तुम महान हो।

May 1945

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(ले.- डॉ. रामचरण महेन्द्र, एम. ए. डी. लिट् डी. डी.)

तुम्हारा वास्तविक स्वरूप

तुम्हारे हिस्से में स्वर्ग की अगणित विभूतियाँ आई हैं न कि नर्क की कुत्सित यातनाएँ और तुमको वही लेना चाहिये जो तुम्हारे हिस्से में आया है। स्वर्ग तुम्हारी ही सम्पत्ति है। शक्ति तुम्हारा जन्म-सिद्ध अधिकार है। तुमको केवल स्वर्ग में प्रवेश करना है तथा शक्ति का अर्जन कर लेना है। स्वर्ग में सुख ही सुख है। वहाँ आत्मा को न तो किसी बात की चिन्ता रहती है न किसी प्रकार की इच्छा। वहाँ तो अखण्ड शाँति, अखण्ड पवित्रता तथा अखण्ड तृप्ति है। तूफान मचाने वाले विकारों की आसुरी लीला, या भय के भूतों का लेश भी वहाँ नहीं है। वह स्वर्ग इस संसार में ही है। वह तुम्हारे भीतर है। उसे खोजने का प्रयत्न करो, अवश्य तुम्हें प्राप्त हो जायगा।

संसार में फैले हुए पाप, निकृष्टता, भय शोक तुम्हारे हिस्से में नहीं आये हैं। मोह, शंका, क्षोभ की तरंगें तुम्हारे मानस-सरोवर में नहीं उठ सकती क्योंकि विक्षोभ उत्पन्न करने वाली आसुरी प्रवृत्तियों से तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं। संशय तथा शंकाओं से दबकर तुम्हें इधर उधर मारा-मारा नहीं फिरना है। क्षण-क्षण उद्विग्न तथा उत्तेजित नहीं होना है, शान्त तथा पवित्र आत्मा में क्लेश, भय, दुःख, शंका का स्पर्श कैसे हो सकता है? यदि तुम इन कुत्सित वस्तुओं को अपनाओगे तो अवश्य ही ये तुम्हारे गले पड़ेंगे और तुम्हारे जीवन की तुम्हारी महत्वाकाँक्षा की, तुम्हारे भावी जीवन की इतिश्री कर देंगे।

तुम्हारा मनुष्य होना ही इस बात का प्रमाण है कि तुम्हारी शक्ति अपरिमित है। संसार की ओर आँख उठाकर देखो। प्रकृति पर मनुष्य का आधिपत्य है, बड़े से बड़े पशु उसके इंगित पर नृत्य करते हैं। ऊँची से ऊँची वस्तु पर उसका पूर्ण आधिपत्य है। उससे शक्तिशाली प्राणी पृथ्वी पर दूसरा नहीं है। उसकी बराबरी करने वाले अन्य जीव की सृष्टि नहीं हुई। मनुष्य पशुओं का राजा है।

एक कवि कहता है- “मनुष्य! तू कितना शक्तिशाली है। तेरी सृष्टि में उस दैवी कलाकार ने अपनी कला की इतिश्री कर दी है।”

“तेरे प्रत्येक भाग में शक्ति का अस्तर लगाया गया है, और वह इसलिए कि तू निर्भयता से पृथ्वी पर राज्य कर सके ।”

“तेरे बल का पारावार नहीं, जिन साधनों से सम्पन्न करके तुझे पृथ्वी पर भेजा गया है वे अचूक है, उनके आगे कोई ठहर नहीं सकता।”

“तुझमें शारीरिक शक्ति का भण्डार है, तेरे हाथ पाँव, छाती, पुट्ठों में शक्ति इसीलिए दी गई है कि कोई तुझे दबा न सके, तेरी बराबरी न कर सके, जहाँ तेरी शारीरिक सम्पन्नता कार्य न करे, वहाँ कार्य के लिए तुझे बुद्धि की असीम शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। इनकी ताकत अनेक इंद्रवज्रों से उत्कृष्ट हैं। इनके आगे दूसरे की नहीं चल सकती।”

“तुझमें असीम सामर्थ्य वर्तमान है, शक्ति का वृहत पुँज भरा पड़ा है। तुझे किसी के आगे हाथ पसार कर माँगने की आवश्यकता नहीं है। तुझे किसी देव की कृपा सम्पादन की आवश्यकता नहीं है। संसार के क्षुद्र आघात प्रतिघातों में इतनी हिम्मत नहीं कि तुझे विचलित कर सकें।”

“तू निष्पाप है, तू आनन्द है, तू अविनाशी आत्मा है, तू सच्चिदानन्द रूप है, तू शोक रहित, भय रहित, नित्य मुक्त स्वभाव वाला देव है। न दुःख, न क्लेश, न रंज, न भूत, न प्रतिद्वंद्वी-तुझे अपने जन्म जाति अधिकारों से कोई विचलित नहीं कर सकता। वासनाएँ तुझे मजबूर नहीं कर सकती।”

“तू ईश्वर का महान् पुत्र है। ईश्वर की शक्ति का ही तेरे अंदर प्रकाश है। तू ईश्वर को ही अपने भीतर से कार्य करने दे। ईश्वर को स्वयं प्रकाशित होने दें। ईश्वर जैसा ही बन कर रह। ईश्वर होकर खा, पी, और ईश्वर होकर ही साँस ले, तभी तू अपनी महान् पैतृक सम्पत्ति का स्वामी बन सकेगा।

कुछ मनुष्यों की भूल

परमेश्वर ने मनुष्य को परम निर्भय बनाया था। वह पशु जगत् का अधिपति डरपोक रहकर क्यों कर राज्य कर सकता था? समाज के प्रतिबंधों ने उसे डरपोक बना दिया है।

संसार के असंख्य व्यक्ति आज जिस मानसिक व्यथा से क्षुब्ध हो रहे हैं वह मनोजनित की रोग-भय है। मनुष्य के मन की निर्बल आदतों को जन्म देने वाला अन्य कोई नहीं केवल भय ही है। अविश्वास, अकर्मण्यता, अधैर्य, ईर्ष्या, असंतोष, मन की चंचलता तथा ऐसे अनेकों मनोजनित रोग केवल भय की ही विभिन्न स्थितियाँ है। भय से उद्भूत कुत्सित मनोवृत्तियाँ उपयोगी पुरुषार्थ को जड़ मूल से नष्ट कर देती हैं। केवल एक भय को अन्तःकरण से उखाड़ फेंकने से अनेक अवगुण स्वयं विनष्ट हो जाते हैं।

शेक्सपीयर निर्देश करता है- “यदि तुम अपनी कमजोरी से, अपने शत्रुओं से, अपनी निर्बलताओं से डरोगे, तो तुम्हारे शत्रुओं को तुम्हारे विरुद्ध बल प्राप्त होगा तथा तुम्हारी भूलें स्वतः तुम्हारे ही सामने तुम्हारे खिलाफ युद्ध करने को प्रस्तुत हो जायेंगी।”

मनुष्य की महत्वाकाँक्षाओं को चूसने वाला भय महाराक्षस है। भय की मनोस्थियाँ हमारे शुभ्र विचारों, साहसपूर्ण प्रयत्नों तथा उत्तम योजनाओं को एक क्षण में चूर्ण-चूर्ण कर डालती हैं। मिथ्या भय की भावना ने सहस्रों जीवनों को नष्ट-भ्रष्ट कर धूल में मिला दिया है। स्निग्ध पुष्प के समान विकसित होने वाले अनेक सद्गुण भय की एक ठेस पाकर क्षत-विक्षत हो गये हैं।

आज के अनेक पुरुष किसी आती हुई आपदा की भावना के कारण आवेगपूर्ण रहते हैं। भविष्य की चिन्ता ही हमारे जीवन को कंटकाकीर्ण बनाती है। जिन चिन्ताओं के कारण हम महीनों पहले विक्षुब्ध रहते हैं, वह कभी-कभी बिल्कुल आती ही नहीं तथा कभी स्वयं अपने आप टल जाती है।

प्रकृति इतनी दयालु, इतनी कुशल, इतनी शक्तिशाली है कि उसने आने वाली आपत्तियों को झेलने की शक्ति प्रचुर मात्रा में हमें प्रदान की है। अपनी अज्ञानता के कारण हम इस कोष को खोलते नहीं।

भय एक स्वार्थी विकार है। सैकड़ों नवयुवकों के आशापूर्ण हृदयों को इसने अंधकारपूर्ण बनाया है। भय के साथ मनुष्य अभ्युदय के मार्ग पर आरुढ़ नहीं हो सकता। भय आशा के अंकुर को अंकुरित नहीं होने देता तथा नित्य इच्छा शक्ति को निर्बल किया करता है।

भय की उत्पत्ति

संक्षय भय का बीज है। अश्रद्धा तथा संक्षय (Indecision) मिलकर शक या शुबा (Doubt) उत्पन्न करती हैं। यही बढ़ते बढ़ते भय (Fear) में परिणत हो जाता है। भय का विकास क्रमशः होता है। संक्षय का बीज क्षुद्र कठिनाइयों तथा अड़चनों के योग से परिवर्तित होते हैं। कितनी ही बार तो यह इतना सूक्ष्म होता है कि हमें बोध भी नहीं होता। कब इसका बीज लगा कब यह विष वृक्ष विकसित हुआ यह पूर्णत्व पर ही हमें ज्ञान होता है।

भय की सन्तानें

भय की प्रथम सन्तान चिंता है। चिंता तथा चिता का बड़ा सम्बन्ध है। दूषित अंतःकरण का व्यक्ति चिंता की कालिमा से कलंकित रहता है। ऐसे अन्तःकरण में अपने अकल्याण व अनेक कल्पनाएँ उठा करती हैं। चिन्ता के कारण मनुष्य में कायरता तथा भीरुता का पदार्पण करता है। ये मनुष्य में भारी दोष माने जाते हैं। चिंता मनुष्य के उत्साह को नष्ट कर डालती है।

भय की दूसरी सन्तान है अकर्मण्यता। उस विषैले प्रभाव से हमारी कोई भी सद्प्रेरणा, कोई भी आकाँक्षा, तथा कोई भी नवीन प्रयोग सफल नहीं हो पाता। मन की सद् कल्पनाएँ जहाँ की तहाँ विमूर्छित हो जाती हैं। अकर्मण्यता का प्रवेश होते ही ‘मैं कार्य क्षमता रखता हूँ’ ‘मैं संसार को हिला डालूँगा’ ‘मुझमें पर्याप्त शक्ति है,’ इत्यादि दृढ़ निर्देशों (Suggestions) के स्थान पर “मैं नहीं कर सकूँगा,” मेरा साहस नहीं होता, अरे, मेरे पास अमुक वस्तु तो है ही नहीं, अब काम कैसे होगा, यह तो मुझसे न हो सकेगा, जो भाग्य में लिखा है वही होगा, करने या न करने वाला मैं कौन होता हूँ। इस प्रकार के संक्षय घर कर लेते हैं।

जब एक बार तुम “मैं नहीं कर सकूँगा”- कहते हो तो तुम्हारा अव्यक्त (nconscious mind) मन एक शीघ्र ग्राहक फोटोग्राफी प्लेट (Sensitive plate) की तरह उस चित्र को पकड़ लेता है। फिर जितने भी अवसर तुम्हें प्राप्त होते हैं सब में विकृत चित्र दिखाई देते हैं। जैसे-जैसे यह भावना दृढ़ होती जाती है, वैसे-वैसे अवस्था असाध्य होती जाती है।

आत्महीनता की ग्रन्थि

भय जब स्वभाव का एक विशिष्ट अंग बन जाता है तो मनः प्रदेश में एक प्रकार की ग्रन्थि (Complex) का निर्माण होता है। इस जटिल ग्रन्थि द्वारा मनुष्य की प्रगति में बड़ी बाधा पहुँचती है। अज्ञात मन में स्थित रहने के कारण ऐसा व्यक्ति खुलेआम उसका अनुभव नहीं करता। कोई उससे कहे कि तुम अपने आप को कमजोर, दीन, हीन समझते हो, तो वह कदापि विश्वास नहीं करता। समाज के व्यवहार में उक्त ग्रन्थि की जो प्रतिक्रियाएँ (Reactions) होती हैं उनके द्वारा ही हीनत्व की भावना से ग्रस्त व्यक्ति के स्वरूप का ज्ञान होता है।

हीनत्व की ग्रन्थि की प्रतिक्रियाएँ

प्रत्येक व्यक्ति के दैनिक जीवन में इस ग्रन्थि के फलस्वरूप अनेक प्रतिक्रियाएँ हुआ करती हैं। मैंने अनेक ऐसे नवयुवक देखे हैं, जो लज्जावश किसी भयानक दोषी की भाँति मुँह छिपा दारुण मानसिक यातना, घोर अपमान, निरादर एवं ग्लानि का अनुभव किया करते हैं। इस दुर्बलता की ग्रन्थि के कारण देश के लाखों हीरे सार्वजनिक अथवा सामाजिक क्षेत्र में पदार्पण नहीं कर पाते। उनकी आकांक्षाएं, महत्वाकाँक्षाएँ और उमंगे अधखिली कलिका की भाँति असमय में ही मुर्झा जाती हैं।

कितने ही व्यक्ति विक्षिप्त जैसे कार्य भी इसी ग्रन्थि के कारण किया करते हैं। बेढंगे व्यवहार अटकना, अंग-प्रत्यंगों का अप्राकृतिक संचालन प्रायः इसी ग्रन्थि के कारण होते हैं। सनकीपन (Eecentricity) तथा अनेक विवेक शून्य कार्य इसी की प्रतिक्रियाएँ हैं।

एक व्यक्ति के विषय में यह विख्यात हुआ कि वह बड़ा अच्छा गाता है। लोग उससे गाने के लिए आग्रह करते किन्तु वह टालमटोल करता। भाँति-भाँति के बहाने बनाता। बाद में ज्ञात हुआ कि वह गाना नहीं जानता था। साथ ही आत्महीनता की ग्रन्थि से ग्रसित था। टालमटोल तथा बहानेबाजी भी आत्मा हीनता की प्रतिक्रियाएँ हैं।

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