आध्यात्मिक दृष्टिकोण से सिद्धियाँ

February 1945

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री मोहनलालजी वर्मा एम.ए.,एल.एल.बी. कोटा)

मनुष्य को अपने महान तेज एवं सामर्थ्य का तब तक ज्ञान नहीं होता जब तक उसे आत्म-भाव की चेतना तथा आत्म तत्व का बोध न हो जाय। आध्यात्मिक दृष्टिकोण हो जाने के उपरान्त मनुष्य के जीवन में एक महान परिवर्तन होता है। उसे ऐसा प्रतीत होता है मानो वह अन्धकार से दिव्य प्रकाश में आ गया हो, अथवा घोर स्वप्नावस्था से जागृति में आ गया हो। जिन क्षुद्र तनिक-तनिक सी बातों पर उथले व्यक्ति नित्य प्रति दुःख क्लेश भोगते तथा लड़ते-झगड़े हैं, वे आत्म परिचय-सम्पन्न सिद्ध को वस्तुतः अत्यन्त तुच्छ, क्षुद्र तथा सार-विहीन प्रतीत होती हैं। कारण वह अपने अन्तःस्थित आत्मा के विकास के कारण विक्षेप रहित, शाँत तथा उद्वेग से मुक्त रहता है तथा अपने ईश्वरत्व सत् चित् आनंद में निवास करता है।

आध्यात्मिक दृष्टिकोण को प्रकट करने वाला एक अत्यन्त संक्षिप्त साधन है और वह है अपनी आत्मा का विकास। शक्ति का एक वृहत परिणाम इस भंडार में एकत्रित है उसे संकल्प (Determination), सूचना (suggestion) तथा मनोबल (will-power) से विकसित करना पड़ता है। अपनी आत्मा की दिव्य शक्तियों की अभिवृद्धि करने का प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण अधिकार है। हमारी आत्मा में महान शक्ति इसीलिए दी गई है कि हम उसका जितना भी संभव हो सदुपयोग करें, उससे यथेष्ट लाभ उठावें और उस अनन्त चेतन तत्व की समीचीन रूप से अभिवृद्धि करें।

ज्यों-ज्यों तुम अन्तरात्मा स्थित सामर्थ्यों को प्रकट करोगे-अतिष्करण करोगे त्यों-त्यों शरीर से पृथक इन्द्रियों तथा मनोविकारों से मुक्त हो विशेष रूप से महत बनते जाओगे। ये दिव्य शक्तियाँ तुम्हारे अंतर्मन में अज्ञान वश सुप्त पड़ी हैं, केवल उन्हें जागृत भर करने की आवश्यकता है। ध्यान तथा मनन से इन शक्तियों को सरलतापूर्वक दृढ़ किया जा सकता है। ध्यान के बिना हम अपनी आत्मा को शक्ति नहीं दे सकते। संसार के उत्तम से उत्तम मानसिक अभ्यास करने वालों का विश्वास है कि ये शक्तियाँ निरन्तर अभ्यास, व्यवस्थित, अभ्यास द्वारा बढ़ाई जा सकती हैं। अभ्यास द्वारा जितने अंशों में हम निज आत्मा का विकास कर सकेंगे उतने ही अंशों में उसका यथार्थ उपयोग भी कर सकेंगे।

कितने ही व्यक्ति यह समझ बैठते हैं कि हम कुछ भी दिव्यता प्राप्त नहीं कर सकते। साधारण व्यक्तियों की सम्मति है कि प्रतिभा, सिद्धियाँ या शक्तियाँ ईश्वर प्रदत्त प्रसाद है तथा ईश्वर के अनुग्रह मात्र हैं। क्या तुम ऐसा ही सोचते हो? क्या ये प्राचीन रूढ़ियां तुम्हें भी परास्त कर रही हैं?

आज के दार्शनिक कहते हैं प्रत्येक मनुष्य अलौकिक शक्तियाँ प्राप्त कर सकता है। कुछ में अलौकिक शक्तियाँ हों, और कुछ में वे बिल्कुल न हों सो बात नहीं है। मनुष्य उत्तम व्यापारी, लेखक, वक्ता, कवि, कलाभिज्ञ एवं जिस विद्या में भी सिद्धि प्राप्त करना चाहे, अन्तरात्मा में दृढ़ निश्चय से बन सकता है। सिद्धि की शक्ति के निमित्त अन्तरमन को अधिकाधिक जागृत, पुष्ट एवं सम्पन्न करने की आवश्यकता है- प्रत्येक बात जो आत्मा में प्रकट होती है उत्तम प्रकार से उपयोग करना सीखो और तुम में अधिक कार्य करने की कुशलता प्राप्त होगी।

प्रकृति ने मनुष्य को अपनी इच्छा-सिद्धि के निमित्त यथेष्ट साधन और सामर्थ्य प्रदान किये हैं। मनुष्य का स्वभाव ज्यों-ज्यों विशुद्ध आत्मिक भाव और पवित्र दृष्टिकोण को बढ़ाता जाता है त्यों-त्यों उसमें ज्ञान रूपी दीपक का प्रकाश, सामर्थ्य, पुष्ट मनोबल भी बढ़ते जाते हैं। उसके अन्तःकरण का प्रगाढ़ अज्ञान तिमिर नष्ट हो जाता है। मन की वृत्तियों का भयंकर उत्पात, निरन्तर चांचल्य, दारुण प्रहार दूर हो जाता है। वह जगत के मिथ्या प्रपंचों, थोथे प्रतिबंधों से मुक्त होकर अलभ्य सामर्थ्य प्राप्त करता है। फिर उस पर विक्षेप का बल प्रहार, जादू कदापि नहीं चल पाता।

ज्ञान की सद्भावना एवं धारणा द्वारा आन्तरिक सामर्थ्य उदनासित हो उठते हैं और प्रत्येक मनुष्य हमारी ओर आकर्षित होता है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण का अर्थ है मन की उच्च भूमिका में प्रवेश करना। आत्मा के बिल्कुल समीप, इससे संलग्न मन की सर्वोच्च भूमिका है। वहाँ ही अप्रतिम वस्तुओं का अखण्ड सद्भाव रहता है। इस उच्च प्रदेश के चितवन मात्र ही पूर्ण रूप से निर्मल है। ऐसे उच्चतम प्रदेश में जाने का मार्ग मानस-प्रदेश विहारियों को अभ्यास व मनोबल से मिल जाता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आत्मा में अधिकाधिक बल संग्रह करना अपेक्षित है। इस बल को प्राप्त करने के लिए बड़ी से बड़ी सिद्धि है।

इस प्रकार भोजन करने के पश्चात अन्य कुछ खाने की क्षुधा नहीं रह जाती। और सुस्वादु एवं आकर्षक भोजन सामने लाने से भी उसे खाने की इच्छा नहीं होती, उसी प्रकार आध्यात्मिक भोजन चख लेने के बाद इन्द्रियों को परिमित आनन्द अत्यंत फीका मालूम पड़ता है। इधर-उधर बाहर से प्राप्त होने वाला ज्ञान सच्चा वास्तविक ज्ञान नहीं उसकी प्राप्ति से आन्तरिक शाँति प्राप्त नहीं होती। सच्चा ज्ञान तो आत्मानुभूति से ही होता है।

तुम निज आत्मा के अन्दर प्रवेश करो। वही तुम्हारा वास्तविक स्वरूप सत् चित् आनन्द परम विशुद्ध स्वरूप है। वहीं तुम्हें सत्य ज्ञान उपलब्ध हो सकेगा। भ्राँतियों तथा अज्ञान-जन्य निश्चयों से मुक्ति के तत्व आत्मा के अन्दर प्रवेश करने पर ही प्राप्त हो सकेंगे। वृत्तियों को अन्तर्मुखी करने से तुम्हारा मन पवित्र हो जायेगा और इन्द्रियाँ परिश्रान्त हो जायेंगी। चित्तात्मा में अन्तर्ज्योति चमकने लगेगी और सर्वात्म दृष्टि की प्राप्ति हो जायेगी।

भूता हुआ व्यक्ति पूर्व संचित अज्ञान के कारण देह पूजा में निरत रहता है, विषयों के प्रति अत्यंत असक्त बना रहता है। क्षण-क्षण परिवर्तित, देशकाल से परिच्छिन्न, अनित्य विनाशी दुःख के हेतु मिथ्या अभिमान में लिप्त रहता है। संसार की कुटिल वासनाएं, रसनेन्द्रिय के क्षणभंगुर विषय, उसे पल-पल प्रलोभन देकर अस्थिर किया करते हैं। संसार के विषम आन्दोलन उसे अशाँति के जलनिधि की उत्ताल तरंगों में इधर से उधर फेंका करते हैं किन्तु जो बुद्धिमान पुरुष आध्यात्मिक दृष्टिकोण प्राप्त कर लेते हैं, वे इन क्षण भंगुर पदार्थों में कभी आसक्त नहीं होते। उन्हें प्रतीत हो जाता है कि शाश्वत, अनित्य पूर्व स्थिर वस्तु तो एक वह आत्मा ही है। वही अटल है, सत्य है, पूर्ण सनातन है। अतएव ज्ञान की दृष्टि से आध्यात्मिक दृष्टिकोण अद्वितीय आश्रय है। यह अंतर्दृष्टि प्राप्त कर लेने से राग द्वेषादि सम्पूर्ण अनर्थों का मूलोच्छेद हो जाता है। यही दिव्य प्राप्ति परम आनन्द ब्रह्म के परम अनुकूल है।

आत्म दृष्टि की प्राप्ति पर रोग, दुःख शोक, पराजय जय, मान अपमान, तृषा, क्षुधा, हर्ष, शोक, हमारी आत्मा में विक्षोभ उत्पन्न नहीं कर सकते। आत्मा के जानने पर क्या नहीं जाना जाता है? आत्म प्रतीति के पश्चात् क्या अवशेष रह जाता है?

जो सनातन सुख है, जो समग्र विश्व में प्रतिछाया रूप से वर्तमान है, जो अपनी उन्मुक्तता से सर्वत्र प्रशाँत प्रकाश विकीर्ण करता है, जो अन्धकार के गहन कूप से निकाल कर हमें अद्वितीय परम आत्मा का पवित्र दर्शन कराता है, वह स्थिति प्राप्त कर लेना ही आध्यात्मिक दृष्टिकोण है। यही परम, शाश्वत एवं अटल सत्य है। इस सत्य को अपना कर आत्मा में प्रवेश करने से ही सूक्ष्म अंतर्दृष्टि की उपलब्धि होती है, ज्ञान चक्षु खुलते हैं और मनुष्य को अपने वास्तविक स्वरूप का भान होता है। आध्यात्म-भावना का दृढ़ संचार करने के लिए निम्न प्रयोग बड़े आश्चर्यजनक हैं-

आध्यात्म-भावना की सिद्धि के उपाय- प्रति दिन प्रातःकाल अथवा सायंकाल एकान्त स्थान में चले जाओ। तुम्हारा चित्त चंचल या आकर्षित करने का कोई साधन न हो। शाँत-चित्त से नेत्र मूँद कर बैठ जाओ। क्रमशः अपने मन की क्रियाओं का निरीक्षण करो। इन सब विचारों को एक-एक करके निकाल डालो, यहाँ तक कि तुम्हारे मन में कुछ भी न रहे। वह बिल्कुल साफ हो जाय। अब दृढ़तापूर्वक निम्न विचारों की पुनरावृत्ति करो-

‘मैं आज से एक नवीन मार्ग का अनुसरण कर रहा हूँ, पुराने त्रुटियों से भरे हुए जीवन को सदा सर्वदा के लिए छोड़ रहा हूँ। दोषपूर्ण जीवन से मेरा कोई सरोकार नहीं। वह मेरा वास्तविक स्वरूप कदापि नहीं था।’

‘अब तक मैं शृंगार, देह पूजा, टीप-टाप में ही संलग्न रहता था। दूसरों के दोष निकालने, मजाक उड़ाने, त्रुटियों, कमजोरियों के निरीक्षण तथा आलोचन करने में रस लेता था, पर अब मैं इस अन्धकार मय कूप से निकल गया हूँ। अब मैं इन क्षुद्र उलझनों में नहीं पड़ सकता। ये अभद्र भ्रान्तियाँ, रोग, दुःख, शोक आदि मेरी आत्मा में प्रवेश नहीं कर सकती। संसार की क्षण भंगुर वासना तरंगें अब मुझे पथ विचलित नहीं कर सकतीं।’

‘मैं मिथ्या अभिमान में दूसरों की कुछ परवाह नहीं करता था, मद होश था, अपने को ही कुछ समझता था किन्तु आत्मा के अन्दर प्रवेश करने से मेरा मिथ्या गर्व चूर्ण हो गया है। मुझे अपने पूर्व कृत्यों पर हंसी आती है।’

‘संसार के कोई आन्दोलन, क्षुद्र लहरें, फिरकेबंदी मुझे बलात् अपनी ओर आकृष्ट नहीं कर सकते। मैं अब उनसे बहुत ऊंचा हूँ। सनातन हूँ, मुझे इस महा सत्य पर दृढ़ विश्वास हो गया है। मेरा मन पवित्र हो गया है। इन्द्रियाँ सुशान्त हो चमकने लगी हैं। सर्वात्म दृष्टि मिल गई है। मेरी आत्म दृढ़ता से टकराकर प्रतिकूलताएं चूर-चूर हो जाते हैं। विपत्तियों को देखकर मैं कभी अधीर नहीं होता।’

‘मुझे अपनी आत्मा से प्रेम है। उस पर विशुद्ध दिव्य पदार्थ के अतिरिक्त मुझे कुछ दृष्टिगोचर नहीं होता। मुझे अपनी आत्मा में प्रवेश करने पर सर्वात्म दृष्टि की प्राप्ति हुई है। कोई भी स्थान मेरी शाश्वत आत्मा से खाली नहीं है। एक अद्वितीय परम आत्मा का मैं अपने इर्द-गिर्द सर्वत्र दर्शन करता हूँ। समग्र विश्व में इसी उन्मुक्त आत्मा का आनन्द स्वरूप दर्शन करता हूँ। सचमुच मुझे आत्मा का आश्रय है।’

प्रतिदिन बिना भूले इस मानसिक क्रिया को दृढ़ता पूर्वक दुहराइए। जितनी दृढ़ता से उपरोक्त भावना पर मन को एकाग्र करोगे, उतना ही आध्यात्मिक दृष्टि का संचार होगा।

=कोटेशन============================

लड़कपन स्वर्गीय आनन्द का समय है। जवानी धन कमाने का समय है। किन्तु बुढ़ापा केवल संचित किये हुए धन से सुख ही प्राप्त करने का समय नहीं है, बल्कि ईश्वर का भजन करने का भी समय है।

==================================


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: