दब्बूपन : मानसिक बीमारी

May 1945

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(ले.- श्रीयुत रमेशचन्द्र वर्मा, नई दिल्ली)

कुछ व्यक्ति सोचते हैं, “हमें कौन पूछने वाला है? हम किस गणना में हैं? हमसे क्या होना जाना है?” -इस प्रकार मनःस्थिति से वे अपनी तुच्छता तथा हीनता की कुत्सित ग्रन्थि को और सुदृढ़ करते हैं और कायरता दब्बूपन तथा घोर निराशा में निरत रहते हैं?

दब्बूपन- इच्छा शक्ति की दुर्बलता का चिह्न है। सदा सर्वदा निज अनिष्ट की भावना में रत रहने से वह अंतर्मन में आरुढ़ (Fix) हो जाती है। दूसरी आदतों की तरह यह भी एक प्रकार की आदत है तथा अन्य आदतों की तरह अभ्यास से प्राप्त होती है। अभ्यास द्वारा ही हमें दब्बूपन प्राप्त होता है। अभ्यास द्वारा ही हम दब्बूपन प्राप्त करते हैं। कभी-कभी हमारे घर वाले बचपन में कठोर नियंत्रण द्वारा हमें दब्बू बनाते हैं।

प्रश्न है कि दब्बूपन से कैसे मुफ्त हों? अपना आध्यात्मिक बल बढ़ाइये। वीरता के, उत्साह के, तथा आत्मविश्वास के प्रबल विचारों को प्रचुरता से मनः केन्द्र में प्रवेश करने दीजिए। आत्मावलम्बन की भावना को दृढ़ता से अव्यक्त में बिठाइये।

यदि आप अपने को ईश्वरत्व से युक्त समझने लगेंगे, सर्वांग को ईश्वरमय देखने की आदत बना लेंगे तो आपकी दीनता हट जायगी।

मनुष्य जिस स्थिति का निरंतर चिंतन करता है, उस स्थिति का भाव अवश्य उसमें प्रकट होता है अतः तुम यही सोचो कि “मैं भय तथा दब्बूपन के दूषित विचारों की कल्पना में नहीं रहता। अन्तःकरण को भूत, प्रेत, पिशाच की श्मशान भूमि नहीं बनाता। मेरे अन्तःकरण में तो निर्भयता, श्रद्धा, उत्साह और शान्ति का अखण्ड राज्य है। मैं चारों ओर से अभय हूँ, परम निःशंक हूँ। परमात्मा की गोद में पूर्ण सुरक्षित हूँ।”


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