश देवताओं की पूजा को नैमित्तिक कर्म कहते हैं।

पृथ्वी को पवित्र रखने का प्रयत्न करते रहना अर्थात् मकान, आँगन, हाट, बाट, घाट तथा गाँव के समस्त स्थानों को स्वच्छ एवं निर्मल रखना पृथ्वी देवता की पूजा है। उसी प्रकार कूप, तालाब, नदी, नाले एवं जलपात्रों को स्वच्छ एवं निर्मल रखना, जिससे कि जल सदा सर्वदा सर्वत्र ही पवित्र अवस्था में मिल सके जल देवता की पूजा है। शुष्क काष्ठ के ईंधन, स्वच्छ दीप एवं जलाने के लिये स्वच्छ तेल का व्यवहार करना जिससे की हानिकारक धूम्र की अधिक उत्पत्ति न हो सके अग्निदेव की पूजा है। वायु को शुद्ध रखने के लिये चन्दन, कपूर, अष्ट सुगंधी एवं घृत जलाना वायु देवता की पूजा है। आकाश को जो कि विचार तरंगों और ध्वनि, विद्युत् आदि सूक्ष्म शक्तियों को वहन करने के लिये माध्यम का कार्य करता है, सुन्दर विचार तरंगों और ध्वनियों से गुँजरित करना तथा लड़ाई झगड़ा न करना, गाली आदि कटुवचन न बोलना सुमधुर गीत नृत्य आदि करना आकाश देवता की पूजा है। दूर-दूर मकान बनाना, हवादार मकान बनाना और मकान को चारों और से फल-फूल आदि के सुन्दर चित्रों से सुशोभित करना भू देवता की पूजा है। मृत शरीरों का अग्नि संस्कार करना भुव देवता की पूजा है। प्रातःकाल में स्नान करने के उपरान्त एवं संध्याकाल में भक्ति पूर्वक परमात्मोपासना करना स्व देवता की पूजा है।

वागिन्द्रिय, ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों को बलवान् एवं स्वस्थ बनाने का प्रयत्न करना, अर्थात् नित्यप्रति नियमित रूप से व्यवस्थित व्यायाम, आसान, प्राणायाम द्वारा शरीर के अंग-प्रत्यंगों को बलवान बनाना, नित्य स्नान कर तथा शुद्ध वस्त्र पहनकर और शुद्ध भोजन कर शरीर को स्वस्थ एवं चैतन्य रखना एवं देव, ऋषि, पितृ, नर और पशु इन सबको खिलाकर पश्चात् भोजन करना रुद्र देवताओं की पूजा है।

जिस महीने में जिस विधि से रहने से और जैसा खान-पान रखने से शरीर निरोग, सबल और सुखी रहता है, उस महीने में उस विधि से रहना और वैसा ही खान-पान रखना, जिससे कि वर्ष सुखद हो, आदित्य देवताओं की पूजा का एक अंग है। उसी प्रकार जिस महीने में जिस वस्तु को बोने से प्रचुर शस्य उत्पन्न होता है, वह सब विचार-पूर्वक उत्पन्न करना, समस्त ऋतुओं का ज्ञान प्राप्त कर विवाह, ऋतु दर्शन आदि संस्कारों का विधिपूर्वक पालन करना एवं ब्रह्मचर्य आदि आश्रमों का निर्वाह करना आदित्य देवताओं की पूजा है। सप्ताह, पक्ष, महीने और वर्ष के अन्त में और प्रत्येक विशेष दिन में अर्थात् सभा-सम्मेलन, उत्सव और शोभा यात्रा के अवसर पर यज्ञ एवं सार्वजनीन हवन करना जिससे कि उचित मात्रा में पर्जन्य की प्राप्ति हो मेघ देवता की पूजा है। मेद्योदय के समय, वर्षा के समय, अन्नोत्पादन के समय, भोजन के समय एवं गर्भाधान समय विचारपूर्वक अपने कर्त्तव्य का पालन करना, जिससे कि प्रजा की वृद्धि हो, यज्ञ देवता या प्रजापति की पूजा है। इस तरह पूजा करने से ही देव-ऋण का परिशोध हो जाता है।

जो लोग उपरोक्त देवताओं की उपासना नहीं करते वे लोग अपने जीवन को दुखी बना लेते हैं। इसका यह प्रयोजन नहीं कि देव ऋण का परिशोध न करने वालों से देवतागण क्रुद्ध होकर प्रतिशोध लेते हैं। देवताओं की पूजा न करने वाले व्यक्ति सुख समृद्धि से वंचित रहते हैं इसी को बाल-बुद्धि वाले व्यक्ति प्रतिशोध कहकर पुकारते हैं। प्रतिशोध सदैव क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, वैर आदि दुर्विकारों द्वारा प्रेरित होता है परंतु देवताओं में ये दूषित मनोविकार किंचिन्मात्र भी नहीं होते। वे तो समदर्शी होते हैं। और उनमें तनिक भी पक्षपात नहीं होता। यह अवश्य है कि जो उनकी जितनी अधिक पूजा करता है उसे उतना ही अधिक शुभ फल मिलता है किंतु यह उनका पक्षपात नहीं है। और न इससे उसके सब पर एक जैसे प्रेम होने के सिद्धान्त में बाधा ही पड़ती है। समदर्शन यह नहीं कि सबको जो पुरस्कार मिले उसमें साम्य हो किंतु वास्तविक समदर्शन तथा साम्यवाद यही है कि प्रत्येक को जो फल मिले वह उसके पुरुषार्थ के अनुसार हो। परीक्षक अधिक योग्यतापूर्ण प्रश्नोत्तरों पर अधिक गुण देता है, सौदागर अधिक रुपये देने वाले ग्राहक को अधिक वस्तु देता है और अग्नि अधिक घृत हवन करने वाले को अधिक सुगंध देता है। यद्यपि प्रत्येक व्यक्ति को वस्तुएं भिन्न-भिन्न परिमाण में ही प्राप्त होती है पर वे सबको ठीक-ठीक हिसाब से और समभाव से ही वितरित की गई हैं, ऐसा ही कहा जायगा।

देवतागण पूर्ण काम होते हैं। उन्हें अपने व्यक्तिगत हित के लिए किसी भी वस्तु की कामना नहीं होती और न वे अपने लिये कुछ लेते ही हैं। जो कुछ भी वे आपसे स्वीकार करते हैं वे वह सब आपके लिये ही स्वीकार करते है और आप की अर्पित की हुई सारी की सारी वस्तु को अनेकों गुना लाभदायक रूप देकर आपको ही लौटा देते हैं। जब आप अग्निदेव को एक बूँद घी अर्पित करते हैं तो वे उसका लगभग एक घनफुट वायुमंडल को शुद्ध करने वाला धूम्र बनाकर, आपको बदले में आपकी लागत से भी कई गुना मूल्य चुका देते हैं। यदि आप अपने शरीरस्थ इन्द्रियों के अधिष्ठतृ देवताओं को दस आने का भोजन अर्पित करते हैं तो वे उसके द्वारा आपको दस रुपये पैदा करने की शक्ति एवं स्फूर्ति भी प्रदान कर देते हैं। अतः देवतागण वास्तव में दिव्य स्वभाव वाले होते हैं। वे संतोषी, निस्वार्थी और निष्काम सेवी होते हैं और सदा देना ही जानते हैं।

जिन देवताओं का जिक्र हम ऊपर कर आए हैं उनकी पूजा न्यूनाधिक परिमाण में प्रत्येक व्यक्ति करता है चाहे वह नास्तिक हो या आस्तिक चाहे वह हिंदुस्तानी हो या जापानी। किन्तु जो जातियाँ और जिन देशों के लोग इन देवताओं के ऋण का पूर्णतया प्रतिशोध कर देते हैं वे तो उन्नति करते जाते हैं परंतु जो लोग इनकी विधिवत् पूजा−अर्चना नहीं करते वे सुख-संपत्ति से वंचित रहते हैं। अतः अब स्वाभाविक ही यह प्रश्न उठता है कि यह कैसे जाना जाय कि हमने अपने ऋण का पूर्णतया परिशोध कर दिया अथवा नहीं? यह जानने के लिए हमें विचार कर लेना चाहिए कि हम पर देवताओं का कितना ऋण होता है और फिर उसी ऋण के अनुसार हमें उसका परिशोध भी करना चाहिए। हम पृथ्वी पर कूड़ा कचड़ा फेंकते हैं, उच्छिष्ट भोजन गिराते हैं, थूकते और मल मूत्र आदि का त्याग करते हैं, इस तरह हम जो भूमि को अपवित्र करते हैं वही हम पर ऋण है। इस ऋण का परिशोध करने के लिए हमें चाहिये कि जिन स्थानों को हम पुनः पवित्र करवा सकें उन्हें पुनः पवित्र करवा दें, व्यर्थ ही वहाँ न थूके और निश्चित स्थानों में ही मल-मूत्र का त्याग करें। हम लोग जहरीला और गंदा धुआं फैलाकर मल-मूत्र आदि की बदबू फैलाकर, सड़ी-गली चीजों की दुर्गंध फैलाकर वातावरण को अशुद्ध बनाते रहते हैं। अतएव हमारा कर्त्तव्य है कि वायु देवता के ऋण के परिशोध के लिए हम चंदन घी आदि सुगंधित द्रव्यों का हवन कर तथा तुलसी आदि वायु को शुद्ध करने वाले पौधों को उपजाकर वातावरण को शुद्ध बनावें। तात्पर्य यह कि देव ऋण के परिशोध द्वारा हम प्रकृति को कम से कम उस अवस्था में लाने का प्रयत्न अवश्य करें जिसमें कि हमने उसे पाया था। यदि हम ऐसा न कर सकेंगे तो हमारे ऋण का परिशोध न होगा और हम पतित हो जावेंगे। दूसरे शब्दों में इसका यह अर्थ हुआ कि बिना सेवा किये या बदले में बिना कुछ दिए हम जो कुछ भी स्वीकार करेंगे वह हमें नीचे गिरावेगा। भगवान कृष्ण इसी ऋण परिशोध को यज्ञ कहते जान पड़ते हैं। वे कहते हैं ‘यज्ञ द्वारा बढ़ाए देवता लोग तुम्हारे लिए बिना माँगे ही प्रिय भोगों को देंगे। उनके द्वारा दिये हुए भोगों को जो पुरुष इनके बिना दिए ही भोगता है वह निश्चय चोर है।’ अतः यदि हम विश्व की उपयोगी वस्तुओं को कम से कम उनके पूर्वरूप में ही लाकर न रख देंगे तो वे भविष्य में इतनी क्षीण हो जावेंगी कि हमें उनकी सेवा सहायता से सर्वथा वंचित रहना पड़ेगा।


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