संतानहीन होना दुर्भाग्य नहीं है।

August 1947

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साँसारिक सुखों में एक संतान सुख भी है। अपनी बनाई निर्जीव वस्तुएं भी प्रिय लगती हैं फिर संतान तो सजीव वस्तु है। बाजार में बिकने वाले खिलौने मनुष्य का मन आकर्षित करते हैं फिर चलता फिरता, हंसता, बोलता, कोमल भावनाओं का आदान प्रदान करने वाला खिलौना तो और भी सुन्दर लगता है। पिता को, पालन पोषण करने वाले का, गौरव भी तो संतान से मिलता है। इस गौरव से मनुष्य के मन में रहने वाली बड़प्पन प्राप्त करने की इच्छा तृप्त होती है बड़े होने पर यह बालक मेरा नाम चलावेगा, मेरे रिक्त स्थान की पूर्ति करेगा, मेरी सेवा करेगा तथा वृद्धावस्था बीमारी आदि में सहारा देगा, घर को सुसम्पन्न बनावेगा ऐसी आशाएं पिता अपने बालक से करता है।

एक और भी मनोवैज्ञानिक कारण सन्तान प्रेम का है वह यह कि मनुष्य अपनी अतृप्त इच्छाओं को तृप्त करने के लिए बालक को माध्यम बनाकर तृप्ति लाभ करना चाहता है। जैसे कोई व्यक्ति स्वयं तो धन नहीं कमा सका पर उसके मन में यह आशा लगी रहती है कि मेरा बेटा प्रचुर धन कमावेगा। खुद को कुरूप स्त्री मिली तो वह उस अतृप्त इच्छा को, बेटे की बहु सुन्दर प्राप्त करके करना चाहता है। इसी प्रकार गुजरे हुए बालकपन को वह एक बार फिर पाना चाहता है पर अपने जीवन में यह संभव नहीं, इसलिए सन्तान की बाल लीलाओं में रस लेकर वह उन हसरतों को पूरी करता है। अपने अधूरे काम को पूरा होने की पुत्र या शिष्य से आशा की जाती है। इस प्रकार अपनी असफलताओं की निराशा को पिता, अपनी सन्तान के रूप में पूरा करने की कल्पनाएं, आशाएं बाँधता है। यह मानसिक आयोजन बड़ा ही प्रिय लगता है। इन आशा तन्तुओं से अपने को श्रावद्ध करके, अभागा मनुष्य भी सौभाग्य की सुनहरी किरणों की झाँकी किया करता है। यह मन का महल, सच्चे महल से भी अधिक प्रिय लगता है। क्योंकि वास्तविक वस्तु की अपेक्षा उसका चित्र अधिक सुहावना लगता है। इन सब कारणों से सर्वसाधारण की इच्छा होती है कि उसे सन्तान सुख मिले। उपरोक्त कारणों में से कन्या की अपेक्षा पुत्र द्वारा अधिक की पूर्ति होती है। इसलिए लोग कन्या की अपेक्षा पुत्र को अधिक चाहते हैं। अधिक पुत्र होना अधिक सौभाग्यशाली होने का चिन्ह समझा जाता है।

परन्तु कितने ही मनुष्य ऐसे हैं जिन्हें पुत्र नहीं है। वे पुत्र प्राप्ति के लिए बड़े चिन्तित रहते हैं। जिनके केवल कन्याएं हैं वे बेटे की कामना करते हैं। कितने तो ऐसे है जिनके न कन्या है न पुत्र, वे और भी अधिक चिन्तित देखे जाते हैं। इस चिन्ता के निवारण के लिए, देवी-देवता, साधु-सन्त, वैध-डॉक्टर, मनाये जाते हैं। फिर भी कइयों को सफलता नहीं मिलती है। ऐसे लोग प्रायः बहुत दुखी, चिन्तित और निराश देखे जाते हैं। आइए, विचार करें कि क्या यह चिन्ता वास्तविक है? क्या सन्तान की आवश्यकता इतनी अनिवार्य है कि उसके बिना मनुष्य इतना दुखी रहे?

इस लेख को आरंभ करते हुए, हमने सबसे प्रथम ही वे कारण बता दिये हैं जिनके कारण सन्तान प्राप्ति की इच्छा होती है। इन सब कारणों पर गंभीरता पूर्वक विचार करने से यह प्रतीत नहीं होता कि इन सबकी पूर्ति केवल अपने निजी बालकों के द्वारा ही हो सकती है। ममता और मोह से प्रेरित होकर “अपनी” कहलाने वाली वस्तुओं में ही प्रसन्नता अनुभव करता है। इसलिए उन्हें जमा करता रहता है। घर, मोटर, जायदाद, जेवर, जवाहरात, स्त्री, पुत्र सब ‘अपने’ होने चाहिए। यह अपनापन, बहुत संचय की तृष्णा उपजाता है। अन्यथा उपयोगिता की दृष्टि से कितनी ही वस्तुएं निरर्थक होती हैं। फिर भी उनके संचय की तृष्णा बढ़ती ही जाती है। सन्तान के संबंध में भी ऐसी ही बात है। जिन इच्छाओं की पूर्ति के लिए सन्तान चाहते हैं उनमें से कितनी ही तो ऐसी हैं जो किन्हीं विरलों की ही पूर्ण होती हैं और कितनी ही ऐसी हैं जो दूसरों के बालकों से पूर्ण हो सकती हैं। कितनी ही इच्छाएं ऐसी हैं जो केवल मात्र भ्रम हैं। तीनों ही प्रकार की इच्छाओं पर सम्मिलित रूप से विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि वे इतनी महत्वपूर्ण नहीं हैं कि उनके बिना इतना दुखी होना चाहिए जितने कि आजकल के सन्तान हीन देखे जाते हैं।

संतान से जो इच्छा किन्हीं विरलों की ही पूर्ण होती हैं, वे गौरव की, कमाई खिलाने की, सेवा मिलने की हैं। आज के समय ऐसे सपूतों के दर्शन दुर्लभ हैं। बुड्ढ़े माँ बाप को एक भार समझा जाता है, उसकी मृत्यु की प्रतीक्षा की जाती है। जवान बेटा घर का मालिक होता है, बुड्ढ़े के हाथ में कोई शक्ति नहीं रहती, वह पराश्रित हो जाता हैं, अपनी इच्छा पूर्ति के लिए कमाऊ बेटे के मुँह की और ताकता है, उसकी टेड़ी भवों को देखकर सहम जाता है। चौपाल की चर्चा में तो बुड्ढ़े को ही बाप कहा जाता है, पर व्यवहारिक रूप में बेटा बाप बन जाता है बाप को बेटे की तरह रहना पड़ता है। जवानी के नशे में अक्सर आज के बेटे बाप का सम्मान तो नहीं ही करते हैं अपितु अवसर आने पर अपमान तक करने में नहीं चूकते। जो बढ़े-2 मनसूबे बाप बाँधा करता था, बेटे से जिस व्यवहार की आशाएं किया करता था, समय आने पर वह बालू का महल मिस्मार हुआ दिखाई देता है। किन्हीं विरलों की ही यह इच्छा पूर्ण होती हैं।

बालकों को तोतली बोली, मधुर मुसकान निष्कपट स्नेह, यह सब तो पड़ौसी के बालक से भी प्राप्त हो सकते हैं। सेवा उपकार और सद्गुणों से पराये अपने हो जाते हैं। जो प्रत्युपकार बेटे नहीं चुकाते, वह शिष्यों से, अनुयायियों से प्राप्त हो जाता है। आज गाँधी जी के असंख्यों अनुयायी उनके इशारे पर अपना तन−मन−धन न्यौछावर करने को तत्पर हैं, जवाहर लाल नेहरू के आदेश पर लाखों की संख्या में भारतवासी अपने सिर कटवाने को तैयार हैं। अन्धे विरजानंद की, वेद प्रचार की अभिलाषा पूर्ण करने के लिए उनके शिष्य दयानंद ने आजीवन ब्रह्मचारी रहकर जीवन अर्पण करना स्वीकार किया। गुरु नानक के शिष्यों ने अपने गुरु के आदेश पर क्या-क्या नहीं किया? जो बातें दूसरों के लड़कों ने कर दिखाई, वह अपने लड़के भी नहीं कर सकते। महात्मा गाँधी के सगे लड़के उनके अनुयायी नहीं है, उनके कहने में नहीं चलते पर दूसरों के लड़के उनकी आज्ञा को ईश्वर की आज्ञा की तरह मानते हैं। सेठ जमनालाल बजाज अपने को गाँधी जी को गोद धरा पुत्र कहा करते थे। बापू की आज्ञानुसार लाखों रुपयों की सम्पत्ति सेठजी खर्च करते रहते थे। इतनी कमाई उनके किसी सगे बेटे ने उनके आदेश पर खर्च नहीं की। तात्पर्य यह है कि संतान इच्छा के कितने ही कारण ऐसे हैं जिनकी पूर्ति दूसरों के बालकों में आत्मभाव रखने से हो सकती है।

कुछ कारण ऐसे हैं जिन्हें केवल भ्रम कहा जा सकता है, जैसे यह खयाल करना कि बेटे से हमारा नाम चलेगा। इन पंक्तियों के पाठकों से हम पूछते हैं कि आप कृपा कर अपने पूर्वजों के पीढ़ी दर पीढ़ी के हिसाब से नाम बताइए? तीन चार पाँच पीढ़ी से अधिक ऊपर की पीढ़ी के पूर्वजों के नाम शायद ही किसी को याद होंगे। जब अपने ही पोते, पर पोतों को नाम नहीं याद रहा तो दुनिया में तो संतान द्वारा चलेगा ही कैसे? यह दुनिया ब्लैक बोर्ड की तरह है जिस पर बार-बार अक्षर लिखे और मिटाये जाते हैं। खेत में बार-बार बीज बोये जाते हैं और बार-बार फसल काटी जाती है। हर बरसात में असंख्य बूंदें पानी की बरसती हैं और अपने रास्ते चली जाती हैं। क्या इनमें से किसी का नाम चलता है? कौन किसे याद रखता है? दुनिया की याददाश्त इतनी फालतू नहीं है कि वह गये आदमियों को याद रखे, उनके नाम चलाये। सृष्टि के आदि से अब तक असंख्यों मनुष्य हुए और मर गये। उनकी संतानें मौजूद हैं पर नाम याद रखने का किसी को अवकाश नहीं है। यह सब देखते हुए भी जो यह सोचते हैं कि संतान से मेरा नाम चलेगा वह भारी भ्रम है।

इसी प्रकार यह भी भ्रम है कि मरने के बाद भी संतान खाना-पीना परलोक में पहुँचाया करेगी। हर आत्मा स्वतंत्र है। उसे अपने कर्म का ही फल मिलता है। बेटे की रोटी से परलोक वासी आत्मा का पेट नहीं भरता। परमात्मा इतना कंगाल नहीं है कि उसके घर में रोटी का अकाल पड़ जाय और बेटे के पिंडोदक बिना बाप को भूखा प्यासा रहना पड़े। सद्गति अपने कर्मों से होती है। इसके लिए बेटे का आसरा तकना निरर्थक है।

मेरे पीछे मेरा उत्तराधिकारी कौन होगा? यह बात भी भला कोई चिन्ता की बात है। लेने के लिए तो हर कोई हाथ पसारे खड़ा है। जिसे भी दे जाइए वही खुशी से फूला न समायेगा। फिर जिनके लिए छोड़ा जायगा वे उसका सदुपयोग ही करेंगे इसका भी कोई निश्चय नहीं। हम देखते हैं कि कितने ही लड़के बाप के माल को लूट का माल समझ कर ऐसी बेदर्दी से फूंकते हैं कि देखने वालों को तरस आता है।

इन सब बातों पर विचार करने से पता चलता है कि बेटा हो ही, यह कोई ऐसी अनिवार्य आवश्यकता नहीं है, जिसके बिना किसी को चिन्तित होना पड़े। कई दृष्टियों से तो यह अच्छा भी है। बालकों की भरण पोषण की काफी जिम्मेदारी पड़ती है। उनके भोजन, वस्त्र, शिक्षा, शादी, व्यापार के लिए पिता को जितनी शक्ति खर्च करनी पड़ती है, जीवन का जितना बहुमूल्य भाग उत्सर्ग करना पड़ता है यदि उतना परमार्थ में खर्च किया जाता तो आत्म कल्याण की दिशा में एक भारी मोर्चा फतह हो सकता था। अपने बीमार पड़ते ही, भगवान का ध्यान आने की अपेक्षा यह चिन्ता सवार होती है कि मेरे बाद बच्चों की क्या दशा होगी। मरते वक्त चित्त इसी बेचैनी में जाता है फल स्वरूप उस अतृप्ति के कारण फिर जन्म लेना पड़ता है। बच्चों की आवश्यकता पूर्ति के लिए चिन्तित मनुष्य, न करने योग्य कार्य भी करने लगता है। जिन्हें संतान नहीं है, वे इस प्रकार के झंझटों से आसानी से बचे रह सकते है।

चीन और भारत यह दो देश ऐसे हैं जिनकी जनसंख्या बहुत बढ़ गई है। इस बढ़ी आबादी के लिए अन्न जुटाना मुश्किल पड़ रहा है। चारागाह जोत डाले गये है। पशुओं के चरने की जगहें छीनकर खेती की जा रही है पर आवश्यकता भर के लिए अन्न पूरा नहीं होता! फलस्वरूप भुखमरी और बीमारी से एक बड़ी जनसंख्या काल के गाल में चली जाती है। ऐसी स्थिति में और अधिक आबादी बढ़ाना, देश के लिए भार रूप है। सभी विचारक इस बात की बड़ी आवश्यकता अनुभव कर रहे हैं कि देश में अर्थ संकट उत्पन्न नहीं करना है तो जिस तेजी से जनसंख्या बढ़ रही है उसे रोका जाय। महात्मा गाँधी ब्रह्मचर्य द्वारा संतान निरोध की अपील करते हैं। दूसरे विद्वान इसके लिए कृत्रिम उपायों तक का सुझाव पेश करते हैं। जो, हो, इतना निश्चित है कि जनसंख्या की वृद्धि से विश्व की मानव जाति की कठिनाइयाँ बढ़ती हैं घटती नहीं।

इन बातों पर विचार करते हुए निस्संतानों को दुखी होने का कोई कारण नहीं। उन्हें जो स्थिति प्राप्त है उसमें उन्हें भगवत् कृपा की झाँकी करनी चाहिए क्योंकि इस स्थिति के कारण वे लाभ में ही हैं घाटे में नहीं। जो समय सन्तान के भरण-पोषण में लगता उसे सत्कर्मों में लगाना चाहिए जो धन सन्तान के लिए खर्च करना था या उनके लिए छोड़ जाना था उसे शुभ कर्मों के लिए, संसार में धर्म बढ़ाने के लिए लगाना चाहिए। शुभकर्म से सच्ची सद्गति प्राप्ति होती है। इसलिए शुभ कर्म को ही अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर जाना चाहिए। धर्म के लिए लगाई हुई पूँजी, ईश्वर की बैंक में जमा हो जाती है और जन्म जन्मान्तरों तक मिलती रहती है। इससे अधिक सम्पत्ति की सुरक्षा और क्या हो सकती है ?

इस लेख का तात्पर्य यह नहीं है कि सन्तान व्यर्थ है। जिन्हें ईश्वर ने दी है वे उसे ईश्वर प्रदत्त उत्तर-दायित्व समझ कर भली प्रकार निवाहें। सन्तान को प्रभु की अमानत समझकर, उसके पोषण और विकास के लिए ईमानदार माली की तरह उन पौधों की सेवा में लगे रहें। जिन्हें भगवान से सन्तान नहीं दी हैं वे आत्मोन्नति में अपनी शक्ति लगावें। सद्गुण बढ़ावे, धर्म सम्पत्ति बढ़ावें, इस संचय से उनका बुढ़ापा आसानी से आनंदपूर्वक कट जायेगा। संतान रहित होना भी संतानवान् होने की तरह ही सौभाग्य का चिन्ह है। हमें दोनों ही स्थितियों में प्रसन्न रहना चाहिए।


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