(श्री प्रभुदत्त जी ब्रह्मचारी)
मैं जहाँ-जहाँ भी गया हूँ, मैंने संकीर्तन कर्त्ताओं के विषय में कई तरह की बातें सुनी है। कुछ लोगों ने कहा है- “संकीर्तन मंच पर कुछ ऐसे लोग घुस आये हैं, जो पहले नाटक, थियेटरों में नाचते गाते थे। जिनके कंठ अच्छे हैं। वे सभा में नाचकर, गाकर, अपने हाव-भाव दिखाकर, जनता को प्रभावित करते हैं और फिर जनता में अत्याचार, दुराचार करके अपनी कुत्सित भावनाओं की पूर्ति करते हैं। यह बड़ी चिन्ता की बात है।” ये पेशेवर लोग जहाँ जायेंगे वहीं दूषित वातावरण पैदा करेंगे। इनका कोई धर्म नहीं, कोई सिद्धान्त नहीं, इनका टका धर्म है और ये टके के पीछे ही सब बन जाते हैं। ऐसे लोग सभी समाजों में घुस जाते हैं।
मेरी प्रार्थना इतनी ही है कि ऐसे लोगों को भरसक संकीर्तन समारोहों में न बुलाया जाय। जिनका जीवन सदाचार मय नहीं, जो स्वयं आचार भ्रष्ट हैं, वे नाम की आड़ लेकर पाप ही करेंगे, सदाचार रहित लोगों का पेशे वाला कीर्तन जनता को रिझाने के ही लिए है। ऐसे लोग नाम संकीर्तन करते ही नहीं। इधर-उधर के पद गाकर, इधर-उधर की हँसी दिल्लगी की बातें सुनाकर जनता का मनोरंजन करते हैं। अतः ऐसे लोगों से संकीर्तन पर भी लोग तरह-तरह के आक्षेप करने लगते हैं।
आप कहेंगे- “जब भगवन्नाम कीर्तन पतित पावन है तो आप ऐसे पतितों से डरते क्यों हैं? उन का भी उद्धार होगा नाम के लिए तो यहाँ तक कहा है कि-चाहे दुष्ट चित्त से भी स्मरण क्यों न करें हरिनाम पापों का नाश करता ही है, जैसे बिना इच्छा के भी अग्नि छूने से वह जला ही देगी।”
ठीक है, यह हम कब कहते हैं कि वे भगवन्नाम का नाम कीर्तन न करें। करें-खूब करें दिन रात्रि करें, भगवन्नाम तो कभी व्यर्थ जायगा ही नहीं, किन्तु उन्हें उपदेशक या आचार्य के स्थान पर बिठा कर उनका आदर्श लोगों के सामने रखना अनुचित है। जिनका चरित्र शुद्ध नहीं है और जो केवल मात्र अर्थ लोलुप ही बनकर आये हैं उनका उद्देश्य ही दूसरा है। वे अपने आप कीर्तन करें, उन्हें मना कौन करता है। मनुष्य का चरित्र ही मनुष्य के गुणों को बढ़ाता है। अतः संकीर्तन प्रेमियों को, संकीर्तन करने वालों को ऐसे लोगों से यथा शक्ति दूर ही रहना चाहिए।