दश ऋत होकर नाम जपिए।

October 1946

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साधारण रीति से सभी राम नाम लेते रहते हैं पर उसका कोई विशेष फल नहीं होता। विधि पूर्वक राम नाम लेने से ही नाम महात्म्य का वास्तविक फल प्राप्त होता है। कहा भी है-

राम नाम सब कोई कहे, दश ऋत कहे न कोय।

एक बार दशऋत कहे, कोटि यज्ञ फल होय॥

दशऋत के साथ राम नाम लेने से कोटि यज्ञों का फल होना इस अभिवचन में माना गया है। ऋत कहते हैं दोषों को -दंशों इन्द्रियों की कुवासनाओं को त्याग कर, चित्त को सदाचारी और सात्विक बना कर जब परमात्मा का नाम लिया जाता है तो उससे सच्चा लाभ प्राप्त होता है।

नाम जप करने वालों के लिए शास्त्रकारों ने दश नामापराध बताये हैं और उनसे बचे रहने का कठोर आदेश किया है। जैसे औषधि सेवन के साथ-साथ परहेज से रहना भी आवश्यक है उसी प्रकार नाम जप करने वालों को दस नामापराधों से बचना भी आवश्यक है। परहेज बिगाड़ने से, कुपथ्य करने से, अच्छी औषधि का सेवन भी निष्फल हो जाता है, उसी प्रकार नामापराध करने से नाम जप भी निष्फल चला जाता है। दशऋतों से दश नामापराधों से बचकर राम नाम जपने से कोटि यज्ञों का फल प्राप्त होता है। वे दश ऋत यह हैं-

सान्निन्दासति नामवैभव कथा श्रीशेशयोर्भेदधी-

रश्रद्धा गुरु शास्त्र वेद वचने नाम्न्यर्थवादभ्रमः नामास्तीतिनिषिद्ध वृत्ति विहित्त त्यागौहि धर्मान्तरैः, साम्यं नाम जपे शिवस्य च हरेर्नामापराधा दश।

1. सन्निन्दा 2. असति नाम वैभव कथा 3. श्रीशेशयोर्भेदधीः 4. अश्रद्धा गुरु वचने 5. शास्त्र वचने 6. वेद वचने 7. नाम्न्यर्थवाद भ्रमः 8. नामास्तीति निषिद्ध वृत्ति 9. विहित त्याग 10. धर्मान्तरे साम्यम्। यह दश नामापराध या ऋत हैं इनको त्यागने से नाम जप का कोटि यज्ञ फल प्राप्त होता है। इन दसों का खुलासा नीचे किया जाता है।

1. सत् निन्दा- सत् पुरुषों की, सज्जनों की, सत्य की, सच्चे कार्यों की, सत् सिद्धाँतों की, किसी स्वार्थ से प्रेरित होकर निन्दा करना। सत्य पर चलने की, सत् सिद्धान्तों को अपनाने का किसी लोभ या भय से साहस न होता हो तो लोग अपनी कमजोरी छिपाने के लिए सत्य बातों का या सत् पुरुषों का ही किसी मिथ्या आधार पर विरोध करने लगते हैं, यह ‘सन्निन्दा’ है। शत्रु में भी सत्यता हो तो उस सत्यता की तो प्रशंसा ही करनी चाहिए।

2. असति नाम वैभव कथा- असत्य के आधार पर बढ़े हुए व्यक्तियों या सिद्धान्तों के नाम या वैभव की प्रशंसा करना। कितने ही झूठे, पाखण्डी, अत्याचारी व्यक्ति अपनी धूर्तता के आधार पर बड़े कहलाने लगते हैं। उनकी चमक दमक से आकर्षित होकर उनकी प्रशंसा करना या उनके वैभव का लुभावना वर्णन करना त्याज्य है। असत्य की सदा निन्दा ही की जानी चाहिए, झूठे आधार पर मिली हुई सफलताओं को इस प्रकार समझना या समझाना कि उसका अनुकरण करने का लोभ पैदा हो, नामापराध है।

3. श्रीशेशयोर्भेदधीः- विष्णु महादेव आदि देवताओं में भेद बुद्धि रखना उन्हें अलग-अलग मानना। एक ही सर्वव्यापक सत्ता की विभिन्न शक्तियों के नाम ही देवता कहलाते हैं। वस्तुतः परमात्मा ही एक देव है। अनेक देवों के आस्तित्व के भ्रम में पड़ना-नाम जप करने वाले के लिये उचित नहीं।

4. अश्रद्धा गुरु वचने- सद्गुरु, धर्मविद् तत्वदर्शी, निस्पृह, आप्तपुरुषों के सद्वचनों में अश्रद्धा रखना। विरोध न करते हुए भी उदासीन रहना अश्रद्धा कहलाती है। सद्गुरुओं के लोक हितकारी सद्वचनों में श्रद्धा रखनी चाहिये।

5. अश्रद्धा शास्त्र वचने- शास्त्र के वचनों में अश्रद्धा रखना, यों तो कितनी ही पुस्तकें साम्प्रदायिक परस्पर विरोधी और असंगत बातों से भरी रहने पर भी शास्त्र कहलाती हैं पर वास्तविक शास्त्र वह है जो सत्यता, लोकहित, कर्त्तव्य परायणता और सदाचार का समर्थन करता हो। इस कसौटी पर जो ज्ञान खरे सोने के समान ठीक उतरता हो वह शास्त्र है। ऐसे शास्त्रों के वचनों पर अश्रद्धा नहीं करनी चाहिए।

6. अश्रद्धा वेद वचने- अर्थात् वेद वाक्य में अश्रद्धा रखना। वेद-ज्ञान को कहते हैं। ज्ञानपूर्ण, विवेकपूर्ण, सद्बुद्धि सम्मत वचनों में अश्रद्धा नहीं करनी चाहिये। वेद, सत्य ज्ञान के आधार होने के कारण श्रद्धा करने योग्य हैं।

7. नाम्न्यर्थ वाद भ्रमः- नाम के अर्थवाद में भ्रम करना। ईश्वर के अनेक नामों के अर्थ में जो भिन्नता है उसके कारण भ्रम में नहीं पड़ना चाहिये। गोपाल, मुरलीधर, यशोदा नन्दन, राम, रघुनाथ, दीनबन्धु, अल्लाह, गौड़ आदि नामों के शब्दार्थ पृथक-पृथक हैं। इन अर्थों से तत्व के अलग-अलग होने का भ्रम होता है, यह ठीक नहीं। सब नाम उस एक परमात्मा के हैं। इसलिए परमात्मा के संबंध में किसी पृथकता के भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए।

8. नामास्तीति निषिद्ध वृत्ति- नाम तो है ही फिर अन्य बातों की क्या जरूरत ऐसी निषिद्ध वृत्ति। ईश्वर का नाम उच्चारण करने मात्र से सब पाप कट जावेंगे, इसलिए पाप करने में कुछ हर्ज नहीं ऐसा कितने ही लोग सोचते हैं। दिन रात कुविचारों में और कुकर्मों में लगे रहते हैं, उनके फल से बचने का सहज नुस्खा ढूँढ़ते हैं कि दो चार रामनाम जबान में कह दिया बस बेड़ा हो गया। सारे पाप नष्ट हो गये। यह भारी अज्ञान है। परमात्मा निष्पक्ष, सच्चा न्यायाधीश है। वह खुशामद करने वाले के न तो पाप माफ करता है और न बिना खुशामद करने वाले के पुण्यों को रद्द करता है। कर्मों का यथायोग्य फल देना उसका सुदृढ़ नियम है। इसलिए आत्म बल बुद्धि के लिये नाम स्मरण करते हुए भी यही आशा करनी चाहिए कि परमात्मा हमारे भले बुरे कर्मों का यथायोग्य फल अवश्य देगा। जो पापनाश की आशा लगाये बैठे रहते हैं और कुमार्ग को छोड़कर सन्मार्ग पर चलने का प्रयत्न नहीं करते वे नामापराध करते हैं।

9. विहित त्याग- विहित कर्मों का त्याग, उत्तरदायित्व का छोड़ना, कर्त्तव्य धर्म से मुँह मोड़ना नामापराध है। कितने ही मनुष्य ‘संसार मिथ्या है, दुनिया झूठी है।’ आदि महावाक्य का सच्चा रहस्यमय अर्थ न समझकर अपने कर्त्तव्य धर्म एवं उत्तरदायित्व को छोड़कर घर से भाग जाते हैं, इधर-उधर आवारागर्दी में दुर्व्यसनियों के कुसंग में मारे फिरते हैं। यह अनुचित है। ईश्वर प्रदत्त उत्तरदायित्वों और कर्त्तव्य धर्मों को पूरी सावधानी और ईमानदारी से पूरा करते हुए भगवान का नाम स्मरण करना चाहिए।

10. धर्मान्तरैः सम्यक्- धर्म से इतर, धर्म विरुद्ध बातों को भी धर्म की समता में रखना। अनेक सामाजिक कुरीतियाँ ऐसी हैं जो धर्म विरुद्ध होते हुए भी धर्म में स्थान पाती हैं जैसे पशु बलि एवं स्त्री और शूद्रों के साथ होने वाले असमानता तथा अन्याय के व्यवहार धर्म के नाम पर प्रचलित हैं पर वास्तव में वे अधर्म है। ऐसे अधर्मों को धर्म में जोड़ना, धर्म की समता में रखना, नामापराध है। कर्त्तव्य कर्म ही धर्म कहलाते हैं। अकर्तव्यों को रूढ़िवाद के कारण धर्म साम्य नहीं बनाना चाहिए।

इन दशऋतों से शुद्ध होकर इन्हें त्याग कर, दसों इन्द्रियों को संयम में रखकर, सत्य और धर्म से जीवन को ओत-प्रोत बनाते हुए जो लोग नाम जप करते हैं, भगवान का नामोच्चार करते हैं उन्हीं की आत्मा पवित्र होती है और वे ही कोटि यज्ञ फल के भागी होते हैं। वैसे तो तोते भी राम-राम रटते रहते हैं इससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है।

पाठकों को दशऋत होकर नाम जप करना चाहिए। और याद रखना चाहिए कि-

राम नाम सब कोई कहे, दशऋत कहे न कोय, एक बार दशऋत कहे, कोटि यज्ञ फल होय।


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