परलोक कहाँ है?

August 1947

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भू लोक का परिचय

स्वर्ग और नरक को ढूँढ़ने के लिए दूर जाने की जरूरत नहीं, वह यहीं-इस पृथ्वी पर ही मौजूद है। इसी लोक में अनेकों व्यक्ति सुरपुर का आनन्द लूट रहे हैं, उन्हें सब प्रकार के ऐश आराम हैं। स्वर्ग-लोक के जो वर्णन कथा पुराणों में सुने जाते हैं वे सब उनके लिए इसी लोक में मौजूद हैं। दूसरी ओर अनेकों व्यक्ति ऐसे भी हैं जिनको यमपूरी की समस्त यातनाएं हर घड़ी सामने उपस्थित रहती हैं। अस्पतालों, जेलखानों पागलखानों, अपाहिज गृहों, कोढ़ीखानों में जाकर हम देख सकते हैं कि मनुष्य कितनी पीड़ाएं सहते हैं। अनेकों मनुष्यों के लिए अपनी जिन्दगी का जीना तक कठिन हो जाता है वे तत्कालीन वेदना से छुटकारा पाने के लिए विष खाकर, जलाशय में डूब कर, फाँसी लगाकर, तेल छिड़क कर, रेल के नीचे लेटकर तथा अन्य किसी प्रकार से आत्म-हत्या करने वाला मनुष्य अपने जीवन को मृत्यु से भी अधिक कष्ट दायक अनुभव करता है तभी तो वह इस प्रकार के भयंकर कामों के लिए तैयार हो जाता है। यह घटनाएं बताती हैं कि नरक इस लोक में भी मौजूद है।

नन्दन वन से बगीचे, यक्ष गन्धर्वों से गायक अप्सराओं सी तरुणियाँ, वृहस्पति से देव गुरु, कुबेर से भण्डारी, पुष्पक विमान से वाहन, इस लोक में भी मौजूद हैं। इन्द्र वज्र की समता करने वाला परमाणु बम यहाँ मौजूद है। वरुण, यम, अग्नि, पवन, पूषा, विश्वेदेवा इस लोक में चौकीदार की तरह हाथ बाँधे हर वक्त सेवा के लिए खड़े रहते हैं। विज्ञान ने समस्त देवताओं की शक्तियों को छीनकर मनुष्य की सेवा में उपस्थित कर दिया है। लक्ष्मी, सरस्वती तथा चण्डी के दर्शन करने हों तो किसी अन्य लोक में जाने की जरूरत नहीं। उन्हें इसी लोक में उपलब्ध किया जा सकता है सुरपुरी की विशेषताएं इस लोक में मौजूद हैं।

नरक को ढूंढ़ने के लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं है। कुम्भीपाक, ताम्रपत्र, असिपत्र आदि चौबीस नरकों के स्थान पर यहाँ चौबीस सौ नरक देखे जा सकते हैं। किसी घृणित, भयंकर, कष्ट, साध्य और दुःसह वेदना युक्त बीमारी में जिन्हें स्वयं फंसने का कभी अनुभव हुआ है या ऐसे रोगी की जिनने परिचर्या की है वे जानते हैं कि किसी नरक में इससे अधिक दुःख न होगा। एक सौ पाँच छः डिग्री के बुखार से जिसका रोम-रोम जल रहा है, हड़फूटन और प्यास की बेचैनी से बेहोशी तक आ जाती है उन्हें ‘उष्ण ताप’ नरक से क्या कम कष्ट है? कफ जब गले को रुंध देता है और जब न तो अच्छी तरह साँस ली जाती है न जिह्वा से शब्द निकलता है, तब यमदूत द्वारा गला घोंटने के कष्ट में और क्या अन्तर रह जाता है? गर्भ में बन्द बालक किस कुम्भी पाक से अच्छी दशा में है? आँख, दाढ़ के दर्द, जब उग्र रूप से उठते हैं तो मनुष्य छटपटा जाता है। प्रसव के समय माताएं कितनी पीड़ा सहती हैं। बिच्छू आदि जहरीले जानवरों के काट लेने पर, अग्नि से जल जाने पर, भारी आघात लगने पर या भयंकर फोड़ा उठने पर जो पीड़ा होती हैं वे नरक की किसी पीड़ा से कम होंगी।

नरक में नियत संख्या में यमदूत होते हैं। उन यमदूतों की खास तरह की शक्ल और खास तरह पोशाक होती है जिससे आसानी से उन्हें पहचाना जा सकता है पर यहाँ तो अगणित यमदूत हमारे चारों ओर फिरते हैं। उनकी शक्ल और पोशाक भले आदमियों की सी होने के कारण और भी अधिक गहरी चोट लगती है नरक के यमदूतों को तो जीव पहचान लेता है और उनकी चोटों के लिए तैयार हो जाता है। पर इस लोक के यमदूत उनसे भी भयंकर हैं। वे पहचाने नहीं जाते और अकस्मात ऐसे घातक आक्रमण करते है कि मनुष्य तिलमिला जाता है, उनके चोट करने के निर्लज्ज तरीके को देखकर यमदूत भी सकुचा जाते हैं। मित्र बन कर दगा करने वाले, साधु बनकर ठगने वाले, हितू बनकर विश्वास घात करने वाले, रस दिखाकर विष पिलाने वाले, छाती से लगाने का प्यार दिखा कर कलेजा खा जाने वाले, यम दूत वहाँ गली गली में मिल सकते हैं। ठग, चोर, हत्यारे, व्यभिचारी, लम्पट, विश्वासघाती, लवार, झूठे, चुगलखोर, बेईमान, कपटी, धूर्त, अत्याचारी, अन्यायी, पर पीड़क, निर्लज्ज, कुकर्मी, नास्तिक, लुटेरे, निर्दय, क्रूर निष्ठुर, स्वभाव के साक्षात् शैतान जगह-2 मौजूद हैं। बेचारे यमदूत अपने सीधे साधे दण्ड अस्त्रों से जीव को एक सीधे साधे नियत तरीके से मारते पीटते होंगे पर इस लोक के सफेद पोश यमदूत दूसरों को शारीरिक और मानसिक यातनाएं पहुँचाने के लिए जो जो प्रपंच रचते हैं उन्हें देखकर नरक के यमदूत हैरत में रह जायेंगे उन बेचारों से सात पुश्त में भी ऐसे मायावी आक्रमण करना शायद न आवे।

दृष्टि पसार कर हम यदि दूर दूर तक देखें और सुखी, सम्पन्न, समृद्ध लोगों के जीवन के आनन्द तथा दुखी, दरिद्र, पीड़ित लोगों के कष्टों पर कुछ देर विस्तृत विचार करें, दोनों प्रकार के लोगों के जीवन पूरे चित्र अपने कल्पना क्षेत्र में खींचें तो इसी लोक में स्वर्ग और नरक का आस्तित्व हमें मिल जायगा। सुख भी इतना है कि उससे बढ़कर स्वर्ग में भला और क्या अधिक सुख होगा? दुख भी इतना है कि उन दुखों के आगे नरक लोक में और अधिक भला क्या दुख होगा? मृत्यु तुल्य ही नहीं आत्म हत्या के लिए प्रेरित करने वाले मृत्यु से भी अधिक दुख इस लोक में मौजूद हैं, यह कष्टों की अन्तिम सीमा है। इन सब बातों पर विचार करते हुए सत् पुरुषों ने कहा है कि ‘स्वर्ग और नरक इसी लोक में है।’ सचमुच पूर्ण तृप्ति दायक और अत्यन्त उद्विग्न करने वाली स्थिति इस लोक में मौजूद है। स्वर्ग और नरक का पूरा-पूरा आस्तित्व इस लोक में उपलब्ध है।

परलोक को भोगलोक कहा जाता है। परलोक में भले या बुरे भोग भोगने पड़ते हैं। इस लोक में जहाँ कर्म करने की सुविधा है वहाँ कर्म फल के भोग भोगने में विवशता भी है। कोई व्यक्ति सुकर्म करके उसके सुफल से बचना चाहे तो यह उसके हाथ की बात नहीं, इसी प्रकार बुरे कर्म करके दण्ड से बचना भी सम्भव नहीं। रोगी, घायल, अपाहिज तथा अन्य दुखों में पड़े हुए व्यक्ति यह कब चाहते हैं कि उन्हें दुख सहना पड़े तो भी चूँकि इस लोक में परलोक भी मौजूद है। उस परलोक के नियमानुसार उन्हें नरक भोगने के लिए विवश होना पड़ता है। उसी प्रकार चाहने को तो सुख समृद्धि सभी चाहते हैं पर चाहत कितनों की पूरी होती है? कितने ही जीव किसी ऐसे परिवार में उत्पन्न होते हैं। जहाँ अनायास ही अपार सुख साधन मौजूद रहते हैं। कर्मभोग उन्हें उस स्थिति में ले दौड़ता है। चूँकि परलोक इस लोक में मौजूद है इसलिए स्वर्ग सुख की स्थिति भी अधिकारी लोगों के सामने परलोक के नियमानुसार अपने आप सामने आ जाती है। इस लोक में परलोक का कार्यक्रम यथावत् चल रहा है। उस कार्यक्रम के अनुसार सभी प्राणी स्वर्ग और नरक के सुख-दुख का रसास्वादन करते हैं।

भूलोक के परलोक में सुख को स्वर्ग और दुख को नरक कहते हैं। जिन्हें इस लोक में सुख प्राप्त है वे स्वर्ग भोग रहे हैं और जिन्हें दुख प्राप्त हो रहा है वे बेचारे नरक भोग रहे हैं। यह एक मोटी परिभाषा है। इतना कह देने से ही काम न चलेगा अब हमें बारीकी में जाना होगा! कितने ही व्यक्ति ऐसे हैं जिन्हें रुपया-पैसा, धन-दौलत, सोना-चाँदी की किसी प्रकार की कमी नहीं। नौकर-चाकर, महल-मोटर सब कुछ है। रूपवती रमणियाँ जिनकी कृपा कोर की ओर निहारती रहती हैं। ऐश आराम के तरह तरह के साधन मौजूद हैं। इतना सब होते हुए भी उन्हें चैन नहीं, दिन-रात अशान्ति की ज्वाला में जलते रहते हैं, रात को नींद नहीं आती, सारी सुख सामग्री फीकी मालूम होती है। हमें ऐसे अनेकों उदाहरण मिलते हैं कि अमुक राजकुमार या धनी व्यक्ति ने अपने ऐश आराम में लात मार दी और अमुक त्याग पूर्ण रास्ता ग्रहण कर लिया, इससे प्रतीत होता है कि उन्हें उस सुख सामग्री में वास्तविक सुख नहीं मिला।

हमारा व्यक्तिगत रूप से अनेक धनी मानी और समृद्ध व्यक्तियों से संपर्क रहता है वे अपने हृदय की कथा खोलकर हमारे सामने अपने मन का भार हल्का करते हैं। पिछली एक चौथाई शताब्दी के अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर हम कह सकते हैं कि सुख सामग्री होते हुए भी बहुत ही कम लोग ऐसे हैं जो सुखी कहे जा सकते हैं। अधिकाँश में तो वे गरीब और अभाव ग्रस्त लोगों से भी अधिक दुखी पाये जाते हैं।

अब दूसरी ओर देखिए इस दुनिया में ऐसे लोग हैं जिनके पास धन संपत्ति नहीं है। साथ ही कष्ट भी उठाते हैं फिर भी वे स्वर्गवासी कहे जा सकते हैं। साधु, सन्त, ब्राह्मण, तपस्वी, महात्माजनों के पास धन सम्पत्ति नहीं होती, उनके पास जीवन निर्वाह को अन्न, वस्त्र जैसी साधारण वस्तुएं भी पर्याप्त मात्रा में नहीं होती धन के अभाव में प्रायः कुछ न कुछ असुविधाएं उनके सामने खड़ी ही रहती हैं। कितने ही परोपकारी मनुष्य संसार के हित के लिए कष्ट सहते हैं। दधीचि ने अपनी हड्डियाँ दी, हरिश्चन्द्र ने अपने को तथा स्त्री पुत्र को बेचा, मोरध्वज ने अपने पुत्र को दे डाला, शिवि ने अपना माँस काट कर दिया। बन्दा वैरागी, हकीकत राय आदि ने नाना विधि कष्ट उठाये मीरा और दयानन्द ने विष के प्याले पिये, प्रहलाद ने पिता के अत्याचार सहे, भारत के स्वाधीनता संग्राम में लाखों व्यक्तियों ने जेल, लाठी, गोली, तथा फाँसी सहीं, यह कष्ट सहन यह दुख, नरक नहीं कहा जा सकता। ऐसे कष्टों में भी स्वर्ग का सुख छिपा होता है। स्वेच्छा से स्वीकार किया हुआ कष्ट तप कहलाता है। तप बाहर से कष्ट जैसा दिखाई पड़ता है पर वास्तव में वह दुख नहीं है।

सुख और दुख पर निर्णय वस्तुओं के होने न होने के आधार पर नहीं किया जा सकता। मौज से पड़े रहना या कष्ट में दिन व्यतीत करना भी स्वर्ग नरक की पहचान नहीं है। क्योंकि न तो धनी लोग सुखी ही देखे जाते हैं। और न अभाव ग्रस्तों या कठिनाइयों में दिन व्यतीत करने वालों को दुखी ही कहा जा सकता। शास्त्रकारों ने भूलोक के सुखों में शारीरिक, मानसिक और नैतिक स्वास्थ्य को स्वर्ग बताया है और इन स्वास्थ्यों का अभाव ही नरक है। जो शरीर से स्वस्थ है उसे बीमारियों के आक्रमण का आये दिन शिकार न होना पड़ेगा। रोगों का उन पर हमला होता है जिनका शरीर दुर्बल होता है। बलवान शरीर वाला मनुष्य दैहिक पीड़ाओं से प्रायः बचा रहता है। इन्द्रियों के बलवान रहने से भोग शक्ति सुस्थिर रहती है और उसे साधारण भोग सामग्री में भी वह आनन्द आता है जो अमीरों को बहुमूल्य ऊंचे दर्जे की वस्तुओं में उपलब्ध नहीं होता। जिसकी पाचन शक्ति ठीक है, जिसे कड़ाके की भूख लगती है उसे जौ की रोटी, चने के साग से खाते हुए वह आनन्द आता है जो कब्ज और जुकाम से पीड़ित रहने वाले व्यक्ति को छप्पन व्यंजनों से भरे थाल में नसीब नहीं हो सकता। काम शक्ति स्वस्थ रहने से मजूर और उसकी स्त्री, मजूरिनी, इन्द्र और अप्सरा का आनंद अनुभव करते हुए रात बिताते हैं। पर जिन्हें प्रदर, प्रमेह, शीघ्रपतन, नपुँसकता आदि घेरे हुए हैं वे पति पत्नी कितने ही रूपवान हों, कितनी ही विलास सामग्री सम्पन्न हों दांपत्ति जीवन का सुख नहीं उठा पाते। रात्रि आती है पर उन्हें चिढ़ाने, तिरष्कृत करने और कुढ़ाने आती है। जीविका का प्रश्न भी स्वास्थ्य से सम्बन्धित है। जो मजबूत है, निरोग है, वह धरती में लात मारकर अपने निर्वाह कि लिए चाहे जहाँ से जीविका उपार्जित कर लेगा। उसे निर्वाह के लिए जीविका कमाने की कभी चिन्ता नहीं करनी पड़ती।

शारीरिक स्वास्थ्यता स्वयं एक सुख है जिसमें हर वक्त ताजगी, प्रसन्नता, निश्चिन्तता तथा खुशी छाई रहती है। आत्मविश्वास, साहस, पुरुषार्थ और उत्साह की तरंगें उठती रहती हैं। निरोग मनुष्य अपने आप में एक पूर्णता अनुभव करता है। इन्द्रियाँ सशक्त और क्रियाशील रहने पर दीर्घ काल का अपना काम ठीक प्रकार करती रहती हैं। बुड्ढ़े हो जाने पर भी नेत्रों की ज्योति ठीक रहती है। दाँत मजबूत बने रहते हैं। कानों से ठीक सुनाई देता है। भोजन करते समय वे नित्य एक तृप्तिदायक सुख का आनन्द लूटते हैं। उसके दांपत्ति जीवन में बड़ा संतोष जनक सुख रहता है, जीविका उपार्जन करने में वे कभी पीछे नहीं रहते। धनी होना दूसरी बात है पर इतना वे अवश्य कमा लेते हैं कि जीवन क्रम पूर्ण सुविधा के साथ चलता रहे। यह सब सुख ऐसे हैं जिनके लिए बड़े-बड़े अमीर तरसते हैं।

पैसे की अधिकता से सुख साधन तो अवश्य मिल जाते हैं। पर साथ ही साथ उस पैसे की छीन झपट करने के इच्छुक भी इतने पैदा हो जाते हैं कि उनके बचाव करने उनके आक्रमण को रोकने के लिए असाधारण रूप से चिन्तित रहना पड़ता है। दूसरे उस पैसे की अधिकता के कारण अनेकानेक दुर्गुण पैदा हो जाते हैं, उन दुर्गुणों के दुःखद परिणाम नित नये क्लेश उत्पन्न करते रहते हैं। इन तीनों प्रकार की बेचैनियों में मनुष्य का स्वास्थ्य क्षीण हो जाता है। और वह स्वस्थता में मिलने वाले सुखों से वंचित हो जाता है। यही कारण है कि धनी लोग सुखी बहुत कम देखे जाते हैं। इस संसार में, भूलोक में सुख उन्हें है जो शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ हैं। एक निरोग व्यक्ति-चाहे वह निर्धन ही क्यों न हो इतना सुखी रहता है, जितना सुखी धनवान् व्यक्ति अपने सारे धन के बदले में भी नहीं हो सकता।

शारीरिक सुख के बाद मानसिक सुख है, सुशिक्षा, विद्या, विचारशीलता, समझदारी, सुविस्तृत जानकारी, अध्ययन, चिन्तन, मनन, सत्संग, अनुभव आदि के द्वारा मन और मस्तिष्क को सुसंस्कृत बना लेना, मानसिक स्वस्थता है। शिक्षा के द्वारा डॉक्टर, वकील, इंजीनियर, अफसर, वैज्ञानिक, लेखक, सम्पादक, बाजीगर, शिल्पी, व्यापारी, कलाकार, लेखक, मूर्तिकार, चित्रकार, संगीतज्ञ, नट आदि अपनी-अपनी महत्ता प्रकट करते हैं। अपनी योग्यताओं के बल पर संसार को सफलता का सन्तोषदायक आनन्द अनुभव करते हैं, सम्पत्ति कमाते हैं, यशस्वी बनते हैं, तथा मरने बाद नई पीढ़ी के लिए एक आदर्श छोड़ जाते हैं।

सुशिक्षा ने ही इस संसार में महात्मा, भक्त, ज्ञानी, तपस्वी, त्यागी, गुणी, विद्वान, महान पुरुष, पथप्रदर्शक, नेता, देवदूत, पैगम्बर तथा अवतार पैदा किये हैं। यदि दुनिया में सुशिक्षा न रहे तो मनुष्य एक बहुत ही दुर्बल और असहाय पशु मात्र रह जायगा। ज्ञान ने ही मनुष्य को तुच्छ पशु से ऊंचा उठाकर सृष्टि का सम्राट बना दिया है। जीवन का सुख इस विद्याबल पर भी बहुत हद तक निर्भर है। अशिक्षित, मूर्ख, बेवकूफ, भोंदू या अज्ञानी पुरुष एक प्रकार का पशु है, उसे पशुवत् भारभूत जीवन व्यतीत करना पड़ता है। अपनी शक्यों को न तो वह जानता है न उन्हें विकसित कर पाता है और न उनसे लाभ उठा पाता है। किन्तु जो लोग बुद्धिमान हैं वे अपने बुद्धिबल से इस जीवन में ही स्वर्ग सुख का आनन्द लूटते हैं।

विवेकवान् व्यक्ति अनेक प्रकार के मानसिक क्लेश और कष्टों से बचे रहते हैं। संसार में प्रकृति के क्रम से वस्तुओं का परिवर्तन होता है। स्वजनों की मृत्यु, विछोह, घाटा, चोरी, भूल, टूट, फूट, आदि के कारण अनेकों प्रकार की अनिच्छित घटनाएं सामने आती हैं। अविवेकी पुरुष अनिच्छित घटनाएं घटित होते देखकर मानसिक सन्तुलन खो बैठते हैं और शोक क्लेश, चिन्ता, बेचैनी, पीड़ा एवं अशाँति अनुभव करते हुए बुरी तरह रोते कलपते हैं। परन्तु विचारशील पुरुष इस गतिशील संसार की इन नित्य घटित होने वाली घटनाओं से विचलित नहीं होते और इस शोक सागर में डूबने से बच जाते हैं जिसमें कि अज्ञानी पुरुष डूब कर अपने जीवन को बुरी तरह घुला डालते हैं। स्वास्थ्य की भाँति शिक्षा भी अपने आप में स्वयं सुख है। सुशिक्षित मनुष्य के अन्तः करण में एक बल रहता है। सद्विचारों, सुस्थिर विचारों और महत्व पूर्ण विचारों से उसका मन सदा प्रसन्न, प्रफुल्ल तथा सन्तुष्ट रहता है।

शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के बाद नैतिक स्वास्थ्य का स्थान है। स्वास्थ्य के इन तीन भागों को मिलाकर पूर्ण स्वस्थता बनती है। ईमानदारी, धर्म परायणता, सदाचार, संयम से अपने आपको पवित्र बनाना तथा दूसरों के साथ प्रेम, परोपकार, सेवा, उदारता, एवं मधुरता का व्यवहार करना यह नैतिक स्वास्थ्य की परिभाषा है। अपनी असुविधा से दूसरों की असुविधा का ध्यान रखना और अपने सुख को पहला स्थान देना, यह नैतिक स्वास्थ्य की कसौटी है। इस कसौटी पर जिनकी विचारधारा और कार्य प्रणाली खरी उतरती है वे नैतिक दृष्टि से स्वस्थ हैं।

नैतिक स्वास्थ्य ठीक होने से समाज का बड़ा मधुर सहयोग प्राप्त होने लगता है। घर में, घर से बाहर, समाज में, देश में, विदेश में ऐसे स्वस्थ मनुष्य को सभी अपनाते हैं। सहयोग करते हैं, सहायता देते हैं, प्रेम करते हैं, प्रशंसा करते हैं तथा छाती से लगाते रहते हैं। नैतिक स्वास्थ्य एक खिला हुआ सुगन्धित पुष्प है, जिसे देखने को, सूँघने को, छूने को, सभी लोग ललचाते हैं। जो ईमानदार है, सच्चा है, विश्वासी है, निष्कपट है, मधुर भाषी है, वफादार है, प्रेम करता है, उदार है, सेवा भावी है, ऐसे व्यक्ति को पाकर हर कोई अपने को धन्य मानता है। पिता पुत्र को, पत्नी पति को, भाई-भाई को, मित्र-मित्र को, मालिक नौकर को, इन गुणों से युक्त पाकर फूला नहीं समाता। नैतिक स्वस्थता से आधार पर मनुष्य सच्चे अर्थों में मनुष्य बनता है। सच्चा मनुष्य देवताओं की तरह महान और वन्दनीय है। नैतिकता में हजार हाथियों के बराबर बल बताया जाता है। वस्तुतः ईमानदार, मधुर और उपकारी स्वभाव के मनुष्य में अकूत बल होता है। उसे अपार आनन्द का अपने अन्तःकरण में निरन्तर अनुभव होता रहता है।

जिसे सच्चे हृदय से प्यार करने वाले, सच्ची सहानुभूति रखने वाले, आदर करने वाले अनेकों मनुष्य प्राप्त हैं। उसके लिये यह लोक ही स्वर्ग है। आत्मीयता, प्रेम, विश्वास और आदर भाव रखने वाले लोगों के बीच में रह कर मनुष्य को जो सुख मिलता है उसका रसास्वादन करने वाले भुक्त भोगी ही जानते हैं। गरीबी होते हुए भी प्रेम और विश्वास के वातावरण में रहते हुए जो आनन्द मिलता है, उस पर अविश्वासी वातावरण की अमीरी को निछावर किया जा सकता है। नैतिकता का विकास मनुष्य के आस्तित्व का, व्यक्तित्व का, विकास है। इसे अध्यात्मिक उन्नति भी कहते हैं। जिसकी नैतिकता जितनी ही विकसित है, उसे अपने अन्तः करण में सदा आनन्द का अनुभव होगा और चूँकि संसार दर्पण के समान है, इसमें वैसी ही शक्लें दिखती हैं। जैसे कि हम स्वयं होते हैं। अपने आपको भला बना लेने पर दुनिया के भले तत्व अपने सामने आ जाते हैं और उसे ऐसा प्रतीत होता है, कि इस दुनिया में सच्चे, सज्जन, प्रेमी, भले एवं उत्तम स्वभाव के मनुष्य ही भरे पड़े हैं। हर जगह उसे अनुकूलता, मधुरता और शाँति का वातावरण दृष्टिगोचर होता है।

शारीरिक, बौद्धिक और नैतिक स्वस्थता में वह शक्ति है कि भूः लोक को स्वर्गीय आनन्द से परिपूर्ण बना देती है। जिन साधना की जीवन को आनन्दित बनाने के लिये आवश्यकता है वे सभी उसे उपलब्ध हो जाते हैं। हो सकता है कि उसके पास लाख करोड़ की सम्पत्ति न हो पर जो कुछ स्वस्थ मनुष्य के पास होता है वह इतना अधिक एवं इतना वास्तविक होता है कि उसकी तुलना में चाँदी का मैदान और सोने का पहाड़ भी तुच्छ है, जिन्हें यह त्रिविधि स्वस्थता प्राप्त है। उनके लिये यह परमात्मा का परम पुनीत उपवन-संसार सब प्रकार आनन्दमय है। सब ओर उसे प्रसन्नता और सुख शाँति का झरना झरता दृष्टि गोचर होता है। प्रभु की पुण्य कृति यह वसुधा वसुन्धरा, माता की गोद के समान सुखद दृष्टि गोचर होती है। शास्त्र कहता है- ‘जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।’ स्वस्थ मनुष्य इस शास्त्र वचन की सत्यता को प्रत्यक्ष अनुभव करता है। उसे लगता है कि जन्म-भूमि धरती माता का भूलोक, स्वर्ग से कम तो किसी प्रकार नहीं, वरन् उससे अधिक ही है।

शरीर को स्वस्थ रखना, बुद्धि को विकसित करना और नीतिवान बनाना, तीनों ही बातें मनुष्य के हाथ में है। कुमार्ग पर जाने से नीच, तामसिक, दुर्गुणों को अपनाने से शरीर नष्ट होता है, बुद्धि नष्ट होती है और सामाजिक प्रेम भाव तथा विश्वास नष्ट होता है। यह सर्वनाश ही नरक है। बुरे कामों के लिये जिसकी निन्दा होती है, जो अयोग्यता अथवा दीनता के कारण तिरष्कृत होता है, उसे नरकगामी कहना चाहिए। सद्गुणों के द्वारा जो दूसरों का मन अपनी मुट्ठी में रखता है, जिसे समीप देखकर दूसरों के हृदय की कली खिल जाती है, जिसके विचार तथा कार्य सम्माननीय हैं, वह स्वर्ग गामी कहा जायगा।

जिन्हें भू लोक के परलोक में, इसी जीवन में, स्वर्ग का रसास्वादन करना हो उन्हें चाहिए कि अपने शारीरिक, बौद्धिक और नैतिक स्वास्थ्य को उन्नत बनावें। इस उन्नति के साथ-साथ मनुष्य क्रमशः स्वर्ग की सीढ़ी पर चढ़ता जाता है और नरक की यातनाओं से दूर हटता जाता है।


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