ब्रह्मचर्य का तत्व ज्ञान

October 1946

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(महात्मा गाँधी)

हम लोगों ने ब्रह्मचर्य की व्याख्या को केवल स्थूल रूप दे दिया और जो लोग प्रतिक्षण क्रोध करते रहते हैं, उन्हें दोषी मानना छोड़ दिया है। जिस प्रकार स्थूल ब्रह्मचर्य का पालन-शरीर-सुख के लिये आवश्यक है, उसी प्रकार आध्यात्मिक ब्रह्मचर्य की भी आवश्यकता है।

ब्रह्मचर्य का अर्थ है मन, वचन और काया से समस्त इन्द्रियों का संयम। जब तक अपने विचारों पर इतना कब्जा न हो जाय कि अपनी इच्छा के बिना एक भी विचार न आने पावे, तब तक वह सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य नहीं। जितने भी विचार हैं वे सब एक तरह के विकार हैं। उनको वश में करने के मानी हैं मन को वश में करना और मन को वश में करना वायु को वश में करने से भी कठिन है। इतना होते हुए भी यदि आत्मा कोई चीज है तो फिर यह भी साध्य होकर रहेगा।

ब्रह्मचर्य हीन जीवन मुझे शुष्क और पशुवत् मालूम होता है। पशु स्वभावतः निरंकुश है, परन्तु मनुष्यत्व इसी बात में है कि मनुष्य स्वेच्छा से अपने को अंकुश में रखे। ब्रह्मचर्य की जो स्तुति धर्मग्रंथों में की गई है उसमें पहले मुझे अत्युक्ति मालूम होती थी। परन्तु अब दिन-दिन यह अधिकाधिक स्पष्ट होता जाता है कि वह बहुत ही उचित और अनुभव सिद्ध है।

‘विषय मात्र का निरोध ही ब्रह्मचर्य है।’

सत्याग्रह-सेनापति के शब्द में ताकत होनी चाहिये-वह ताकत नहीं जो असीमित अस्त्र-शस्त्रों से प्राप्त होती है, बल्कि वह जो जीवन की शुद्धता, दृढ़ जागरुकता और सतत आचरण से प्राप्त होती है। यह ब्रह्मचर्य का पालन किये बगैर असम्भव है। ब्रह्मचर्य का अर्थ यहाँ खाली दैहिक आत्म संयम का निग्रह ही नहीं है। इसका तो इससे कहीं अधिक अर्थ है। इसका मतलब है सभी इन्द्रियों पर पूर्ण नियमन। इस प्रकार अशुद्ध विचार भी ब्रह्मचर्य का भंग है और यही हाल क्रोध का है।

सारी शक्ति उस वीर्य शक्ति की रक्षा और ऊर्ध्वगति से प्राप्त होती है जिससे कि जीवन का निर्माण होता है। अगर इस वीर्य-शक्ति का, नष्ट होने देने के बजाय संचय किया जाय तो यह सर्वोत्तम सृजन शक्ति के रूप में परिणत हो जाती है। बुरे या अस्त-व्यस्त, अव्यवस्थित, अवाँछनीय विचारों से भी इस शक्ति का बराबर और अज्ञात रूप से क्षय होता रहता है और चूँकि विचार ही सारी वाणी और क्रियाओं का मूल है इसलिये वे भी इसी का अनुकरण करती हैं। इसीलिये पूर्णतः नियंत्रित विचार खुद ही सर्वोच्च प्रकार की शक्ति है और स्वतः क्रियाशील बन सकता है। मूक रूप में की जाने वाली हार्दिक प्रार्थना का मुझे तो यही अर्थ मालूम पड़ता है। अगर मनुष्य ईश्वर की मूर्ति का उपासक है तो उसे अपने मर्यादित क्षेत्र के अन्दर किसी बात की इच्छा भर करने की देर है, जैसा वह चाहता है वैसा ही बन जाता है। जिस तरह चूने वाले नल में भाप रखने से कोई शक्ति पैदा नहीं होती, उसी प्रकार जो अपनी शक्ति का किसी भी रूप से क्षय होने देता है उसमें इस शक्ति का होना असम्भव है।

“ब्रह्मचारी रहने का यह अर्थ नहीं कि मैं किसी स्त्री को स्पर्श न करूं, अपनी बहिन का स्पर्श न करूं। ब्रह्मचारी होने का अर्थ यह है कि स्त्री का स्पर्श करने से किसी प्रकार का विकार न उत्पन्न हो जिस तरह कि कागज को स्पर्श करने से नहीं होता। मेरी बहिन बीमार हो और उसकी सेवा करते हुए उसका स्पर्श करते हुए ब्रह्मचर्य के कारण मुझे हिचकना पड़े तो वह ब्रह्मचर्य तीन कौड़ी का है। जिस निर्विकार दशा का अनुभव हम मृत शरीर को स्पर्श करके कर सकते हैं उसी का अनुभव जब हम किसी सुन्दरी युवती का स्पर्श करके कर सकें तभी हम ब्रह्मचारी हैं।

मुझे यह बात कहनी होगी कि ब्रह्मचर्य व्रत का तब तक पालन नहीं हो सकता जब तक कि ईश्वर में जो कि जीता जागता सत्य है, अटूट विश्वास न हो।


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