मैं हूँ एक समान अहिर्निशि, एक रूप प्रतिवार। मेरी जय श्री विश्व विजय, श्री यह काँटों का हार।
दो दिन के बसन्त में हँसकर कहता मैं न विश्व श्री नश्वर। पलभर के पावस में रह कर, कहता मैं न, ‘विश्व दुख-सागर॥’
सुख-दुख एक समान मुझे सब, मुझे न भेद विकार। लाती मलियानिल कलि किस लय, तरुओं के आँचल भर जाती। आती फिर झँझा की बारी, आँखों में आँधी भर जाती॥
मैं अपने अभाव में श्रीयुत, श्री अभाव शृंगार। कभी न बरसे सरस सुरभि घन, मुझे न व्यापी पर जग-ज्वाला। निर्गुण फूल फली काँटों की, विधि ने दी मुझको मणि माला॥
व्यंग रूप यह बाम विधाता का मुझको उपहार। कण्टक मय जीवन आजीवन, पर मैं निर्भय विश्वासी हूँ। हूँ समर्थ, मैं सबल सनातन, पर नित नव बल अभिलाषी हूँ॥
सबल बनूँ, यदि बरसे काँटे नभ से शतशत धार। मैं स्थित प्रज्ञ-विज्ञ पहचानें, अपना जीवन भार उठाए। चाहे राशि-राशि शूलों से,
फिर-फिर मेरा तन भर जाए॥ मैं हूँ धीर वीर संन्यासी, दृढ़ता ही आधार। मैं हूँ एक समान अहिर्निश, एक रूप प्रतिवार॥
-प्रभात फेरी,
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*समाप्त*