आत्म-विश्वास

October 1946

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(रचयिता- श्री रजेश)

कैसे निज पथ से विचलित कर सकता है संसार मुझे?

जब पीड़ित माताएं निज आँखों से नीर बहाती हों।

अबलाएं रोटी के बदले में सम्मान लुटाती हों॥

जब कि भूख से होनहार बच्चों की जानें जाती हों।

जब लाखों परिवारों की आवाजें मुझे बुलाती हों॥

तब कैसे बन्दी रख सकता है कोई परिवार मुझे?

कैसे निज पथ से विचलित कर सकता है संसार मुझे?

मैंने सुखी कहाने वालों को भी कर मलते देखा।

पथ के दावेदारों को भी नई राह चलते देखा॥

अवसर पर दृढ़ चट्टानों को भी पल में गलते देखा।

मैंने कोमल कलियों को अंगारों पर जलते देखा॥

कैसे आकर्षित कर लेगा फिर क्षण-भंगुर प्यार मुझे?

कैसे निज पथ से विचलित कर सकता है संसार मुझे?

जिसमें जलकर खण्डहरों पर महलों का निर्माण हुआ।

जीवन हीन जगत में फिर से संचारित नव-प्राण हुआ॥

जिसमें जलकर दानवता से मानवता का त्राण हुआ।

जिसमें जलकर सृष्टि हुई, संघर्ष हुआ, कल्याण हुआ॥

उस चिनगारी से बचकर चलने का क्या अधिकार मुझे?

कैसे निज पथ से विचलित कर सकता है संसार मुझे?

दुनिया मुझको ठुकरा देगी तो एकाकी रह लूँगा।

अपने उर की व्यथा गगन से, दीवारों से कह लूँगा॥

सब अन्यायों, अपमानों को हंसते-हंसते सह लूँगा।

मृत्यु अचानक आ जाएगी तो भी तनिक न दहलूँगा॥

बाधाएं सब कुछ सहने को कर लेंगी तैयार मुझे।

कैसे निज पथ से विचलित कर सकता है संसार मुझे?

*समाप्त*


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