(श्री जनार्दन पाण्डेय शास्त्री, सालम)
गीता में इस छोटे सूत्र द्वारा मानव जाति को उसका कर्त्तव्य धर्म भले प्रकार समझा दिया है। 1. मेरा स्मरण कर और 2. युद्ध कर, यह दो बात ही हम मनुष्य प्राणियों के लिए भगवान ने करणीय बताई हैं।
युद्ध करना, धर्मयुद्ध में हर घड़ी प्रवृत्त रहना, जीवन संग्राम में शूरवीर सैनिक की तरह जूझते रहना, जीवन को कायम रखने और विकसित करने के लिये अत्यन्त आवश्यक है। यदि मनुष्य, जीवन मार्ग में आने वाली कठिनाईयों से न लड़े, दुष्ट एवं दुरात्मा लोगों के दुष्प्रयत्नों को निष्फल बनाने का उद्योग न करे, जीवनोपयोगी आवश्यक सुविधाओं एवं साधनों को उपार्जन करने का पौरुष न करे तो उसकी सारी क्रिया शक्ति का नाश हो जायेगा, ईश्वर प्रदत्त सम्पूर्ण प्रतिभा शक्ति अस्त−व्यस्त हो जायेगा। ऐसी दशा में उन्नत, आवश्यक और सुविधा सम्पन्न जीवन जीना भी कठिन हो जायेगा। क्योंकि निष्क्रिय निर्बल हो जाता है और निर्बल के लिये प्रकृति का यह नियम है कि उसे निकटवर्ती सशक्त सत्ताएं खाना और मिटाना आरंभ कर देती हैं। जीवन युद्ध के लिए, धर्म युद्ध के लिए, खड़ा न होने वाला मनुष्य स्वधर्मे और कीर्ति का नाश करके पाप को प्राप्त होता है, दीनता, दासता और पीड़ा के चंगुल में फंस जाता है।
युद्ध करना, जीवन को विकसित करने वाला मनुष्य का ईश्वरदत्त स्वभाव है। किन्तु इस स्वभाव के ऊपर भी अंकुश रहना चाहिए। ‘मामनुस्मर’ परमात्मा को स्मरण करता हुआ युद्ध कर। पाप पुण्य का विचार करते हुए, धर्म अधर्म का, उचित अनुचित का ध्यान रखते हुए, युद्ध करना चाहिए। ऐसा न हो कि स्वार्थ में अंधा होकर दूसरों को अनुचित रीति से सताते हुये अपनी उन्नति करे।