धर्म बनाम सम्प्रदाय

March 1945

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धर्म वह है जिसके धारण करने से किसी वस्तु का अस्तित्व बना रहे। जैसे अग्नि का धर्म प्रकाश और गर्मी है। इन दोनों गुणों के रहते हुए अग्नि-अग्नि है अन्यथा राख का ढेर। इसी प्रकार मनुष्य का धर्म वह है जिससे उसमें मनुष्यत्व बना रहे, इन्सानियत कायम रहे। जिसके द्वारा मनुष्य में प्रेमभाव उत्पन्न हो, एक दूसरे की सेवा और सहायता की इच्छा पैदा हो वह ही धर्म है।

शास्त्र में लिखा है “यतोऽभ्युदत निश्रेयस सिद्धि स धर्मः” अर्थात् जिसके द्वारा मनुष्य इस लोक में उन्नति करता हुआ साँसारिक ऐश्वर्य भोगता हुआ कल्याण पद का, स्वतंत्रता को प्राप्त करे, वह ही मनुष्य का धर्म है। दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि धर्म वह है जिसके द्वारा लोक और परलोक दोनों बनते हैं, दोनों का आनन्द प्राप्त होता है। जो भी पुस्तक ऐसे धर्म का प्रतिपादन करे वह ‘धर्मग्रन्थ’ कहलाने की अधिकारिणी है चाहे वह वेद हो, पुराण हो, बाइबिल हो, कुरान हो तौरेत हो, जिन्दावस्ता हो अथवा किसी आधुनिक लेखक की लिखी पुस्तक हो।

धर्म शब्द का वास्तविक अर्थ Virtue नेकी या सदाचार है अथवा Datey कर्त्तव्य या फर्ज है। धर्म को फिरका, मजहब या सम्प्रदाय के अर्थ में प्रयोग करना इस पवित्र शब्द का अनर्थ करना है। फिरकेबाज और धर्मात्मा में जमीन आसमान का अन्तर है, फिरकेबाज आदमी अपनी बुद्धि बेचकर किसी पूर्व परिपाटी का अंध विश्वास बन जाता है और अमुक पुस्तक या अमुक धर्माचार्य की भक्ति के नाम पर घृणित और जघन्य अत्याचार भी प्रसन्नतापूर्वक करता रहता है, किन्तु धर्मात्मा पुरुष अपनी विवेक बुद्धि को प्रधानता देता है और किसी परिपाटी का ख्याल किये बिना उचित, न्याय-संगत और मनुष्यता से भरे हुए कार्यों को ही करता है।


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