दुर्गा-पूजा (नवरात्रि) का दिन हिन्दुओं का बहुत बड़ा पर्व माना जाता है। विशेष करके बंगाल, बिहार, आसाम, उड़ीसा इत्यादि कई प्राँतों में दुर्गा-पूजा का त्यौहार बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है। देवी भक्तगण अपने इस त्यौहार में सब प्रकार के आनन्द प्राप्त करने के लिए खर्च करने की कमी नहीं रखते हैं। अपना मकान सजाते, मण्डप बनाकर श्रृंगार करते जिसमें दुर्गा माता की सुशोभित भव्य प्रतिमा की प्रतिष्ठा करके नाच रंग करवाते तथा मनाते हैं, अर्थात् मौज मजा में वृद्धि करने की कोशिश करने में अपनी शक्ति व्यय करते हैं। इतना आनन्द उत्सव होते हुए भी दुःख का विषय तो यह है कि इन दिनों में देवी-देवताओं के पवित्र मंडपों और मन्दिरों में बकरे, भेड़, भैंसा (देहातों में) सुअर, मुर्गी वगैरह लाचार गरीब निःसहाय मूक असंख्य प्राणियों के बलिदान निमित्त क्रूर की रीति से वध किया जाता है, जिससे उन पवित्र स्थानों में मल, मूत्र रक्त इत्यादि गंदी चीजों की धारा बहती है।
बलिदान एवं माँसाहार से जीव हत्या होती है धर्म के नाम पर अधर्म होता है। शारीरिक हानि अर्थात् रोगों की वृद्धि आर्थिक बर्बादी और देश की अवनति होती है। निष्पक्ष दृष्टि से यदि देखा जाए तो यह प्रथा सर्वथा अनुचित है। कोई भी सहृदय व्यक्ति इसके औचित्य को स्वीकार नहीं कर सकता। पूजा तीन तरह की है सात्विकी, राजसी और तापसी। सात्विकी पूजा फल, फूल, मेवा, मिष्ठान, घी, शक्कर, दूध, केला, गुड़, नारियल, खीर, तिल, दही वगैरह से की जाती है और वही सर्वोत्तम है। फिर हम क्यों तामसी पूजा करें जिसके करने पर हमें प्रायश्चित करना पड़े। पहले कीचड़ में पैर लिपटा कर धोने की अपेक्षा कीचड़ में न घुसना ही अच्छा है।
भगवती दुर्गा को जब हम जगत-जननी और जगत रक्षिका मानते हैं और यहाँ भी स्वीकार करते हैं कि छोटे प्राणी से लेकर बड़े तक उसकी प्रिय संतान हैं तो फिर क्या वे मूक पशु उसकी सन्तान नहीं हैं जो हम उनका वध उनकी माता के समक्ष करें? कोई भी माता अपने खोटे से खोटे से पुत्र को भी दुखी देखना नहीं चाहती। वह नहीं चाहती कि किसी पुत्र का रक्त पात हो। देखा जाता है कि जिस माता के चार पुत्र होते हैं उन सबको वह एक दृष्टि से देखती है, फिर कोई कारण नहीं कि वह अपनी तृप्ति के लिये मूक पशुओं का रक्त माँगे। संसार में अपराधी को दण्ड दिया जाता है। पशु मूक निरपराध है। उन्होंने कभी झूठ नहीं बोला, चोरी नहीं की, किसी किस्म का कोई- अत्याचार नहीं किया। फिर क्या कारण है कि हम उस मूक निरपराध प्राणी की गरदन पर छुरी चलायें और वह भी धर्म के नाम पर। जगत जननी के सामने पशु वध करना उस पवित्र मन्दिर को मल, मूत्र एवं रक्त से रंग कर अपवित्र करना हिन्दू धर्म के अहिंसा सिद्धान्त को और दुर्गा माता के नाम को कलंकित करना है। आश्चर्य तो यह है कि बलि करने वाले उसमें होने वाली हिंसा को भी ‘बौद्धिक हिंसा, हिंसा न भवति’ ऐसा कह कर हिंसा नहीं मानते। यह कितनी दुर्बल उक्ति है। यह मनगढ़न्त केवल अपनी स्वार्थ साधना के लिए ही है। जो हिंसा है वह हिंसा ही है। आप कहेंगे कि वध करने से उस पशु को कोई दुःख नहीं होता। अगर ऐसा है तो वह क्यों रोता चिल्लाता है, क्यों तड़फड़ाता है और इससे बचने की कोशिश करता है? जैसे प्राण हमारे हैं वैसे उसके भी है अगर हमको जरा-सा काँटा लगने पर दुःख होता है तो क्या उसे छुरी से काटने पर भी दुःख नहीं होता? अपितु अवश्य होता है।
कुछ मनुष्य कहते हैं कि बलि से प्राणी मर कर स्वर्ग को जाता है। यदि यह सत्य है तो अपनी ही बलि क्यों न की जाय। इससे अनायास ही स्वर्ग मिल जायेगा और फिर नर-बलि और सिंह आदि की बलि न देकर क्यों न मूक पशुओं की ही बलि दी जाती है। और पशु तो आपसे यह भी नहीं कहता कि भाई मुझे स्वर्ग पहुँचा दो, मैं यहाँ पर दुःखी हूँ। किन्तु वह तो केवल घास वगैरह खाकर ही अपने को सुखी मानता है।
स्वयं सहृदय व्यक्ति बलि के लिये लाए गये पशु की दयनीय अवस्था और दुःख का अनुमान कर सकते हैं। मन्दिर में पशु की हृदय विदारक आह और रक्तपात के कारण बहुत सी दयालु दुर्गा के भक्त पुरुषों को मन्दिर में जाने का साहस नहीं होता। इसलिए प्रत्येक हिन्दू का परम कर्त्तव्य है कि मन्दिर को इतना पवित्र, शाँत सुखद बनायें जिससे प्राणिमात्र उसके दर्शन कर अपने को धार्मिक और सुखी बना सके।
पूज्यपाद महात्मा गाँधी कलकत्ते की काली माता के मन्दिर में घातकी पशु बलि प्रथा को देख कर कम्पित हो गये और आपने कहा था कि ‘काली माता के मन्दिर का पशु-बलिदान निर्मित भयभीत बकरों को भयभीत रीति से बंध कर माँस खाते हैं यह बहुत शोचनीय है’ पशु बलि अपवित्र प्रथा एक कलंक है। इससे हिन्दू धर्म को शीघ्र ही मुक्त किया जाना चाहिए।