दृश्यमान जगत वस्तुतः आणविक-रासायनिक जड़-पदार्थों से बना है। जीवधारियों की काया भी इन्हीं पंच तत्वों से बनी है। स्पष्ट है कि इस निर्जीव संरचना में ऐसा कुछ नहीं है जो चेतना को किसी प्रकार की भावनात्मक अनुभूति करा सके। अधिक से अधिक जड़ जगत की क्षमता इतनी ही मानी जा सकती है कि सर्दी-गर्मी जैसे प्रकृति प्रभावों की कायकलेवर को अनुकूल-प्रतिकूल प्रतिक्रिया की प्रतीति हो सके।
चेतना को जिस आनंद की आकाँक्षा रहती है-जिस प्रकार उल्लास और संतोष होता है, वह भावात्मक है। भव का उद्भव वस्तुओं से सम्भव नहीं। न उसे रासायनिक पदार्थों में पाया जा सकता है और न मल-मूत्र की गठरी किसी काया में वैसा कुछ होता है। चेतना को तृप्ति और तुष्टि देने वाली सरसता उसका अपना उत्पादन है। सुसंस्कृत अन्तःकरण एक प्रकार का कस्तूरी जैसा घटक है जो मृग को भी उत्साहित करता है और समीपवर्ती वातावरण में भी मादक सुगन्ध बखेरने का निमित्त रहता है।
परिष्कृत अन्तः चेतना मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। उसके कारण अनायास ही कण-कण में रस छलकता है और क्षण-क्षण में आनन्द और उल्लास भरी लहरों का उभार अनुभव होता है। परिष्कृत दृष्टि जहाँ भी पड़ती हैं वहीं सौंदर्य छलकने लगता है। आन्तरिक श्रेष्ठता का स्पर्श जिस भी जीवधारी के साथ होता है उसके श्रेष्ठ अंश को प्रतिध्वनित होने का अवसर मिलता है। परिष्कृत आत्मा जड़-जगत के दर्पण में आत्मीयता और शालीनता के रूप में सर्वत्र परमात्मा सत्ता की झाँकी करती है।