सच्चा परोपकार

February 1945

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(श्री सत्यनारायणजी मूधड़ा, हैदराबाद)

परोपकार और पुण्य के नाम पर मनुष्य कुछ धार्मिक कर्मकाण्ड, थोड़ा सा दान या कोई ऐसा काम करते हैं जिसे बहुत से लोग देखें और प्रशंसा करें। कई ऐसे आदमी जिनका नित्य का कार्यक्रम लोगों का गला काटना, झूठ, फरेब, दगाबाजी, बेईमानी से भरा होता है, अनीतिपूर्वक प्रचुर धन कमाते हैं और उसमें से एक छोटा सा हिस्सा दान पुण्य में खर्च करके धर्मात्मा की पदवी भी हथिया लेते हैं।

तात्विक दृष्टि से विचार करने पर स्पष्ट हो जाता है कि ऐसा धर्म संचय वास्तविक धर्म संचय नहीं है। यह तो प्रतिष्ठा बढ़ाने और वाहवाही लूटने का एक सस्ता सा नुस्खा है। वास्तविक धर्म का अस्तित्व अन्तरात्मा की पवित्रता से संबंधित है। जिसके मन में सच्चे धर्म का एक अंकुर भी जमा है वह सबसे पहला काम ‘अपने आचरण को सुधारने’ का करेगा। अपने कर्त्तव्य और जिम्मेदारी को भली भाँति पहचानेगा और उसे ठीक रीति से निबाहने का प्रयत्न करेगा।

परोपकार करने से पहले हमें अपने मनुष्योचित कर्त्तव्य और उत्तरदायित्त्व को उचित रीति से निबाहने की बात सोचनी चाहिए। भलमनसाहत, का मनुष्यता का, ईमानदारी का, बर्ताव करना और अपने वचन का ठीक तरह से पालन करना एक बहुत ही ऊंचे दर्जे का परोपकार है। एक पैसा या पाई किसी भिखमंगा की झोली में फेंक देने से या किसी को भोजन वस्त्र बाँट देने मात्र से कोई आदमी धर्म की भूमिका में प्रवेश नहीं कर सकता। सच्चा परोपकारी तो वह कहा जायेगा जो स्वयं मानवोचित कर्त्तव्य धर्म का पालन करता है और ऐसा ही करने के लिए दूसरों को भी प्रेरणा देता है।


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