सिद्धियों का मूल प्रयोजन

February 1945

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अपने ज्ञान विज्ञान के हथियारों को तेज करके प्रकृति के छिपे हुए तत्वों को मनुष्य धीरे-धीरे खोदता और निकालता चला आ रहा है। जिस दिन जलती हुई अग्नि का मनुष्य ने आविष्कार किया और उसका सदुपयोग सीखा, उस दिन एक असाधारण युगान्तरकारी समय है। उस दिन के अपने आविष्कार पर मनुष्य फुला न समाया होगा। वास्तव में अग्नि को ढूँढ़ निकालना एक असाधारण क्रान्ति थी, साधारण पशु की अपेक्षा इसी आविष्कार ने मनुष्य को हजारों गुना ऊँचा उठा दिया। एक-एक करके धीरे-धीरे खेती करना, पशु पालना, कपड़े बनाना, हथियार चलाना, मकान बनाना, लिखना पढ़ना आदि अनेक आविष्कार हुए, हर एक आविष्कार ने पहले की अपेक्षा मानव जीवन की सुख सुविधाओं में वृद्धि की। यह क्रम अभी तक निरन्तर बढ़ता चला आ रहा है। सुख और समृद्धि का प्यासा मनुष्य नित नये साधनों और तत्वों की खोज करता चला आ रहा है। अनेक वैज्ञानिक आविष्कार हो चुके हैं एवं बड़ी तेजी से और नये-नये हो रहे हैं। इस गतिविधि का कभी अन्त न होगा। आदमी अपनी अधिक सुविधा के साधन अन्त तक ढूँढ़ता ही रहेगा और ढूँढ़ने वाले को कुछ न कुछ नया मिलता ही रहेगा। यह थोड़ा थोड़ा-कुछ कुछ इकट्ठा होते-होते इतना अधिक हो जायेगा जिसकी महत्ता आज कल्पना में भी नहीं आ सकती।

एक जमाना था जब मनुष्य का छोटा सा मस्तिष्क अधिक से अधिक सुविधाओं की इतनी ही कल्पना कर सकता था जो आज बहुत छोटी और थोड़ी मालूम पड़ती हैं। जब जल समूहों को पार करने के अच्छे साधन न थे तब इच्छा होती थी कि “पानी पर चल सकें।” पक्षियों को आकाश में उड़ता देखकर इच्छा होती थी “आकाश में उड़ सकें” घोड़े आदि जानवरों को द्रुतगति से भागता देखकर इच्छा होती थी कि “तीव्र गति से गमन कर सकें।” अपनी शक्तियों में न्यूनता देखकर उसने पूर्णता की बात सोची। आँखें थोड़ी ही दूर तक की चीज देख सकती थीं इसलिए इच्छा हुई- “दूर की चीजें देख सकें।” कान थोड़ी दूर की बात सुन सकते थे इसलिए इच्छा हुई “दूर की बातें सुन सकें।” और भी अनेक इच्छाएं थीं-चाहा जाता था, वरुण देवता प्रसन्न होकर जल की कमी न रहने दें। सूर्य देवता प्रसन्न होकर-मन माना प्रकाश दिया करें। वायु देवता-ऐसे वश में रहें कि जब चाहें तब चलकर उष्णता मिटा दिया करें। अग्नि देवता प्रसन्न होकर वर्षा में भी प्रकट हो जाया करें।

एक समय यह सब बातें कल्पना का विषय थीं। मनुष्य सोचता था कि यह सब वस्तुएं यदि मुझे मिल जायं तो मैं अत्यन्त सुखी होऊँगा। किन्तु आज करीब-करीब उन सभी इच्छाओं को मनुष्य ने अपने बुद्धिबल और बाहुबल की सहायता से पूर्ण कर लिया है। पानी के जहाज-अग्निवोट-बड़े से बड़े समुद्रों के ऊपर लाखों मन माल और हजारों यात्री लादे हुए निधड़क घूमते-फिरते हैं। हवाई जहाज में बैठकर आकाश में पक्षियों की तरह उड़ा जा सकता है। मोटर या रेल में बैठकर घोड़ों से कई गुना तेज चला जा सकता है। दूरबीन और टेलीविजन की सहायता से घर बैठे हजारों योजन के दृश्य आँखों से देखे जा सकते हैं। टेलीफोन और रेडियो के द्वारा पृथ्वी के एक कोने की बात दूसरे कोने पर बैठकर सुनी जा सकती है। नल आप के घर में दिन-रात जल की वर्षा करते हैं, खेतों में नहर लिए हुए वरुण देवता खड़े हैं। आज्ञा पाते ही बिजली का प्रकाश करने को सूर्यनारायण तैयार हैं। बटन दबाने की देर है कि वायुदेव चौकीदार की तरह पंखा करने में जुट जावेंगे। यहीं तक नहीं अग्निबाण, मोहनास्त्र, विद्युत बाण, ब्रह्मपाश, नागपाश, आदि शत्रु निवारण के महान हथियारों की सीमा को तोड़-फोड़कर आज के युद्ध अस्त्र अपने गजब के चमत्कार दिखा रहे हैं। बीस हजार वर्ष पुराने जमाने का कोई आदमी यदि आज के जमाने को देखने के लिए जीवित रहा होता तो निःसंदेह-मुक्तकंठ से उसे कहना पड़ता-यह सिद्धों का, यज्ञ गंधर्वों का युग है, यहाँ सिद्धियाँ हर एक मनुष्य के पैरों में लौटती-फिरती हैं। जो बातें हमारे जमाने के लोगों को स्वर्गलोक के देव लोगों का वैभव मालूम होती थीं वह मृत्युलोक के साधारण व्यक्तियों के चारों और बिखरी पड़ी हैं। इसी प्रकार आज के जमाने का मनुष्य यदि किसी प्रकार पाँच हजार वर्ष तक जीवित रह सके तो तब वह ऐसे ऐसे नये साधन देखेगा जिन्हें देखकर उसके आश्चर्य की सीमा न रहेगी। तब वह आदमी कहेगा आज मैं ऐसी-ऐसी सिद्धियाँ लोगों के पैरों में पड़ी हुई देखता हूँ जो सन् 1945 ई. के लोगों को स्वप्न में भी प्राप्त न थी, कोई इनकी कल्पना भी न कर सकता था।

अभी बहुत सी कल्पनाएं-इच्छाएं और भी बाकी हैं। जैसे अदृश्य हो जाना, अमर हो जाना, छोटा हो जाना, बड़ा हो जाना, शरीर बदल लेना आदि आदि। विज्ञान ने शारीरिक आविष्कारों में अभी उतनी प्रगति नहीं की है जितना कि भौतिक आविष्कारों की दशा में। फिर भी बन्दर की गिल्टियाँ लगाकर बूढ़े को जवान बना देना, नौ जवानों के खून के इन्जेक्शन लगाकर फिर तरुणाई ला देना, मनुष्यों की तरह बातचीत और काम करने वाले मशीनों के आदमी बना लेना, हड्डी, टूट जाने पर वहाँ जानवरों की हड्डी फिट कर देना, आदि प्रगतियाँ धीरे-धीरे हो रही हैं। कौन जानता है कि दस पाँच हजार वर्ष पीछे अणिमा महिमा लघिमा आदि सिद्धियाँ उस जमाने के आविष्कारों के सामने वैसी ही तुच्छ न मालूम पड़ने लगेंगी जैसी कि आज पानी पर चलना और तेज दौड़ना आदि निरर्थक मालूम पड़ती हैं।

पुरानी पुस्तकों में नाना प्रकार की सिद्धियों का वास्तविक, काल्पनिक, रोचक अलंकारिक और आकर्षक वर्णन लिखे हुए मिलते हैं। इस उल्लेख का एकमात्र हेतु यह है कि मनुष्य अधिकतम सुख सुविधाओं की आकाँक्षा करें और उनकी प्राप्ति के प्रयत्न में जुट रहें। तत्वदर्शी आचार्य जानते हैं कि जीव का व्यक्तिगत और सामूहिक लाभ इसी में है कि वह उन्नति के पथ पर तीव्रगति से जुटा रहे। सृष्टि के आदि में देवता और राक्षसों ने मिलकर समुद्र का खारी और निरर्थक जल मथ डाला था फलस्वरूप उन्हें चौदह अमूल्य रत्न तो उसी समय मिल गये थे। तब से अब तक असंख्य मनुष्य समुद्र के गर्भ में से सम्पत्तियों से महा भण्डार ढूँढ़ते और निकालते रहें हैं। ढूँढ़ने वालों का पौरुष थक जायगा पर समुद्र की रत्न राशि न घटेगी, यह एक शाश्वत सत्य है कि ‘मंथन से रत्न राशि मिलती थी।’ बुद्धि का मंथन कीजिए- विद्या पढ़िए, शरीर का मंथन कीजिए-पहलवानी करिए, आत्मा का मंथन कीजिए योग साधिए, संसार का मंथन कीजिए-महत्व पूर्ण कार्यों का सम्पादन करिए, जिधर भी पग बढ़ाइए, जिधर भी मंथन कीजिए रत्नों की राशि मिलेगी। इस संसार में दृश्य और अदृश्य अनेकों समुद्र हैं, आप जिसका भी मंथन करेंगे, जिस दिशा में प्रगति करेंगे उसी दिशा में सफलताओं का, सिद्धियों का समूह प्राप्त होगा।

हमारे यहाँ मथुरा से छः मील दूर वृन्दावन में एक “पुराना गोविंदा” नाम का मन्दिर है। इसकी इमारत बड़ी आलीशान है- कहते हैं कि उसे रातोंरात किसी भूत ने बना दिया था। इसके पड़ोस में ही रंगजी का मन्दिर है। यह सेठ लखमीचन्दजी का बनवाया हुआ है। जयपुर वाला मन्दिर भी पास ही है। यह दोनों मंदिर भी अपने ढंग के अनोखे हैं और इनके अन्दर भी ऐसी विशेषताएं हैं जिनके कारण वह भी उस भूतों के बने मन्दिर से कम नहीं ठहरते। भूत, देव, दानव और यक्ष राक्षसों की शक्तियों को बड़ा महत्व दिया जाता है परन्तु सच पूछा जाय तो मनुष्य स्वयं इन सब से ऊपर है। मनुष्य ने भक्त बनकर भगवान को वश में कर लिया है, तपस्या करके देवताओं को अपने काबू में कर लिया है, पुरुषार्थ और बुद्धि कौशल से सृष्टि की समस्त जड़ चेतनाशक्ति पर अपना अधिकार कर लिया है। इस लोक में जैसे देवताओं की शक्तियों से प्रशंसा की जाती है, कौन जानता है कि बेचारे देवता इस सर्वग्राही मानव प्राणी की क्रिया शक्ति देखकर दाँतों तले उँगली दबाये न बैठे होंगे।

मनुष्य स्वयं शक्ति सम्पन्न तेज पुँज, महानताओं का भण्डार और सिद्धियों का समूह है। इसकी नस-नस में सिद्धियाँ और बोटी-बोटी में ऋद्धियाँ समाई पड़ी हैं। जब तक यह सोया हुआ, आलसी और अचैतन्य पड़ा है तब तक यह दीन, दरिद्री, भाग्य का मारा, ग्रहों का सताया है, जब वह जागृत होकर अपनी शक्तियों का निरीक्षण करता हुआ अपना गौरव अनुभव करता है और अपने पुरुष नाम को सार्थक करता हुआ पुरुषार्थ करने पर खड़ा होता है तो एक से एक बड़ी सिद्धि, एक से एक महान सम्पदा, उसके चरणों में लौटती है। भगवान् ने पातंजलि योग दर्शन में कहा है- “प्रतिभायाँ सर्व सिद्धि” अर्थात्- प्रतिभा से सब सिद्धियाँ मिलती हैं। सम्पूर्ण सिद्धियों की जननी प्रतिभा है। प्रतिभाशाली मनुष्य एक प्रकार का ‘सिद्ध पुरुष’ होता है वह जिस काम में हाथ डालता है उस काम में सफलता ही सफलता मिलती है। जब कोई मनुष्य अपनी महानता का अनुभव करता हुआ आत्म विश्वास और दृढ़ता के साथ किसी कार्य को पूरा करने में जुट पड़ता है तो उसमें सफलता प्राप्त कर ही लेता है। संसार का इतिहास ऐसे महापुरुषों की गुण गाथाओं से भरा पड़ा है, जो आरंभ में छोटे थे, गरीब घर में जन्मे थे, कोई उनका सहायक न था, साधनों से वे सर्वथा हीन थे तो भी उन्होंने प्रयत्न किया, अपनी प्रतिभा के बल पर उन्नति की और अन्त में विजयी-वीर पुरुषों की श्रेणी में अपना नाम लिख कर बिदा हुए। क्या यह सफलताएं समृद्धियाँ-किसी ने कृपापूर्वक उन्हें उपहार में दी थी? नहीं-कदापि नहीं। जो कुछ पाया, जो कुछ कमाया उन्होंने अपनी प्रतिभा के बल से उपार्जित किया। प्रतिभा ही सर्व सिद्धियों की जननी है, पातंजलि का यह कथन मिथ्या नहीं है।

नाना प्रकार की सिद्धियों का वर्णन प्राचीन पुस्तकों में मिलता है। उन्हें पढ़कर आप ऐसा न समझें कि बस यही सिद्धियों की अन्तिम मर्यादा है। पानी पर चलना, हवा में उड़ना, दूर की बात सुनना, दूर तक देखना, तेज चलना, यह सब आकांक्षाएं मनुष्य ने अब बहुत अंशों में पूरी कर ली हैं, जो अंश शेष है उसकी पूर्ति भी निकट भविष्य में हो जानी सम्भव है। आकांक्षाएं नित नई पैदा होती हैं और कालान्तर में उनकी पूर्ति भी हो जाती है। इस प्रकार सिद्धियों की सीमा भी नई निर्धारित होती है। आप इस बाह्य रूप में मत उलझिए वरन् गहरे उतरिए और अनुभव कीजिए कि सिद्धियों का आकर्षण इस लिये बनाया गया है कि मनुष्य साधना में प्रवृत्त रहे। साधना स्वयं एक सिद्धि है। काम करने में, संघर्ष रत होने में, आगे बढ़ाने की तैयारी में, पुरुषार्थ में खुद एक आनंद है और वह आनन्द सफलता के उपभोग से अधिक है, कुछ खोदते हुए मनुष्य का अन्तःकरण जितना आशा, उत्साह, उल्लास और भविष्य की कल्पना में आनंद विभोर रहता है। कुआँ खुद जाने पर, उसका पानी प्रयोग में लाने पर उतना नहीं रहता। विवाह से पूर्व कितनी खुशी होती है परन्तु बीबी घर में आ जाने पर, बाल बच्चे हो जाने पर तो एक झमेला खड़ा हो जाता है। सफलता स्वयं अपनी आनन्द दायक नहीं है जितनी उसकी साधना। आज हवा में उड़ने वाले जहाजों का और तेज ले जाने वाले मोटरों का क्या महत्व है? कुछ नहीं, इसी प्रकार अन्य इच्छाएं जो आज लालायित किये हुए हैं पूर्ण हो जाने पर नीरस प्रतीत होगी। आनन्द साधना में है। विज्ञ पुरुषों ने सिद्धि पथ पर चलने के लिए हमें इसीलिए प्रेरित किया है कि निरंतर साधना में लगे रहे और उसका आनन्द निरन्तर चखते रहें। अमुक सीमा तक-अमुक सिद्ध तक-पहुँच जाने पर भी ठहरना न चाहिए वरन् निरन्तर आगे ही बढ़ते रहना चाहिए।

साधना का एकमात्र क्षेत्र है ‘आत्मोन्नति’। आप अपनी उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हूजिए, अपने को अधिक से अधिक उन्नतिशील बनाने में जुटे रहिये। आत्मोन्नति ही सिद्धि है, यही विश्व की सेवा और परमार्थ है। अपने आप को उन्नतिशील बनाकर एक ऐसा नमूना संसार के सामने पेश किया जा सकता है कि जिसके नकल करने के प्रयत्न मात्र में दूसरों का भला हो। जो महापुरुष इस संसार से चले गये हैं वे भी संसार की बहुत भारी सेवा अब तक कर रहे हैं, उनके चरित्र से असंख्य मनुष्यों को बल मिलता है और पथ प्रदर्शन होता है। अपनी भीतरी और बाहरी उन्नति से संतुष्ट नहीं होना चाहिए वरन् आगे ही बढ़ते चलना चाहिए। स्वास्थ्य, ज्ञान मैत्री, प्रतिष्ठा, सभ्यता, धन तथा साहस यह सातों वस्तुएं अधिक से अधिक मात्रा में उपार्जित करनी चाहिए और इनका उपयोग सत्कार्यों में लोकहित के परमार्थ के कामों में करना चाहिए। आत्मोन्नति की साधना का मार्ग ऐसा आनंदमय है कि उसे प्रत्यक्ष सिद्धि ही कहा जा सकता है।


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