कर्म की स्वतंत्रता

October 1946

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(पं.- दीनानाथ भार्गव ‘दिनेश’)

समस्त योनियों में से केवल मनुष्य योनि ही ऐसी योनि है जिसमें मनुष्य कर्म करने के लिये पूर्ण स्वतंत्र है। ईश्वर की ओर से उसे मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि इसलिए प्रदान किये गये हैं कि वह प्रत्येक कर्म को मानवता की कसौटी पर कसे और बुद्धि से तोल कर, मन से मनन करके, इन्द्रियों द्वारा पूरा करे। मनुष्य का यह अधिकार जन्म सिद्ध है। यदि वह अपने इस अधिकार का सदुपयोग नहीं करता तो वह केवल अपना कुछ खोता ही नहीं है, बल्कि ईश्वरीय आज्ञा के अवहेलना करने के कारण पाप का भागी बनता है।

कर्म करने में मनुष्य का अधिकार है, परन्तु इसके विपरीत कर्म को छोड़ देने में वह स्वतंत्र नहीं है। किसी प्रकार भी कोई प्राणी कर्म किए बिना नहीं रह सकता। यह हो सकता है कि जो कर्म उसे नहीं करना चाहिए, उसका वह आचरण करने लगे। ऐसी अवस्था में स्वभाव उसे जबरदस्ती अपनी ओर खींचेगा और उसे लाचार होकर यंत्र की भाँति कर्म करना पड़ेगा।

लोग कहा करते हैं कि मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र नहीं है। कोई उसके हृदय देश में बैठकर कर्म कराता है और अच्छा या बुरा जैसा भी मनुष्य से कराया जाता है, वह करता है यह केवल मिथ्या ज्ञान है, परन्तु उन लोगों के लिये सत्य है, जो अपना अधिकार खो देते हैं, गीता में जब भगवान अर्जुन को उपदेश दे चुके तब उन्होंने अन्त में कहा-

“यदि तू अज्ञान और मोह में पड़कर कर्म करने के अधिकार को कुचलेगा तो याद रख कि स्वभाव से उत्पन्न कर्म के आधीन होकर तुझे सब कुछ करना पड़ेगा। ईश्वर सब प्राणियों के हृदय देश में बसा हुआ है और जो मनुष्य अपने स्वभाव तथा अधिकार के विपरीत कर्म करते हैं उनको यह डण्डा लगाकर इस प्रकार घुमा देता है, जैसे कुम्हार चाक पर चढ़ाकर एक मिट्टी के बरतन को घुमाता है।”


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