मानव! उर का अवलोकन कर, जलती है ज्योति अखण्ड यहीं।
कष्टकाकीर्ण-जीवन-पथ में- सुमनों के अनुपम लेख लिखे। है स्वयं सफलता खड़ी यहीं- कुछ नयन खोल कर देख, सखे॥
जगती के इस कोलाहल में- स्पन्दन का कुछ ज्ञान करो। मानवता के पीड़ित दल के- क्रन्दन पर भी कुछ ध्यान धरो॥
भटको मत, अरे निराशा में, आशा का और आधार नहीं। मानव! उर का अवलोकन कर, जलती है ज्योति अखण्ड यहीं॥
तुम खोज चुके गिरिवर-गह्वर- नक्षत्र लोक नभ जल थल को। तुम खोज चुके मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर की सब हलचल को॥
तुम स्वयं खोजने निकले थे- पर अपने को भी खो बैठे। तुम चले खोजने भेद अरे! पर खुद रहस्यमय हो बैठे!!
अब तुम अपने को ही खोजो, अपने में अपना और कहीं। मानव! उर का अवलोकन कर, जलती है ज्योति अखण्ड यहीं॥
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*समाप्त*