जीवन देवता की आराधना और सिद्ध उपलब्धि

August 1977

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जीवन को मूर्तिमान देवता कह सकते हैं। यही परमेश्वर का प्रतीक प्रतिनिधि है। ईश्वर उपासना के साथ जुड़े हुए क्रिया-कलापों का उद्देश्य जीवन देवता की आराधना करना और अधिपति अन्तरात्मा को प्रसन्न करके अभीष्ट वरदान प्राप्त करना ही है।

जीवन देवता की गरिमा का गुणगान अमृत, कल्पवृक्ष एवं पारस के रूप में किया गया है इस जीवन दव को सिद्ध कर लेने पर अन्तः करण में अमृतोपम शांति -मनः क्षेत्र में पारस के सहारे मिलने वाली संपूर्ण सफलताएँ निरन्तर मिलती रहती हैं।

उपासना समस्त क्रिया-कलाप, विध-विधान,इस उद्देश्य के लिए विनिर्मित हुए हैं कि उनमें निदिष्ट संकेतों का अनुसरण मनुष्य अपने व्यक्तित्व को अधिकाधिक पवित्र परिष्कृत बनाने चलें और उदारता की अभिवृद्धि के लिए लोक-मंगल के लिए बढ़े-चढ़े अनुदान प्रस्तुत करें। पात्रता के अनुरूप ही समाज का सम्मान सहयोग मिलता है। उसी के अनुरूप आत्म-सन्तोष एवं ईश्वरीय अनुग्रह का अनुदान उपलब्ध होता है। स्वर्ग परिष्कृत दृष्टिकोण का नाम है। वह जिसके पास भी होगा वह गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से धरती का देवता बनता चला जायगा और अपनी गरिमा से संपर्क क्षेत्र को प्रभावित करके स्वर्गीय वातावरण का सृजन करेगा। मुक्ति को अध्यात्म साधनाओं का चरम प्रतिफल बताया गया हैं। भव-बन्धनों से मुक्ति का तात्पर्य है-बहिरंग कल्मष और अन्तरंग कषायों से छुटकारा पाना। दूसरे शब्दों में इसे संकीर्ण स्वार्थपरता एवं निर्मम निष्ठुरता की लाभ-मोह की, हथकड़ी-बेड़ियों को काट डालना, कुत्साओं और कुँठाओं की, दुष्प्रवृत्तियों की जड़े उखाड़ फेंकना इसी को मुक्ति पुरुषार्थ की साधना कहते हैं। समाधि की चर्चा साधना की सफलता के रूप में होती रहती है। मूर्छित समाधि एक मनोवैज्ञानिक प्रयास है वह किसी-किसी के लिए ही सम्भव है। जागृत समाधि सर्व सुलभ हैं। समाधि का अर्थ है,, बौद्धिक और भावनात्मक प्रवाहों को सन्तुलित एवं विवेक युक्त बना लेना। सुसंस्कृत चिन्तन पद्धति हाथ लगने पर समस्याओं का स्वरूप और समाधान उपलब्ध हो जाता है। ऐसी दशा में जो गहरी आत्म तुष्टि और अनवरत प्रफुल्लता बनी रहती है; उसी का नाम समाधि है। आत्म स्वरूप का, आत्मिक गरिमा का अनुभव होने लगे तो शरीर और मन की स्थिति स्वामी की नहीं सेवक का बन जाती है। यही आत्म- साक्षात्कार है। आदर्शवादी उत्कृष्टता के रंग में हर घड़ी रगें रहना-अपने आपको आत्मीयता को- व्यापक उपलब्धियां आत्म-परिष्कार के अनुपात से मिलती चली जाती हैं।

आत्म-परिष्कार में जिसने जितनी सफलता पाई वह उसी स्तर का संत ऋषि, महामानव, देवता एवं अवतार कहा जाता है। सामान्य लोगों की स्थिति भूतल पर रहने वाले प्राणियों की मानी जाय तो इन परिष्कृत महामानवों को ब्रह्मलोक के निवासी कहा जायगा। यह अन्तर सचमुच आश्चर्यजनक एवं चमत्कारी है। लौकिक सफलताओं को समृद्धि कहते हैं किन्तु आत्मोत्कर्ष की अलौकिक उपलब्धियां विभूतियाँ एवं सिद्धियाँ कहलाती है। सिद्ध पुरुषों के चमत्कारी कर्तृत्व ही संसार भर के महामानवों को ऐतिहासिक श्रेय सम्मान प्रदान करते हैं। उनकी गति विधियाँ एवं सफलताएँ असाधारण होती है इसलिए उन्हें चमत्कारी भी कहा जाता है। यह चमत्कारी बाजीगरों को जादूगरी जैसे बाल-विनोद के लिए दिखाये जाने वाले कौतुक-कौतूहलों जैसे तो भव-बन्धनों में जकड़े हुए दीन-दयनीय जीवधारियों के लिए जो सम्भव नहीं था; वह उनसे सामान्य परिस्थितियों और स्वल्प साधनों से ही किस प्रकार आश्चर्यजनक से कर दिखाया। साधना से सिद्धि मिलने और सिद्धि के चमत्कारी होने की मान्यता का यही सुनिश्चित और ठोस आधार है।

उपासना पद्धति की तत्व विवेचना में जितनी गहराई तक उतर जाय यही तथ्य उभरता चलेगा कि यह समस्या विधि-विधान पशु प्रवृत्तियों से छुटकारा पाने और देव संस्कृति के अनुरूप सद्भावना, सज्जनता, सहृदयता विकसित करने के लिए ही इन प्रयोगों का आविर्भाव हुआ है। पवित्रीकरण,आचमन प्राणायाम, न्यास आदि की आरम्भिक उपासना विधियाँ स्पष्टतः गुण,कर्म, स्वभाव में घुसे हुए दोष-गुणों को उखाड़ने और सुसंस्कारी सत्प्रवृत्तियों को स्वभाव का अंग बना लेने की प्रेरणा देने के लिए ही विनिर्मित हुई। संकेतों को जो जिस सीमा तक व्यवहार में उतार सके समझना चाहिए कि उसकी साधना उसी सीमा तक सार्थक हो गई।

ईष्ट देव के विभिन्न नाम रूप, आयुष, किस निमित्त गढ़े गये इसकी गम्भीरता विवेचना करने पर भी यही निष्कर्ष निकलता है कि उन संकेतों के अनुरूप हमें अपने जीवन का ढाँचा खड़ा करना एवं स्वरूप गढ़ना है। राम, कृष्ण ,शिव , हनुमान आदि जो इष्ट चुना गया हो उन्हें साँचा मानकर अपने को तद्नुरूप ढालने को ही लक्ष्य बनाया जाता है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम, पूर्ण पुरुष कृष्ण, श्रेय समुच्चय शिव ,श्रेष्ठता के लिए समर्पित आत्म दानी हनुमान ,विवेक के प्रतीक गणेश, समर्थ संघ शक्ति दुर्गा,ज्ञान की देवी सरस्वती, सुरुचि सृजन और उत्पादन की अधिष्ठात्री लक्ष्मी, प्रकाश और वर्चस के देव सविता आदि आदि देवी-देवताओं को इष्ट मानने का महानता के अमुक ढाँचे में ढालना चाहते हैं। इष्ट निर्धारण किसी देवता को फुसलाना, उसकी पार्टी कम्पनी में भर्ती होना नहीं, वरन् यह है कि हम जीवन का अमुक लक्ष्य निश्चित करते हैं और उसकी प्रति के लिए उपयुक्त उपायों का प्राण-प्रण से प्रयत्न करेंगे। देव पूजा के उपचारों और विधि विधानों में आदर्शवादिता से अपनी आस्था को अधिकाधिक गहरी बनाते जाने का तथ्य सन्निहित होता है।

जीवन ईश्वर प्रदत्त बहुमूल्य उपहार है। इससे बड़ा अनुदान ईश्वर के भंडार में और कोई भी नहीं है। इसमें असीम सरसताएँ और दिव्य सम्भावनाएँ भरी पड़ी है। शरीर और मन की समताओं के सहारे उच्च स्तरीय समृद्धियाँ तथा सफलताएँ उपलब्ध हो सकती है। इन उपकरणों का यदि सही उपयोग आता हो तो इस संसार में ऐसा कुछ भी नहीं जिसे मनुष्य प्राप्त न कर सके रहस्यमय एवं अतीन्द्रिय शक्तियों का तो कहना ही क्या? वे प्रसुप्त स्थिति में बीज रूप से अविज्ञात शक्ति संस्थानों में छिपी रहती है, यदि उन्हें जगाया उभारा जा सके तो निश्चय ही इसका प्रतिफल ऐसा हो सकता है अतिमानव एवं देव मानव बन सकने की सम्भावनाएँ इसी काय-कलेवर में भरी पड़ी है। उनसे अनजान बनकर रहा जाय और इन रक्त भांडागार को उपेक्षित रखा जाय तो बात दूसरी है अन्यथा इस सत्ता को गढ़ा इस प्रकार गया है जिसमें सब कुछ चमत्कारी ही चमत्कारी भरा हुआ देखा पाया जा सकता है।

जीवन का आनन्द लेने के लिए कुछ थोड़े से ही सूत्र है। पर उन्हें जान लेने मात्र से काम नहीं चल सकता। वे अपना चमत्कार तभी दिखाते हैं जब व्यवहार में उतारा जाय और गुण, कर्म ,स्वभाव का अड्डा बना लिया जाय।

हम कर्म योगी बनें। कर्तव्य पालन को प्रधानता दें। शरीर को भगवान की अमानत समझें और श्रम एवं संयम के सहारे उसे प्रखर बनायें रहें। अच्छे से अच्छे की आशा करें और बुरे से बुरे के लिए तैयार रहें। अपनी प्रसन्नता कर्तव्य पालन के केन्द्र से जुड़ी रखें मालिक किसी के न बनें। माली की तरह अपने संपर्क क्षेत्र के हर पदार्थ, प्राणी और सम्बन्धी को परिष्कृत करने भर का दृष्टिकोण रखें। उपयोग की आतुरता का खतरा समझें। साधनों और प्रयास करते रहें। ऐसा कुछ न करें जिस पर पीछे पश्चाताप करना पड़े। आत्मा धिक्कारे और बाहर से तिरस्कार बरसे। लोभ का आकर्षण-सम्बन्धियों का आग्रह तथा जोखिम का भय इन तीनों का सामना करने का साहस जुटा सकने वाला ही सच्चा शूरवीर है। कर्मयोगी उच्चकोटि के योद्धा होते हैं। जीवन संग्राम में अवाँछनीयता के शत्रुओं से पग पग पर जूझना पड़ता है। ईमानदारी, तत्परता और तन्मयता के साथ जब कर्म किया जाता है और उसकी उत्कृष्टता और समग्रता को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया जाता है, तो ऐसे ही सत्कर्म ईश्वर की श्रेष्ठतम उपासना एवं जीवन साधना के अति महत्वपूर्ण अंग बन जाते हैं। जीवन की सार्थकता का प्रथम सूत्र यह कर्मयोग ही है।

दूसरा सूत्र है-ज्ञान योग। ज्ञान का अर्थ जीविकोपार्जन एवं लोग व्यवहार में काम आने वाली कुशलता नहीं, वरन् वह दूरदर्शी विवेक बुद्धि है जो जीवन की भौतिक समस्याओं का समाधान करने और आत्मा को परम लक्ष्य तक पहुँचने का मार्ग बताती और उत्साह भरती है। खीज और असंतोष में कुकल्पनाओं और मनोविकारों में नष्ट होती रहने वाली विचार शक्ति को बचा सकना और उसे शालीनता भरे सृजनात्मक प्रयोजनों में लगाए रख सकना दूरदर्शी, विवेक बुद्धि के सहारे ही सम्भव होता है। अपनी उपलब्धियों को देखें-गुण-ग्राही बनें, दूसरे के उपकारों और सहयोग को स्मरण करें, तो वर्तमान स्थिति के प्रति जो असंतोष है वह देखते-देखते नष्ट हो जाएगा और लगेगा कि हम आनन्द दायक सुविधाओं से भरा-पूरा जीवन जी रहे हैं। मनःस्थिति ही परिस्थितियों की जननी है यह समझ लिया जाए तो परिस्थितियां अनुकूल बनाने के लिए जितना प्रयत्न किया जाता है उससे भी अधिक चेष्टा मनःक्षेत्र पर छाये हुए कुसंस्कारों और भ्रम जंजालों को निरस्त करने के लिए कदम बढ़ाना होगा। ज्ञानयोग ही भव-बन्धनों से, कुविचारों एवं कुसंस्कारों से छुटकारा पाने का एक मात्र उपाय है। ज्ञान से ही मुक्ति मिलने का सिद्धान्त अक्षरशः सही है। यदि इस तथ्य को हृदयंगम कर लिया जाए कि अपने उत्थान और पतन की, भाग्य एवं भविष्य निर्माण की कुँजी अपनी ही जेब में है तो फिर दूसरों को दोष देने या आसरा तकने की आवश्यकता न रहेगी। आत्मशोधन और आत्म-परिष्कार के लिए-आत्मबल और आत्म गौरव संवर्धन के लिए आकुशलता एवं साहसिकता उत्पन्न करने वाली प्रज्ञा ही गायत्री है। ज्ञानयोग के रूप में जागृत दूरदर्शिता एवं विवेकशीलता के सहारे ही आत्मिक प्रगति की योजना बनती है और सर्वतोमुखी प्रगति की दिशा में आगे बढ़ने की-समृद्धियों और विभूतियोँ से सुसम्पन्न बनाने की आकाँक्षा फलवती होती हैं।

जीवन की सार्थकता का तीसरा सूत्र है भक्तियोग। भक्ति अर्थात् ईश्वर विश्वास और ईश्वर प्रेम। सर्वविदित है कि ईश्वर की अनुकम्पा भक्त की सत्पात्रता के आधार पर बरसती है। चरित्रनिष्ठा और समाजनिष्ठा के सहारे सत्पात्रता निखरती है और उस निखार के अनुरूप ही ईश्वरीय विशेष करुणा का विशेष लाभ मिलता है। ईश्वर प्रेम का अर्थ है ईश्वरीय आदेशों का सच्चे मन से शिरोधार्य करना और आदर्शवादी गतिविधियों को जीवन में उतारना। ईश्वर विश्वास की वास्तविकता कर्मफल की सुनिश्चिता को विश्वासपूर्वक स्वीकार करना। सत्कर्मों और दुष्कर्मों का भला बुरा प्रतिफल आज नहीं तो कल मिल कर ही रहेगा। इस मान्यता को हृदयंगम करने वाला व्यक्ति सर्वव्यापी ईश्वर की दृष्टि से बचने का कोई स्थान नहीं देखता और दुष्कर्मों से आग, विष, सर्प, सिंह आदि घातक तत्वों की तरह ही बचता है।

ईश्वर प्रेम का व्यवहारिक रूप है-उसकी दुनिया से प्रेम करना। प्रेम की यथार्थता प्रेम की अधिक से अधिक देने के रूप से प्रकट होती है। विश्व उद्यान को सुरम्य बनाने का समस्त क्रिया-कलाप ईश्वर पूजा का प्रत्यक्ष रूप है। इस पवित्रता एवं उदारता की सत्पात्रता को जगाने के लिए ही तो उपासना प्रक्रिया का सुविस्तृत आधार खड़ा किया है। श्रद्धा का तात्पर्य है-श्रेष्ठता से असीम प्यार। भक्ति कहते हैं-करुणा, उदारता एवं सेवा को। श्रद्धा और भक्ति की इन्हीं सत्प्रवृत्तियों के सहारे आत्म-चेतना में ईश्वर का अवतरण होता है। भगवान दो उद्देश्य लेकर अवतरित होते हैं। एक धर्म का संस्थापन साधुता का अभिवर्धन। दूसरा अधर्म का विनाश अनीति का उन्मूलन। ईश्वर भक्त में यह दोनों की प्रवृत्तियाँ दिन-दिन प्रचंड होती चली जाती हैं। उसकी अन्तःचेतना, क्रिया-पद्धति एवं साधन सामग्री इन्हीं दो प्रयोजनों में संलग्न रहती है। उपासना का बीज सद्भावना-सम्वेदना, सहानुभूति, सहिष्णुता जैसी कोमलताओं से अन्तःकरण को निरन्तर दैवी सरसता से ओत-प्रोत किए रहता है।

ईश्वरमय जीवन-सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों से भरा पूरा जीवन यही है-दिव्य जीवन या देव जीवन। ऐसा व्यक्ति नाभि में बसी कस्तूरी की गन्ध से उल्लसित रहने वाले कस्तूरी मृग की तरह प्रसन्न रहते, प्रसन्न करते, हँसते-हँसाते, खिलते-खिलाते आनंद भरा हलका-फुल्का जीवन जीता है। पुष्प की तरह श्रेय और सम्मान पाता है। सज्जन के ऊपर सम्मान और सहयोग की अजस्र वर्षा होती है।

अन्य किसी देवता की साधना के प्रतिफल के बारे में सन्देह भी किया जा सकता है पर जीवन देवता की आराधना, साधना करने वाला भौतिक समृद्धियों और आत्मिक विभूतियों से भरता ही चला जाता है। उसे स्वर्ग खोजने की आवश्यकता नहीं पड़ती उसके इर्द-गिर्द ही स्वर्गीय वातावरण बनता है। विश्व की सुख शान्ति और मानवी भविष्य के उज्ज्वल होने की सम्भावना ऐसे ही दिव्य वातावरण के साथ जुड़ी हुई हैं जो जीवन साधना के आधार पर विनिर्मित एवं अवतरित होता है।


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