मन जीता तो जग जीता।

March 1945

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(लेखिका-कुमारी कैलाश वर्मा)

जैसे शत्रु से युद्ध करते समय इस बात का ध्यान रखना होता है कि न जाने कब आक्रमण हो जाय, कब किस ओर से किस रूप में शत्रु प्रकट हो जाए, उसी प्रकार मन रूपी शत्रु के प्रत्येक कार्य पर तीव्र दृष्टि रखना उचित है। जहाँ मन तुम्हें अपने वश में करके उल्टा सीधा कराना चाहें वहीं उसके व्यापार में हस्तक्षेप करना चाहिये।

मन बड़ा बलवान शत्रु है, इससे युद्ध करना भी अत्यन्त दुष्कर कृत्य है। इससे युद्ध काल में एक विचित्रता है। यदि युद्ध करने वाला दृढ़ता से युद्ध में संलग्न रहे, निज इच्छा शक्ति को मन के व्यापारों पर लगाये रहे तो युद्ध में संलग्न सैनिक की शक्ति अधिकाधिक बढ़ती है और एक दिन वह इस पर पूर्ण विजय प्राप्त कर लेता है। यदि तनिक भी इसकी चंचलता में बहक गए तो यह तोड़-फोड़ कर सब कुछ नष्ट-भ्रष्ट कर डालता है।

मन को दृढ़ निश्चय पर स्थिर रखने से मुमुक्षु की इच्छाशक्ति प्रबल होती है। मन का स्वभाव मनुष्य के अनुकूल बन जाने का है। उसे कार्य दीजिए। वह चुपचाप नहीं बैठना चाहता। यदि तुम उसे फूल-फूल पर विचरण करने वाली तितली बना दोगे तो यह तुम्हें न जाने कहाँ-कहाँ की खाक छनवायेगा। यदि तुम इसे उद्दण्ड रखोगे तो यह रात-दिन भटकता ही रहेगा पर यदि तुम इसे चिंतन योग्य पदार्थों में स्थिर रखने का प्रयत्न करोगे तो यह तुम्हारा सबसे बड़ा मित्र बन जायेगा।

जब-जब तुम्हारे अन्तःकरण में वासना की प्रबल जंग उत्पन्न हो निश्चयात्मिक बुद्धि को जाग्रत करो। मन से थोड़ी देर के निमित्त पृथक होकर इसके व्यापारों पर तीव्र दृष्टि रक्खो। बस, विचार शृंखला टूट जायेगी और तुम इसके साथ चलायमान न होगे। मन के व्यापार के साथ निज आत्मा की समस्वरता न होने दो। इसी अभ्यास द्वारा यह आज्ञा देने वाला न रहकर सीधा साधा आज्ञाकारी अनुचर बन जायेगा-

मन लोभी, मन लालची, मन चंचल मन चौर। मन के मत चलिए नहीं, पलक पलक मन और।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: