प्रवाही पथिक

May 1945

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(श्री रामनरायण जी श्रीवास्तव, हृदयस्थ)

जीव एक पथिक है। ऐसा पथिक जिसकी यात्रा सदैव जारी रहती है। तीव्रगति से बहती हुई नदी में जिस प्रकार एक हल्का तिनका बहता चला जाता है उसी प्रकार गतिशील सृष्टि की अजस्र धारा में हमारा जीवन भी निर्वाध गति से बहता चला जाता है। यह प्रवाह क्रम वृत्ताकार है, इसका आदि अंत नहीं। अनन्त काल से अनन्त योजनों की यात्रा करते रहने पर भी इस यात्रा का अन्त नहीं आता।

जीवन एक अखण्ड धारा है। यह कभी न बुझने वाली अखण्ड-ज्योति है। जीव अनादि और अनन्त है, इस जीव का स्वाभाविक धर्म ही जीवन है। जब तक जीव है तब तक जीवन कायम रहेगा। सत्य को समझ लेने से अमृतत्व की प्राप्ति हो जाती है। मृत्यु का भय, जिसे संसार का सबसे बड़ा भय कहा जाता है, वास्तव में एक भ्रामक कल्पना है। जीव कभी नष्ट नहीं होता और न उसके जीवन की ही कभी समाप्ति होती है।

शरीर का बदलना एक साधारण स्वाभाविक और आवश्यक क्रिया है। जहाँ हलचल होगी, क्रिया और गति जारी रहेगी, वहाँ परिवर्तन अवश्य होगा उत्पन्न होने वाली वस्तु का नाश अवश्यंभावी है। यदि ऐसा न हो तो सृष्टि का कार्य चलना ही बन्द हो जायगा। मृत्यु में भय जैसी कोई वस्तु नहीं है। यह एक विश्राम है जिसे प्राप्त करने के बाद नया, अधिक सक्षम शरीर प्राप्त होता है।

जीव अमर है। मृत्यु के काल्पनिक भ्रम से डरने या घबराने की हमें जरा भी आवश्यकता नहीं है। पथिक को एक मंजिल छोड़कर दूसरी पर अर्पण करते हुए कुछ झिझक या घबराहट नहीं होती फिर हम प्रवाही पथिक अपनी अमर यात्रा एक मंजिल से दूसरी पर चलते समय डरें क्यों? मृत्यु से घबरायें क्यों।


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