एक लकड़हारा जंगल से लकड़ी के कोयले बनाकर शहर में लाया करता था और उन्हें बेच कर अपना पेट पाला करता था।
एक बार कोई राजा रास्ता भूलकर उसी जंगल में आ निकला जहाँ लकड़हारा कोयले बना रहा था। राजा बहुत प्यासा था, लकड़हारे ने उसे पानी पिलाया और उसके श्रम निवारण के लिए सेवा सुश्रूषा भी की।
राजा ने प्रसन्न होकर लकड़हारे से कहा-तुमने मेरे साथ जो नेकी की है, मैं उसका इनाम देना चाहता हूँ। बोलो-तुम्हें क्या चाहिए?
लकड़हारे ने कहा-राजन्! आप प्रसन्न हैं तो मुझे एक ऐसा बन दे दीजिए जिनके सहारे मेरी शेष जिन्दगी आसानी से कट जाय। राजा ने उसे एक बहुत बड़ा चन्दन का उपवन इनाम दे दिया।
लकड़हारे ने चन्दन के बन में अपना डेरा जमा लिया। वह पेड़ों को काटता और कोयले बनाकर शहर में बेच आता। पहले जगह जगह पेड़ ढूँढ़ने जाने की अपेक्षा अब उसे यह सुभीता हो गया कि एक ही स्थान पर लगे हुए बहुत से पेड़ मिल गये। दूर दूर जाने की असुविधा दूर हो गई
बहुत दिन बीत गये। राजा को एक दिन ध्यान आया कि आज चन्दन बन में चले और उस लकड़हारे को देखें चन्दन की तिजारत में अब तो वह लखपती करोड़पती हो गया होगा। स्वर्गीय सुख का जीवन बिता रहा होगा।
राजा घोड़े पर सवार होकर चन्दन बन पहुँचा। पर वहाँ तो दूसरे ही दृश्य थे। सारा वन कट चुका था। पेड़ों के स्थान पर राख के ढेर लग रहे थे। केवल एक पेड़ बचा था। उसी के नीचे लकड़हारा अपनी कुल्हाड़ी लिये उदास बैठा था इस अन्तिम पेड़ के कोयले बन जाने के बाद कल फिर इधर उधर भटकना पड़ेगा- यह चिन्ता उसे बेचैन बनाये हुए थी।
राजा को यह दृश्य देखकर बड़ा दुख हुआ। लकड़हारे के पास पहुँचा उसकी आँखों में क्रोध, क्षोभ, ओर सन्ताप की ज्वाला जल रही थी।
राजा ने पेड़ पर से एक टहनी तोड़ी और लकड़हारे से कहा-जा, इसे बाजार में बेचकर आ।
लकड़हारा शहर में पहुँचा, टहनी को बेचने की आवाज लगाने लगा। असली चन्दन की सुगन्ध से सारा बाजार महक रहा था, खरीददारों की भीड़ लग गई। हर एक चाहता था कि यह मुझे मिले। टहनी की कीमत उसे तीस रुपये प्राप्त हुई।
रुपये लेकर लकड़हारा राजा के पास वापिस लौट रहा था। उसका हृदय अपनी नासमझी पर भारी दुख अनुभव कर रहा था। इतने मूल्यवान वृक्षों का वन मैंने कोयले बना बना कर बेच दिया। जो एक ही पेड़ हजारों रुपयों का था, उसके कोयले एक दो रुपये में ही बिक पाये सो भी, काटने, जलाने, बुझाने, ढोने और बेचने की भारी मेहनत के बाद। कितना बड़ा अमूल्य अवसर हाथ आया था पर कैसे दुर्भाग्य के साथ वह चला गया। लकड़हारा हाथ मल मल कर पछता रहा था। उसके आँसुओं की धारा रुकती न थी।
राजा चन्दन बन को इस प्रकार नष्ट किये जाने पर क्षोभ और सन्ताप के साथ वापिस लौटा, उधर लकड़हारा ठंडी आहें भर रहा था-काश, उसे समय रहते समझ आ गई होती, तो वह आज खाली हाथ, चिन्ताग्रस्त, राजा का घृणा पात्र, कंगाल होने की अपेक्षा बहुत बड़ा धनी हुआ होता, उसके प्रयत्न से प्रसन्न होकर राजा ने और भी कोई बड़ा उपहार दिया होता।
मौका निकल गया। आज तो राजा भी, और लकड़हारा भी-दोनों ही दुखी हो रहे थे।
यह लकड़हारे और राजा की कहानी, वास्तविक है या काल्पनिक, वह हम ठीक-ठीक नहीं कह सकते। पर इतना निश्चित रूप से कह सकते हैं कि जो तथ्य इस कहानी में है, वह ज्यों का त्यों हमारे जीवनों पर घटित होता है।
परमात्मा ने मनुष्य जीवन जैसी सुरदुर्लभ अमूल्य सम्पत्ति दी है। वह चाहे तो उसके वेश कीमती क्षणों का सदुपयोग करके सच्ची सम्पदाओं से सम्पन्न हो सकता है। पर देखा जाता है कि लोग चन्दन के पेड़ के कोयले बनाने में लगे हुए हैं और उस कोयले की बिक्री के पैसों से संतुष्ट हैं। कुच, काँचन का लाभ एवं लोभ कोयले की बिक्री के समान है। इतने सरल लाभ से जो प्रसन्न हैं, उन्हें मूर्ख लकड़हारे से कम किसी प्रकार नहीं समझा जा सकता।
भगवान् जब देखता है कि चन्दन का बगीचा इस प्रकार जलाया जा रहा है तो उसे संताप होता है। मृत्यु की गोदी में पहुँच कर जब मनुष्य देखता है कि मैंने सुरदुर्लभ सम्पदा के कोयले बना-बना कर बेच दिया तो उसे सहस्र बिच्छुओं के काटने के समान पश्चाताप की पीड़ा होती है। इस हानि की, दुनिया की और किसी हानि से समानता नहीं हो सकती।
आज हम लोग नशे में चूर हैं, अज्ञान की वारुणी पीकर उन्मत्त हो रहे हैं। धन के पहाड़ जमा करने और इन्द्रिय भोगों की जी भर कर भोगने की आकाँक्षा से सराबोर हो रहे हैं। आज यही बातें सबसे महत्वपूर्ण मालूम पड़ती हैं इन्हीं के लिए एक-एक क्षण खर्च होता है। आत्म-चिन्तन के लिए सत्कर्म के लिए एक मिनट की फुरसत नहीं मिलती, पर वह दिन दूर नहीं जब यही बातें सबसे बड़ी बेवकूफी मालूम पड़ेंगी और इस ना समझी के लिए लकड़हारे की तरह सिर धुन-धुन कर और हाथ मल-मल कर विलाप करना पड़ेगा।
लकड़हारों! सावधान!! पाठको! सावधान!!