तुम्हारा स्वरूप ही आनंदमय है।

February 1945

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(लेखिका- कुमारी कैलाश वर्मा)

प्रगतिशीलता के वर्तमान युग में जहाँ प्रायः पद-पद पर संघर्षों का सामना करना पड़ता है हर्ष किसे और क्योंकर प्राप्त हो सकता है? यह प्रश्न किसके सम्मुख नहीं है। क्या पुस्तकों के ढेर से, महात्माओं के संयोग से अथवा एकाकीपन से यह प्रश्न हल हो सकता है?

पवित्र भावनायें, पवित्र हृदय और पवित्र वातावरण हर्ष का सृजन करते हैं। हर्ष सत्य है और स्थिर है, हाँ कभी-कभी क्षणिक दुखों की रेखा का आह्वान हो ही जाता है। कोई भी वास्तविक पदार्थ नष्ट नहीं हो सकता और फिर हर्ष तो वास्तविकता और स्थिरता के गहन बन में निवास करता है। संतोष और निस्वार्थ यही तो हर्ष के क्षेत्र हैं। सदैव सन्तोषी बने रहिये, अपने कर्त्तव्यों और अधिकारों का स्वार्थ रहित होकर शाँत वातावरण में पूर्ण उपयोग कीजिये। आपको विशेष प्रसन्नता का अनुभव होगा, विश्वास रखिये। यही हर्ष है।

यद्यपि स्थायी हर्ष की प्राप्ति में कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है जिनका अन्त हर्ष में ही होता है। मानवीय पौधा विश्व की स्वतंत्र वायु में पल कर बड़ा होता है, मध्य में अनेक कठिनाइयाँ उपस्थित होती हैं। स्वार्थ और अज्ञानता की मिट्टी उसे प्रकाश में आने के लिए कितनी रुकावटें डालती हैं, परन्तु अंत में स्वार्थ शून्य और पवित्र जीवन-पुष्प कितनी शीघ्रता से शून्य वातावरण को आलोकित कर देता है।


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