वैराग्य का तत्व

May 1945

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संसार की वस्तुओं में मालिकी के विचार रखने से उनका दुरुपयोग होता और संसार के समस्त पदार्थों को ईश्वर की वस्तु समझ कर उनका खजांची रहते हुए कार्य करने से सामग्री का उपयोग धर्म, न्याय और सुख के कार्यों में होता है। साँसारिक वस्तुओं से वैराग्य करना, उनका ठीक प्रकार उपयोग करने की कला सीखना है। लेकिन आज तो कर्त्तव्य त्यागी को वैरागी कहने की प्रथा उठ खड़ी हुई है।

वैराग्य का सारा रहस्य निष्काम कर्मयोग में छिपा हुआ है। मानव जाति के सबसे महान दर्शन शास्त्र गीता ने निष्काम कर्म योग पर ही सबसे अधिक बल दिया है। संसार में हमें किस प्रकार व्यवहार करना चाहिए इसका ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमें गीताकार का भावार्थ भली प्रकार समझने की चेष्टा करनी चाहिए। निष्काम और कर्म योग यह दो शब्द हैं। निष्काम से तात्पर्य अलग रहने, न मिल जाने, निर्लिप्त रहने से है। कर्म योग का तात्पर्य कर्त्तव्य धर्म पालन करने से है। जीव का धर्म यह है कि वह विकास के निमित्त अहंभाव का प्रसार करे। अपनी आत्मीयता को दूसरों तक बढ़ावे, अपने स्वार्थों को दूसरों के स्वार्थों से जोड़ने के दायरे को बढ़ाया जाय। यह आध्यात्मिक उन्नति यदि वास्तविक हो तो वह आदमी अपनी शक्तियों का अधिक से अधिक भाग दूसरों की सेवा में लगाता है और कम से कम भाग अपने लिए रखता है। अर्थात् वह सेवाधर्म अपना लेता है और परोपकार में रत रहता है। उसका दृष्टिकोण संकुचित स्वार्थ पूरा करने का नहीं होता वरन् उदारता सहित परमार्थ को लिए हुए होता है। जो जितना ही परमार्थ चिन्तक है वह उतना ही बड़ा महात्मा कहा जायगा।

हमारे पूर्वज ऋषि मुनियों को ठीक तौर से पहचानने में लोग बड़ी भूल करते हैं। उनकी दृष्टि इतनी ही पहुँचती है कि ऋषि मुनि नगरों से दूर जंगलों में रहते थे और फल−फूल खाकर तथा वल्कल वसन पहनकर जीवन यापन करते थे। आजकल के साधु नामधारी तथाकथित वैरागी अपना वैराग्य उसी की नकल का बनाते हैं। जीवन की आवश्यकताएं तो घटाते हैं पर बची हुई शक्ति को परमार्थ में नहीं लगाते, वरन् दंभ, आलस्य, प्रमाद और धूर्तता पर उतर आते हैं इसलिए उनका जीवन साधारण गृहस्थ से भी नीचे दर्जे का बन जाता है। यही कारण है कि साधु वेशधारी भिखमंगों को गली-कूचों में हम कुत्तों की तरह दुरदुराता हुआ देखते हैं। ऋषि मुनियों के जीवन पर गंभीरता पूर्वक दृष्टिपात किया जाय तो उनकी सच्ची आत्मोन्नति के प्रमाण प्रत्यक्ष हो जाते हैं। जंगलों में जाकर, रूखा सूखा खाकर, नंगे उघाड़े अजगरों की तरह वे नहीं पड़े रहते थे वरन् वहाँ जाकर जनसाधारण की सेवा के लिए अधिक से अधिक काम करते थे। योगी द्रोणाचार्य ने शस्त्र विद्या में स्वयं पूर्णता प्राप्त की और अनेकों अधिकारियों को उस विद्या में पारंगत बनाया। योगी चरक ने चिकित्सा शास्त्र की अन्यतम शोध की, योगी सुश्रुत ने शल्य क्रिया (सर्जरी) का आविष्कार किया, पाणिनी ने व्याकरण शास्त्र निर्माण किया, आर्य भट्ट ने खगोल विद्या के मर्मों की खोज करके ज्योतिष शास्त्र बनाया, योगी वशिष्ठ ने अपने उपदेशों से राम जैसे राजकुमार को मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम बना दिया, योगी परशुराम ने अपने प्रचंड बाहुबल से पृथ्वी को अत्याचारियों के रक्त से रंग दिया, योगी नारद का प्रचार कार्य इतना प्रबल था कि वे एक घड़ी से अधिक एक स्थान पर नहीं ठहरते थे और उस युग में जो कार्य अनेक अखबार और पब्लिक सिटी ऑफिसर मिलकर नहीं कर पाते उस समय सारा काम अकेले नारद कर लेते थे। योगी विश्वामित्र ने अलग ही सृष्टि रच दी, योगी व्यास ने अष्टादश महापुराण रचे, जिनमें गीता जैसे अनेक रत्न छिपे पड़े हैं। योगिराज कृष्ण ने महाभारत जैसे संग्राम को कराया। योगी चाणक्य ने अर्थशास्त्र और कूटनीति शास्त्र के अपूर्व विज्ञान की रचना की। एक भी योगी का जीवन ऐसा नहीं पाया जा सकता जिसमें लोक सेवा के महान कार्य समन्वित न हों। आत्म शक्ति की उन्नति के लिए वे योगाभ्यास भी करते थे पर वह होता इसी प्रकार था जैसे प्रातःकाल अधिक काम करने की शक्ति प्राप्त करने लिए हम रात को निद्रा लेते हैं, या कुश्ती लड़ने का बल बढ़ाने के लिए दूध पीते हैं, रहन-सहन को कम खर्चीला वे इसलिए बनाते थे कि अपने निजी झंझटों को पूरा करने के लिए कम परिश्रम करना पड़े और अपनी अधिकाँश शक्ति का उपयोग लोक सेवा के निमित्त हो सके। यह मानना भी गलत है एक हमारे ऋषि महात्मा स्त्री पुत्रों को त्याग देते थे। जिसने अविवाहित जीवन बिताया हो। अन्यथा पुराण साक्षी है कि सभी ऋषियों के स्त्रियाँ और सताने मौजूद थीं। शंकर जैसे योगेश्वर के दो विवाह हुए और उनके बाल बच्चे भी मौजूद थे।

महर्षियों के जीवन पर थोड़ा सा प्रकाश इसलिए डाला गया है कि नकलची लोग पूरी बात को समझें और तब उसका अनुकरण करें। बाल बच्चों को भटकता छोड़ कायरता के साथ कर्त्तव्य धर्म की अवहेलना करते हुए घर त्याग कर भाग जाना और भगवान का भजन करने की झूँठी आत्मवंचना के बहाने भीख टूक खाकर अकर्मण्यतापूर्वक जीना न तो योग है, न संन्यास, न स्वार्थ है, न परमार्थ। यह एक प्रकार की आत्म हत्या है। जिसे अल्प शिक्षित या अशिक्षित व्यक्ति, स्वार्थी कनफूका गुरुओं के बहकावे में आकर स्वीकार कर लेते हैं और अपने बहुमूल्य जीवन की आलस्य और प्रमाद की छुरियों से निर्दयतापूर्वक हत्या कर डालते हैं। वैसे तो आज भी थोड़े बहुत सच्चे महात्मा इन साधु वेशधारियों के बीच मिल सकते हैं जो स्वार्थ की अपेक्षा परमार्थ को महत्व देते हैं और अहंकार के नशे में इठे फिरने की बजाय नम्रता और सेवा का परिचय देते हैं। ऐसे महापुरुष उसी प्रकार पूजनीय हैं जैसे कपिल कणाद। हमारा विरोध तो उन भिखमंगों से है जो वैराग्य के पवित्र नाम को कलंकित करके प्रमाद की उपासना करते हैं और जनसाधारण के मन में यह झूठी धारणा पैदा करते हैं कि वैरागी वही है जो घरबार छोड़ कर निरुद्देश्य मारा मारा फिरे और भजन की झूठी आत्मवंचना करता हुआ स्वार्थी जीवन बितावे।

जीवन विकास के लिए अहंभाव का प्रसार आवश्यक है। परमार्थ में स्वार्थ को घोलते जाना, अपने लिए कम दूसरे के लिये ज्यादा की उदार वृत्ति को अपनाते जाना बस एक मात्र यही जीव का धर्म है। धर्म के सारे अंग-उपाँग इसी परिभाषा के अंतर्गत आ जाते हैं। त्याग, सहानुभूति, प्रेम, दया, उदारता आदि सत् वृत्तियाँ विकास धर्म की किरणें हैं। सम्पूर्ण धर्म शास्त्र इसी एक बिन्दू के आप-पास उसी प्रकार घूम रहे हैं जैसे ध्रुव के चारों ओर अन्य नक्षत्र घूमते हैं। आप संसार से विरक्त रहिए, पर प्राणियों को आत्म तुल्य समझ कर उनकी अधिकाधिक सेवा के मार्ग पर बढ़ते चलिए। स्त्री के, पुत्र के, कुटुम्बियों के शरीरों को नाशवान समझिए पर उनके जीव की उन्नति में भरपूर सहायता कीजिए। उनकी आवश्यक सुविधाओं का उसी प्रकार ध्यान रखिये जैसे अपनी सुविधा का रखते हैं। इस आत्म प्रसार के दायरे को क्रमशः बढ़ाते चलिए। जिन सुखों को प्राप्त करने की इच्छा अपने लिए करते हैं उन्हीं की दूसरों के लिए इच्छा करिए। सहृदय माता घर में बने हुए खीर खाँड़ के भोजन पहले अपने बालकों को कराती है तब बचा खुचा आप खाती है। आप जब विकास धर्म का पालन करेंगे तो ऐसी ही उदार एवं सहृदय माता बन जावेंगे। विश्व के अन्य प्राणी आपके बालक होंगे। आपका सारा वैभव अल्प बुद्धि वाले, अल्प साधन वाले, अल्प शक्ति वाले, अल्प वैभव वाले, प्राणियों के काम आवेगा तब कहीं बचा खुचा भौतिक सुख आप अपने लिए चाहेंगे। खीर खाँड खाकर प्रसन्न हुए बच्चों का प्रफुल्ल मुख देखकर माता का हृदय आनन्द से भर जाता है अशक्त प्राणियों की सेवा में अपना वैभव उत्सर्ग करे देने के पश्चात् आपके अन्तःकरण में आनन्द की लहरे उठने लगेंगी।

नश्वर संसार का उपदेश है कि वैरागी बनिए। वैरागी का अर्थ है संसार के पदार्थों की नश्वरता को समझते हुए उनका उपयोग विकास धर्म की पूर्ति के लिए परमार्थ में कराना। स्वार्थ को, लोभ को, तृष्णा को कम करके परमार्थ के विचार और कार्यों में निरन्तर लगे रहना ही सच्चा वैराग्य है।

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