क्या हम हार गये?

August 1947

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आज जनता में राजनैतिक निराशा छाई हुई है। भारत माता के टुकड़े हो गये। पाकिस्तान बन गया। कई रियासतें आजाद होकर अपने अलग पाकिस्तान बना रही हैं। इस प्रकार अनेक टुकड़ों में भारतभूमि खण्ड-खण्ड होती दीख रही है।

लीग को मनमांगी रिआयतें मिली हैं। सीमा प्रान्त और सिलहट में लीग ने दुबारा मत गणना करानी चाही सो तुरन्त स्वीकार कर ली गई। यदि यही सिद्धान्त भारत विभाजन के बारे में काम लाया जाता तो निश्चित था कि आज जिन प्रदेशों को पाकिस्तान बनाया जा रहा है वहाँ की जनता पाकिस्तान के विरोध में मत देती। काँग्रेस की यही माँग थी, पर उसे नहीं माना गया। “आत्म निर्णय” का अधिकार प्रादेशिक इच्छा के ऊपर निर्भर रहता है पर उसे उठाकर ताक में रख दिया गया और मजहब के आधार बटवारा किया गया, जो कि संसार के इतिहास में एक दम नई चीज है।

सन् 42 का हिंसात्मक आन्दोलन, अंग्रेजी सरकार ने कुछ ही महीनों में पूरी शक्ति से कुचल दिया था। सन 1857 के विद्रोह को दबाने में उससे भी अधिक बल प्रयोग हुआ था और उस प्रचण्ड शक्तिशाली विद्रोह को विफल होना पड़ा था। इसके विपरीत बंगाल, पंजाब और सीमा प्रान्त की लोम हर्षक भयंकर खून खराबी महीनों बीत जाने पर भी जारी है। बिहार का हिंसा प्रतिशोध, काँग्रेस के नेताओं और वहाँ के शासकों ने एक सप्ताह में पूर्ण रूप से कुचल दिया था। यदि सच्चा प्रयत्न होता तो कोई कारण नहीं कि जिन सूवों में आज रक्तपात हो रहा है वह अब तक बन्द न हो गया होता।

अभी उलझनों का अन्त नहीं हुआ है वरन् वे और बढ़ती दिखाई देती हैं। काँग्रेस की सीधी सी माँग थी कि देशी रियासतों का जो संबंध अब तक सरकार के साथ रहे हैं वही संबंध उसकी उत्तराधिकारी सरकार के साथ रहें। पर ऐसा स्वीकार नहीं किया गया। अनेकों स्वेच्छाचारी राजाओं के हाथ में सार्वभौम सत्ता देकर वहाँ की प्रजा के हितों को रौंद डाला गया है दूसरी और उन राजाओं की विदेशी राज्यों का अड्डा अपने यहाँ स्थापित करने की छूट मिल गई है। इसके फलस्वरूप टूटे-फूटे भारत की कठिनाइयाँ असाधारण रूप से बढ़ती गई हैं। सीमा कमीशन का प्रश्न उलझा पड़ा है, सिखों की प्रादेशिक एकता टूट रही है। पाकिस्तान, हिंदुस्तान से भले पड़ौसी के से संबंध रखेगा इसका कोई संतोष प्रद प्रमाण अभी तक नहीं मिल रहा है।

इन स्थितियों में भारतीय जनता में 15 अगस्त को मनाये जाने पर स्वराज्य समारोह के लिए कोई खास उत्साह पैदा नहीं हो रहा है। लोग अपने को पराजित समझ रहे हैं। लीगियों को थोड़ी उछल-कूद के बल पर उनकी इच्छा से बहुत अधिक उन्हें मिल गया। दूसरी और स्वाधीनता के लिए इतने लम्बे समय तक इतना कष्टसाध्य आन्दोलन करने पर भी इतना कम, इतना उलझन भरा मिला, इसे देखकर साधारणतः यही लगता है कि हम हार गये।

पर गंभीरतापूर्वक, सूक्ष्म कूटनीतिक दृष्टिकोण से विचार करने पर आज की निराशा का कोई औचित्य दिखाई नहीं पड़ता। हमें यह मानकर नहीं चलना चाहिए कि “अंग्रेजी सरकार हमारी माता है और हिन्दू मुसलमान या राजा प्रजा पुत्र हैं जिसके साथ उसे समान न्याय करना चाहिए।” वस्तु स्थिति इससे बिल्कुल भिन्न है। अंग्रेजों ने हमारे देश पर अपने स्वार्थ के लिए छल−बल से कब्जा किया था। इस कब्जे को कायम रखने में जो जितना सहायक हुआ वह उतना ही उनका मित्र रहेगा। भारत की स्वाधीनता के मार्ग में रोड़ा अटकाने और अंग्रेजी स्वार्थों को कायम रखने में जिन लोगों ने कोई कसर नहीं रखी है, आगे भी वे अपनी इसी नीति को छोड़ने वाले नहीं दीखते, ऐसी दशा में उन्हें इनाम मिलना जरूरी है। सन् 1857 में अंग्रेजों की सहायता करने वाले कितने ही लोगों को जागीरें मिली थी। लीग को, राजा नवाबों को भी आज जागीरें मिल रही हैं। इसे देखकर हमें आश्चर्य या दुख नहीं करना चाहिए। भूतकाल में भी मीर जाफर, जयचन्द, मानसिंह जैसे लोग इस प्रकार के लाभों से लाभान्वित हुए हैं।

जो लोग अंग्रेजों को निकाल बाहर करने के के लिए इतने दिनों से लड़ते आ रहे हैं उन्हें अपने विरोधी से यह आशा नहीं रखनी चाहिए कि वह उनके साथ पिछली बातों को भूलकर उपकार बुद्धि से सहायता करेगा या मित्र शत्रु से समता बरतेगा, ऐसी आशा तो देवताओं से ही रखी जा सकती है।

हमें पराजय अनुभव करने की कुछ भी आवश्यकता नहीं है क्योंकि 15 अगस्त को जो कुछ मिलने वाला है उसमें खोया कुछ नहीं, थोड़ा बहुत पाया ही है। एक मोर्चा जीता ही है। राष्ट्रीयता प्रधान प्रान्तों को स्वशासन प्राप्त हो रहा है। देश की दो तिहाई जनता के हाथों अपने मान्य निर्णय का अधिकार हाथ आ जावेगा। अब तक विदेशी सत्ता पूरी मजबूती के साथ सारे राष्ट्र को अपने फौलादी पंजे में जकड़े बैठी थी, अब उसमें से दो तिहाई भाग छूट जायगा। साँस लेने के लिए अवसर मिल जाने पर प्रजा को बड़ी राहत मिलेगी और शेष जनता की स्वतंत्रता के लिए भी वह अधिक सुविधापूर्वक प्रयत्न कर सकेगी। जनता की जिस शक्ति के दबाव से इतना प्राप्त हो रहा है वही शक्ति शेष सफलता भी प्राप्त करके रहेगी।

राजे, नवाब, सामन्त या धर्मान्ध लोगों के हाथ में आज प्रजा का एक भाग शासन के लिए दिया जा रहा है। प्रजा के हितों की इस उपेक्षा से प्रजातंत्र के समर्थकों को दुख होना स्वाभाविक है। पर यह ध्यान रखना चाहिए कि यह दूसरा जमाना है- प्रजा का युग है। कुछ दिन पहले प्रजा, राजा की भेड़ बकरी होती थी। वह उसका मालिक होता था। जो चाहता था अपनी लाठी के बल से प्रजा से कराता था। पर अब वह बात रहने वाली नहीं है। प्रजा की इच्छा से, बोट से, राज्य शासन चलते हैं। कुछ समय के लिए प्रजा को अन्धकार में, भ्रम में, उन्माद में रखा जा सकता है पर आखिर मनुष्य मनुष्य है, वह अपना हित अनहित देखता है। जो शासक या शासन जनता के हितों के साथ खिलवाड़ करता है वह दूध में से मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया जाता है। जो लोग आज के बटवारे में जागीरें पाकर फूले नहीं समाते। प्रजा की विवेक बुद्धि एवं अधिकार रक्षा की भावना जिस दिन जागृत होगी, उसी दिन इन फूलने वालों को रोने के लिए मजूर भी पैदा न होंगे।

आज जो कठिनाइयाँ पैदा की जा रही हैं वे कृत्रिम हैं। भारत माता की भौगोलिक सीमा ऐसी है कि उसके खंड खंड हो ही नहीं सकते। प्रजा अपने हित, निरंकुश एवं धर्मान्ध लोगों के हाथ में अधिक समय तक रहने नहीं दे सकती। बाहर वालों से मिलकर घर का बंटाधार करने का षड़यंत्र रचने वाले बहुत समय तक अपने कुचक्रों में सफल नहीं हो सकते। आपस में घृणा, द्वेष, प्रथकता, फूट एवं शत्रुता का जहर फैलाने वाले बहुत दिन तक अपने अनुयायियों को उल्लु नहीं बना सकते। राष्ट्र की स्वस्थ विवेक बुद्धि जब पूरी शक्ति के साथ जागृत होगी तो यह कृत्रिम कठिनाइयाँ आँधी में तिनके की तरह उड़ जावेंगी।

काँग्रेस को दोष देना फिजूल है। इस स्थिति में वे लोग इससे अधिक और कुछ कर भी नहीं सकते थे। अंग्रेजों की बात न मानने पर संघर्ष ही एक मात्र रास्ता था। मि. जिन्ना की आज जिस प्रकार मान ली जाती है उस प्रकार काँग्रेस की भी चल जाती यह आशा रखना भोलापन है “सब कुछ या कुछ नहीं” की नीति राजनैतिक मूर्खता होती है। कूट नीति में “जितना मिले उतना लो, शेष के लिए लड़ो” की नीति अपनानी पड़ती है। काँग्रेस ने वही किया है।

तात्कालिक दृष्टि से तो बटवारा एक हद तक सुविधा जनक भी है। 15 फीसदी अल्पसंख्यक, शासन पर आधा कब्जा किये हुए थे। भिन्न संस्कृति की रक्षा के नाम पर उन्होंने राष्ट्र भाषा, गौवध, जैसे सीधे-साधे प्रश्नों को उलझा रखा था, सेना और पुलिस में उनका अत्यधिक अनुपात होने से निष्पक्ष सुरक्षा की निश्चिन्तता नहीं थी, आये दिन अल्प संख्यकों के हितों की विशेष सुरक्षा के नाम पर नित नयी माँगे की जाती थी, जिनसे दबकर पाठ्य पुस्तकों में जग जननी माता सीता को “बेगम सीता” नाम दिया गया था। बटवारे से यह प्रगति विरोधी पत्थर हट जाएंगे। और भारतीय जनता को अपनी आकाँक्षा के अनुरूप अपनी संस्कृति तथा हितों की रक्षा का उचित अवसर मिलेगा।

मत सोचिए कि हम हार गये। हमने खोया कुछ नहीं, कुछ न कुछ पाया ही है। एक मोर्चा फतह ही किया है। आइए, अपनी बिखरी हुई शक्तियों का संचय करें, संगठन को दृढ़ करें, सद्बुद्धि का विकास करें, शेष कठिनाइयों को हल करने की क्षमता उत्पन्न करें। शताब्दियों बाद, विदेशियों विजातियों के चंगुल से छूटकर हम स्वभाग्य निर्णय का सूर्योदय देख रहे हैं। संसार परिवर्तन शील है- काल गतिवान है, एक गहरा धक्का खाने के बाद अब हमारा सौभाग्य पुनः चमकने को है। उसके संभालने के लिए आइए हम अपनी भुजाओं में समुचित बल पैदा करें। हम हारे नहीं हैं थोड़े जीते सही, पर जीते हैं- आगे अभी और जीतेंगे। परमात्मा हमारी सहायता करेगा।


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