कबीर ने प्रेमियों की दशा का वर्णन करते हुए कहा हैः-
प्रेम व्यथा तन में बसै, सब तन जर्जर होय।
राम वियोगी ना जिये, जिये तो बौरा होय॥
जिन्हें प्रेम की लगन है, जिनके मन में राम की लगन है, परमात्मा के साकार रूप संसार की सेवा की लगन है वे सच्चे-प्रेमी अपने निजी स्वार्थों निजी आवश्यकताओं की ओर ध्यान न देकर जीवनोद्देश्य में तल्लीन हो जाते हैं। इस तल्लीनता के कारण साँसारिक वैभवों और आरामों से वंचित होकर उन्हें जर्जरता सहन करनी पड़ती है। उन्हें मृत्यु तुल्य कष्ट सहने पड़ते हैं, मौत के मुँह में प्रवेश करना पड़ता है। संकुचित दृष्टि रखने वाले विषय भोगों में डूबी रहने वाली दुनिया की दृष्टि में वह बौरा-बावला बन जाता है। संसार के प्रायः सभी महापुरुषों को कबीर की बताई हुई इस कसौटी पर चढ़कर अपने खरे-खोटे की परीक्षा देनी पड़ी है।
राजा महेन्द्र प्रताप सच्चे अर्थों में प्रेम पुजारी हैं। जापान में युद्ध अपराधी के रूप में वे पकड़े गये थे। तब ऐसा प्रतीत होता था कि उन्हें स्वेच्छाचारी तलवार की धार पर प्राणों की आहुति देनी पड़ेगी, पर प्रभु को धन्यवाद वह घड़ी टल गई और प्रेम पुजारी राजा महेन्द्र प्रताप आज हम लोगों के बीच मौजूद हैं। समस्त देश में उनके आगमन से हार्दिक प्रसन्नता की लहर दौड़ गई, मथुरा वृन्दावन की जनता को तो उसी प्रकार हर्ष हुआ जैसा कि राम के वनवास से लौटने पर अयोध्या के वासियों को हुआ था।
राजा साहब की जन्मभूमि मथुरा से आठ कोस दूर मुरसान है। मुरसान नरेश राजा घनश्याम सिंह के घर आप 1 दिसम्बर सन 1886 को पैदा हुए। ढाई वर्ष की आयु में हाथरस के राजा हरिनारायण सिंह ने आपको गोद ले लिया। राजा हरिनारायण सिंह प्रायः वृन्दावन के अपने महल में ही समय व्यतीत करते थे, राजा साहब का रहना भी वहीं हुआ। जींद के राजा की बहिन से आपका विवाह सोलह वर्ष की आयु में हो गया। राजा हरिनारायण सिंह उन्हें सात वर्ष का ही छोड़कर स्वर्ग सिधार गये थे। अतएव रियासत सरकारी प्रबंध में चली गई थी। बालिग होने पर रियासत का प्रबंध आपके हाथ में आ गया। 18 वर्ष की आयु में रानी साहिबा सहित आपने यूरोप के प्रायः सभी देशों का भ्रमण किया।
स्वतंत्र देशों का वातावरण स्वतंत्र होता है। जो देश आजादी की साँस लेते हैं उनमें जीवन होता है। राजनैतिक गुलामी के बन्धनों में जो लोग जकड़े रहते हैं उन्हें मानसिक, आर्थिक, सामाजिक, दैहिक, दैविक, भौतिक सभी प्रकार के बंधनों में बंधा रहने के लिए विवश होना पड़ता है। राजनैतिक स्वाधीनता के बिना किसी देश की जनता सुखी नहीं रह सकती इस सत्य का साक्षात्कार उन्हें योरोप की यात्रा में हुआ। भारत की जनता और योरोप की जनता की तुलना करने पर उनके हृदय को भारी आघात पहुँचा। यों सैर सपाटे के लिए राजा रईस विलायत जाते रहते हैं और वहाँ ऐश करते गुलछर्रे उड़ाते और धन को पानी की तरह बहाते हैं पर राजा महेन्द्र प्रताप दूसरी धातु के बने हुए थे, विदेशों की तुलना में भारत की दयनीय दुर्दशा देखकर उनका हृदय रो पड़ा।
यूरोप की यात्रा से लौटकर राजा साहब ने नरनारायण के जनता जनार्दन के चरणों पर अपना आत्म समर्पण करने का संकल्प किया। सच्चा भक्त, सच्चा प्रेमी अपने आराध्यदेव के ऊपर सर्वस्वा निछावर कर देता है, राजा साहब ने भक्तों की इस सनातन परम्परा को शिरोधार्य किया और अपना निजी जो कुछ था उसे निछावर कर दिया। अपने परिवार के खर्च के लिए थोड़ी सी जमीन बचाकर शेष सारा राजपाट, महल, तिवारे जनता के लाभ के लिए अर्पण कर दिए। वृन्दावन में प्रेम महाविद्यालय की स्थापना पुत्र उत्पन्न की खुशी जैसा समारोह मनाते हुए की। महामना मालवीय जी ने इस अद्भुत पुत्र का नामकरण संस्कार करते हुए प्रेम महाविद्यालय नाम रख दिया। इस विद्यालय के खर्च के लिए राजा साहब ने अपनी जमीन जायदाद दे दी। यह विद्यालय विगत 38 वर्षों से कला कौशल की शिक्षा देकर उन्हें आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी बनाता है और उनके अन्दर ऐसे भाव भरता है जिससे वे देश सेवा में महत्वपूर्ण भाग लें। इस विद्यालय के विद्यार्थियों और कार्यकर्ताओं ने स्वाधीनता संग्राम को आगे बढ़ाने के लिए जो कार्य किया है वह स्वर्णाक्षरों में लिखा जाने योग्य है।
राजा साहब बहुत काल तक विद्यालय का संचालन स्वयं अपने हाथों करते रहे और ग्राम्य संगठन, अछूतोद्धार, राष्ट्रीय शिक्षा, स्वदेशी प्रचार, साम्प्रदायिक एकता आदि रचनात्मक कार्यों में बड़े उत्साह से जुटे रहे। अपने प्रेमी हृदय की पुकार प्रेम भरे शब्दों में सर्व साधारण तक पहुँचाने के लिए ‘प्रेम’ नामक पाक्षिक पत्र निकाला। जिसमें सच्चे प्रेम की, वास्तविक ईश्वर भक्ति की लोक सेवा की आध्यात्मिक चर्चा रहती थी। भक्ति के आडम्बरी और पाखण्डी रूप से बचते हुए सच्ची प्रेम भावना का प्रचार करने के लिए उन्होंने एक ‘प्रेम क्लब’ भी कायम किया जिसके द्वारा महत्वपूर्ण कार्य हुए। देहरादून में ‘निर्बल सेवक समाज’ स्थापित की और ‘निर्बल सेवक’ पत्र निकाला।
उपयोगी ज्ञान एकत्रित करने के लिए सन 1912 में आप फिर योरोप की यात्रा करने गये और एक वर्ष विभिन्न देशों का भ्रमण करके वापिस लौट आये।
सन 1914 का महायुद्ध शुरू होने पर देखा कि यह उचित अवसर है। जर्मनी की सहायता से भारत को स्वतंत्र कराना चाहिए। इस निश्चय को कार्यान्वित करने के लिए वे बिना पासपोर्ट के ही जहाज द्वारा विलायत जाने में अपनी चतुरता के कारण सफल हो गए। जर्मन सम्राट विलियम कैसर से वे मिले, कैसर ने उनके सहयोग का बड़ा आदर किया और भारत को स्वाधीन कराने में सहायता देने का वचन दिया। युद्ध के दौरान में राजा साहब बराबर अपनी उद्देश्य पूर्ति के लिए प्रयत्न करते रहे पर घटनाचक्र अनुकूल न पड़ा। लड़ाई में जर्मनी हार गया। राजा साहब को भारत से निर्वासित होना पड़ा।
सन् 1918 से लेकर दूसरा महायुद्ध शुरू होने तक राजा साहब संसार भर में भारत की स्वाधीनता के लिए प्रयत्न करते हुए फिरते रहे। पाँच बार उन्होंने सारी पृथ्वी की परिक्रमा की। रूस में लेनिन तथा ट्राटस्की से भारत की समस्याओं के बारे में गम्भीर मंत्रणाएं करते रहे। अफगानिस्तान के बादशाह अमातुल्ला आपके घने मित्र थे, उन्होंने राजा जी को आर्थिक सहायता तथा राजकीय सम्मान देने की कमी न की। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें जिंदा या मुर्दा पकड़ने के लिए समय-समय पर कोशिशें की पर वह राजा जी की चतुराई के आगे सफल न हो सके।
दूसरा महायुद्ध छिड़ने पर आपने आर्यन आर्मी की स्थापना की, आजाद हिन्द फौज के संस्थापकों में आप हैं पर जापान सरकार से मतभेद होने के कारण आपको जापान में नजरबंद की तरह रहना पड़ा। टोकियो के पास गाँव में वे आश्रम बनाकर रहते थे। उस आश्रम में मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा आदि थे और सभी धर्मों की प्रार्थना होती थी, वहीं से आप वर्ल्ड फेडेरेशन नामक एक अखबार निकालते थे। जापान की हार होने पर वे युद्ध अपराधी के रूप में पकड़े गये और काँग्रेस और महात्मा गाँधी के प्रयत्नों के कारण वे छूटकर भारत आ गये और आज वे हमारे बीच में मौजूद हैं।
राजा महेन्द्र प्रताप अब 60 वर्ष के हो गये हैं, बाल पक गये हैं और शरीर ढीला पड़ गया है। पर अब भी उनमें नौजवानों का सा जोश और साहस मौजूद है। वे अब कांग्रेस के आदेशानुसार राष्ट्र सेवा में शेष जीवन को लगावेंगे। साम्प्रदायिक एकता आपका प्रिय विषय है। प्रेम से आपका अन्तःकरण लबालब भरा रहता है। ईश्वर की पवित्र प्रतिमा का भाव रखकर हर एक को वे प्रेम करते हैं। सब में आपसी प्रेम भाव बढ़े यही आपकी अभिलाषा रहती है। बन्दी शिविर में से छूट कर जब से आप भारत आये हैं तब से बिना एक दिन भी विश्राम किये देश भर में जगह-जगह जाकर अपने विचारों का संदेश पहुँचा रहे हैं।
राजा जनक की तरह राजा महेन्द्र प्रताप आदर्श कर्म योगी के रूप में हमारे सामने उपस्थित हैं। वे गेरुए कपड़े नहीं पहनते तो भी सच्चे साधु हैं वे साम्प्रदायिक कर्मकाण्डों से उदासीन रहते हैं वे सच्चे ईश्वर भक्त हैं। वे जबान से नाम जप करने और पेट में गाँठ रखने की अपेक्षा जीवन को सर्वतो भावेन जनता जनार्दन के ऊपर निछावर कर देने को सच्ची भक्ति समझते हैं। ऐसे आदर्श भगवद् भक्तों के कारण ही यह भारत वसुन्धरा अपने को धन्य मानती है।