(श्री रत्नेश कुमारी ‘ललन’ मैनपुरी स्टेट)
बहुत से शिक्षक तथा माता पिताओं की ये आदत होती है कि वे जरा-जरा सी भूलों पर अथवा शीघ्र पाठ न समझ सकने पर चिढ़ कर कहने लगते हैं-तुम से ये काम हो ही नहीं सकता अथवा तुम भला इसे क्या कर सकोगे? या फिर यूँ कहेंगे-अमुक व्यक्ति की बराबरी तुम क्या कर सकोगे? तुम तो बस हमेशा ऐसे ही रहोगे। इन बातों का कोमल मति सुकुमार बालकों तथा अल्प वयस्क किशोर किशोरियों के हृदय पर बहुत ही गहरा और बुरा असर पड़ता है। (वयप्राप्त पर अतिशय भावुक व्यक्तियों पर भी कम कुप्रभाव नहीं पड़ता) उनके मन में तुच्छता की ग्रन्थि (यदि मनोवैज्ञानिकों के शब्दों में कहूँ) अथवा संस्कार गहराई से (अन्तः चेतना में) अंकित हो जाता है। परिणाम यह होता है इस भावना से सन्तप्त व्यक्ति या तो इसका सक्रिय विद्रोह करता है (अच्छा बन सकने से निराश होकर बुरा बनने को कटिबद्ध हो जाता है) अथवा अज्ञात रूप से (अन्तःचेतना के इस कुसंस्कार से प्रभावित हो जाने के कारण) निष्क्रिय विद्रोह करता है। किसी भी कार्य को आत्म विश्वास जनित उत्साह से वह कर ही नहीं पाता। असफलता का निश्चित चित्र और लोक हंसाई का भय उसकी मन की दृढ़ता और कार्यकारिणी शक्तियों को निर्जीव बनाता रहता है। अस्तु उसकी शारीरिक, मानसिक आदि शक्तियों की उन्नति का मार्ग अवरुद्ध तथा जीवन नीरस हो जाता है।
सोचिये तो आपके अविचार पूर्ण शब्दों का कितना भीषण परिणाम हुआ? बस आज से ही दृढ़ प्रतिज्ञा कर लीजिये किसी भी कोमल हृदय को इन वाक्य बाणों के विष से विषाक्त बना कर किसी का भविष्य अंधकारमय और जीवन नष्ट नहीं करूंगा। जगत्पिता आपके इस सद्संकल्प से प्रसन्न होकर अपने दो अमूल्य, दुर्लभ वरदानों की वर्षा आप पर करेगा शान्ति और सन्तोष। मुझे विश्वास है मेरे इस अनुरोध को आप अवश्यमेव मानेंगे।
=कोटेशन============================
मनुष्य पुण्य का फल सुख चाहता है, पर पुण्य नहीं करना चाहता और पाप का फल दुःख नहीं चाहता पर पाप नहीं छोड़ना चाहता। इसीलिये सुख नहीं मिलता और दुःख भोगना ही पड़ता है।
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