भोजन के सम्बन्ध में सावधानी

March 1945

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थियोसोफिकल सोसाइटी के प्रसिद्ध नेता महात्मा लेडबीटर ने “वस्तु की आन्तरिक दशा” (Hidden Side of Things) नामक एक बहुत ही विवेकपूर्ण पुस्तक लिखी है, उसमें वे एक स्थल पर कहते हैं जो कुछ भोजन हम खाते हैं, वह पाचन के उपरान्त शरीर का एक भाग बन जाता है। उस भोजन पर जिस प्रकार के सूक्ष्म प्रभाव अंकित होते हैं, वे भी हमारे शरीर में बस जाते हैं। लोग खाद्य वस्तुओं की केवल बाहरी सफाई पर ध्यान देते हैं किन्तु वे यह भूल जाते हैं कि बाहरी सफाई पर ध्यान देना जितना आवश्यक है, उससे कही अधिक उसकी आँतरिक स्वच्छता पर ध्यान देना है। भारतवर्ष में भोजन की आन्तरिक स्वच्छता को अधिक महत्व दिया जाता है। हिन्दू लोग अपने से नीच विचार के लोगों के हाथ का बना हुआ या उनके साथ बैठकर खाना इसलिए ना पसंद करते हैं कि उनके हीन विचारों से प्रभावित होने से भोजन की पवित्रता जाती रहेगी। विलायत में लोग बाहरी सफाई को ही पर्याप्त समझते हैं। वे नहीं जानते कि केवल इतने से ही भोज्य पदार्थ उत्तम गुण वाले नहीं बन जाते।

भोजन पर उसके बनाने वाले का सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है। विज्ञान बताता है कि मानवीय विद्युत का सब से अधिक प्रभाव उँगली की पोरुओं में से प्रवाहित होता है। जिस भोजन को बनाते समय बार-बार हाथ से छुआ गया है, वह उसके अच्छे या बुरे असर से अवश्य ही प्रभावित होगा। यह सच है कि अग्नि पर पकने से उसके बहुत से दोष जल जाते हैं तो भी वह सम्पूर्ण प्रभाव से रहित नहीं हो जाता। केवल छूने से ही भोजन पर वैयक्तिक विद्युत असर नहीं पड़ा वरन् पास बैठने वालों से भी वह आकर्षित होता है क्योंकि भोजन मनुष्य की प्रिय वस्तु है और एक व्यक्ति जब दूसरे की थाली पर विशेष दिलचस्पी के साथ दृष्टि डालता है तो उस पर उसकी दृष्टि का असर पड़ता है। यदि कोई दुखी होकर किसी को भोजन करते देखता है तो उसे खाने वाला जरूर रोगी हो जाएगा, ऐसा देखा जाता है। किसी के हाथ से छीनकर या समाज में बैठकर दूसरों के दिए बिना जो खाता है वह भी उन खाद्य पदार्थों के साथ एक प्रकार की ऐसी विद्युत ले जाता है जो करीब-करीब विष का काम करती है और उससे वमन तक हो सकती है। एकान्त स्थान में या चौके में बैठकर भोजन करना इस दृष्टि से बहुत ही अच्छा है कि उस पर भीड़-भाड़ की दृष्टि नहीं पड़ती। हाँ, एक ही घर के या एक ही प्रकार के विचारों वाले लोग पास-पास बैठकर भोजन कर सकते हैं क्योंकि उनमें एक दूसरे के प्रतिपूर्ण सहानुभूति होता है और जातीय शील स्वभाव बहुत कुछ मिलते जुलते हैं। किन्तु दूसरे लोगों में ऐसा नहीं हो सकता। बनाने वाले या परोसने वाले के शारीरिक और मानसिक गुण, हाथों का प्रभाव अनिवार्यतः भोजन पर पड़ता है। माता, बहिन या पत्नी के हाथ का परोसा हुआ रूखा सूखा भोजन बाजार के हलुवे से अधिक गुणकारक होता है। क्योंकि उनकी प्रेम भावनाएं भी उनमें लिपट आती हैं, शबरी के बेरों की श्रीरामचन्द्र जी ने और विदुर के शाक की भगवान कृष्ण ने बड़ी प्रशंसा की है। यह प्रशंसा उनका मन बढ़ाने के लिए ही न थी वरन् सत्य भी थी। प्रेम की सद्भावनाओं में इतने रुचिर तत्व होते हैं कि उनसे साधारण भोजन भी बहुत उच्च कोटि का बन जाता है। होटलों में खाने वाले व्यक्ति हमेशा पेट की शिकायत करते हैं। कहते रहते हैं-होटलों में रोटी कच्ची मिलती है, शाक खराब मिलता है इसलिए वह हमें हजम नहीं होती। किन्तु वास्तविक कारण दूसरा ही है। होटल वालों की नियत यह रहती है कि ग्राहक कम भोजन खाये जिससे हमें अधिक लाभ हो। यह भावनाएं पेट में पहुँचती हैं और ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करती हैं कि खाने वाले की जावे। बाजारों में बिकने वाली मिठाइयाँ और अन्य दूसरी खाद्य वस्तुएं प्रदर्शनार्थ रक्खी जाती हैं। रास्ता निकालने वाले अधिकाँश लोगों का मन उन्हें देखकर ललचाता है। परन्तु वे कारणवश उन्हें खरीद नहीं सकते। कई बार छोटे बच्चे और गरीब बच्चे उनकी ओर बड़ी ललचाई हुई दृष्टि से देखते हैं परन्तु बेबसी के कारण मन मारकर दुखी होते हुए चले जाते हैं। ऐसे व्यक्तियों की यह बेबसी भरी इच्छाएं उस मिठाई आदि में प्रचुर मात्रा में लिपट जाती हैं। अनेक मनुष्यों की ऐसा भावनाओं को वह बाजारू भोजन अपने में इकट्ठा करता रहता है। कुछ समय उपरान्त उनका एक बोझ जमा हो जाता है और पूर्णतः अखाद्य बना देता है। ‘बाजारू भोजन से बीमार पड़ते हैं।’ यह अनुभव बिल्कुल सत्य है। इसका कारण और कुछ नहीं हो सकता है। घृत, मिष्ठान्न जैसी बलवर्द्धक वस्तुओं से बने हुए पदार्थ हानि पहुँचाते तो इसका भला इसके अतिरिक्त क्या कारण होगा?

जब थाली सामने आवे तो थोड़ा सा जल लेकर उसके चारों तरफ फेर दो और एक मिनट तक आँखें बंद करके इस सामग्री को परमात्मा के समर्पण करते हुए मन ही मन प्रार्थना करो कि हे प्रभो! भोजन आपको समर्पित है। इसे पवित्र और अमृतमय बना दीजिए। जब नेत्र खोलो तो विश्राम करो कि तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार कर ली गई है और उसमें अब केवल लाभकारी तत्व ही रह गये हैं। सच्चे हृदय से प्रभु की प्रार्थना करके और उसमें पवित्रता एवं अमृतत्व की भावना के उपरान्त जो भोजन किया जाता है वह बहुत से हानिकारक प्रभावों से मुक्त हो जाता है और स्वास्थ्य की उन्नति में सहायता करता है।


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