हमारे भोजन में जीवनतत्व अवश्य हो!

August 1977

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

जीवों जीवस्य जीवनम् इस उक्ति का अर्थ यह है कि जीव का जीवन सजीव आहार पर ही टिका रह सकता है। जीवन तत्व से भरपूर भोजन ही हमें जीवनी शक्ति देता है। जिस आहार का जीवन तत्व नष्ट हो गया हो, वह कितना भी महंगा क्यों न हो, जीवनी शक्ति की वृद्धि नहीं कर सकता।

मनुष्य के शारीरिक और मानसिक कष्टों में से आधे का कारण भोजन सम्बन्धी अज्ञान और असंयम है। अधिकांश लोगों ने भोजन का मुख्य सम्बन्ध स्वाद से जोड़ रखा है। फिर यह स्वाद प्रियता भी स्वाभाविक नहीं रहने दी जाती। बाल्यावस्था से ही जीभ की सहज सामर्थ्य को निरन्तर विकृत किया जाता है। छोटा बच्चा तनिक सी मिर्च का जिह्वा से स्पर्श होते ही तिलमिला उठता है, चीखने चिल्लाने लगता है, परन्तु धीरे धीरे बड़ों के अनुकरण में वह भी इस पीड़ा को अपने आवश्यकता बना बैठता है। यदि जीभ की प्रकृत शक्ति को विकृत न किया जाये, तो वह अपने उपयुक्त भोजन को पहचानने में समर्थ हो सकती है। पशुओं में यह शक्ति सुरक्षित रहती है ओर वे अखाद्य नहीं खाते। पालतू पशुओं को तो मनुष्य ने अपनी ही तरह कृत्रिम बनाने की हर प्रकार की कोशिशें की है। किन्तु प्रकृति के अंचल में स्वतन्त्र विचरण करने वाले जीव बाहरी आघातों से ही आहत पीड़ित होते हैं, खान पान की किसी गड़बड़ी से वे कभी भी अस्वस्थ नहीं देखे जाते। इसका कारण उनकी स्वादेन्द्रिय की सहज शक्ति बनी रहना ही है।

एक बार जीभ स्वाद की गुलाम हो गई, तो उसकी शक्ति में ह्रास ही होता जाता है। तब लोग उसी स्वाद की आकाँक्षा को तृप्त करने के लिये खाते हैं। जो पदार्थ घी, तेल, मिर्च, मसाले से भरपूर हो, जिनको देखते ही मुंह में लार भर भर आये, वही भोजन उत्तम मान लिया जाता है। इसके दूसरे सिरे पर ऐसे लोग होते हैं। जो मानते हैं कि भोजन का अर्थ पेट के खालीपन को भरना ही तो है। जब जो कुछ जैसा भी मिल जाये, पेट में डाल लो ताकि उसकी आग शान्त हो जाये।

दोनों ही दृष्टिकोण डान्त एवं हानिकर हैं। चटोरे लोग मिर्च-मसाले, शक्कर-गुड़, धी-तेल की भरमार से भोजन को भारी, दुष्पाच्य बना डालते ओर अपच की शिकायत करने घूमते हैं तो भोजन के प्रति उपेक्षा भाव रखने वाले अपीष्टिक पदार्थों के प्रयोग से शक्ति व स्फूर्ति गंवाते जाते हैं।

मनुष्य को कोई भी क्रिया बिना समझे बूझे नहीं करनी चाहिए। फिर भोजन तो एक महत्वपूर्ण क्रिया है। शरीर संचालन का वह आधार बनती है। वह अन यज्ञ ही है। यज्ञाग्नि में अशुद्ध, अनुपयुक्त, निषिद्ध आहुति देने से हानि की ही सम्भावना रहती है। उसी प्रकार जठराग्नि में अखाद्य, अयुक्त आहार का हवि देने पर स्वास्थ्य और शक्ति को क्षति पहुंचेंगे। अतः भोजन की क्रिया का महत्व समझकर भोज्य पदार्थों का चयन सतर्कता पूर्वक करना चाहिए।

वर्तमान युग में कब्ज एक सार्वजनिक रोग हो गया है। अनुमान है कि अन्य सभी रोगों की जितनी दवाइयाँ बिकती है, उससे आठ गुनी केवल कब्ज रोग की औषधियाँ बेची जाती है। इसका कारण यही है कि आँतों के स्नायु और उनसे लगी रक्तवाहनियां गरिष्ठ तथा भारी भोजन बार बार किये जाने पर उस बोझ को नहीं सम्भाल पाती और उनको कार्य शक्ति शिथिल होने लगती है। वे पाचन क्रिया ठीक से नहीं संपन्न कर पाती और कब्ज रहने लगता है। इसलिये आवश्यकता अधिक और महंगा खाने, घी तेल से भरपूर भोजन की नहीं, अपितु ऐसा भोजन करने की है, जिसमें जीवन तत्व विद्यमान हो। महंगा और भारी खाना जीवन तत्व से वंचित भी हो सकता है। यदि सफाई के प्रदर्शन के फेर में अन्नों के अधिकांश जीवन तत्व नष्ट किये जा चुके हो, शाक भाजी को डटकर खौलाया पकाया गया हो और मिर्च मसालों की जोरदार छौक मारी गई हो, तो उस भोजन के समय, श्रम ओर पैसा लगाने के बावजूद जीवन तत्व बहुत कम ही रह गये होंगे तथा उससे लाभ होने वाला नहीं उल्टे हानि ही होगी। अतः आवश्यक यह है कि भोजन को जीवंत रखा जाय। उसे मृत विकारग्रस्त, निष्क्रिय न बना डाला जाये।

जीवन तत्व प्रकृति के सान्निध्य में, सूर्य की किरणों के संपर्क में पनपते फैलते हैं। इसलिये आहार के प्राकृतिक स्वरूप को जितना सुरक्षित रखा जायेगा, उसमें जीवन तत्व उतने ही सुरक्षित रहे आयेंगे। यह सही है कि पाक क्रिया भी मानवीय भोजन का एक अनिवार्य अंग बन चुकी है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि पकाते समय भी इस तथ्य को ध्यान में रखा जाय कि आहार के प्राकृतिक स्वरूप को पूरी तरह नष्ट नहीं कर डालना है। साथ ही भोजन का एक अच्छा अंश कच्चे रूप में ही लेने की आदत डालनी चाहिए।

अन्न पाक क्रिया के उपरान्त ही ग्रहण किया जाता है। किन्तु थोड़ा अन्न नियमित रूप से कच्चे रूप में लेना चाहिए। इसके दो उपाय है- पहला जो अन्न दूधिया, हरे, कच्चे रूप में भी लिये जा सकते हैं। दूसरा सूखे अन्न को भी हरा, जीवन्त बना डाला जाये।

हरे, कच्चे अन्न में जीवन तत्व प्रचुरता से होता है। गांवों में लोग सदा गेहूं, जौ की बाले, मक्के ज्वार के भुट्टे चने आदि हरे रहने पर ही कच्चे या भूनकर खाते हैं। उनका स्वाद भी इस रूप में अलग ही होता है। ग्रामीण लोगों का स्वास्थ्य शहर की तुलना में अच्छा होता है। जिन्हें अतिशय गरीबी में जीना पड़ रहा है तथा बेकारी के कारण मजदूरी भी नहीं मिलती, वे ग्रामीण दलित जन तो अपोषण और भुखमरी की स्थिति में जीने को विवश हैं उनकी बात भिन्न है। किन्तु शहरी मध्यवर्ग के लोगों से ग्रामीण मध्यवर्गीय लोगों का स्वास्थ्य बहुत अच्छा होने का कारण आहार को प्राकृतिक रूप में ग्रहण करने का उनका यह अभ्यास ही है। इस हरे अन्न के साथ ही वे लोग भिगोया अन्न भी कच्चे रूप में नित्य ग्रहण करते हैं।

शहरों में भी फसल के समय गेहूँ की बाले, मक्का ज्वार के भुट्टे, हरे चने आदि बाजार में बिकने आते रहते हैं। उनका प्रयोग किया जाना चाहिए। सूखे अन्न को यदि एक दिन भिगोकर रख दिया जाय और दूसरे दिन एक पोटली में गीले कपड़े से बांधकर उस पर पानी के छींटे मारते रहा जाये ताकि वह सूखे नहीं, तो तीसरे या चौथे दिन वह अंकुरित हो जाता है। तब उसमें भी हरे अन्न का ही गुण आ जाता है। उबालकर खाये जाने की तुलना में अधिक लाभकारी होते हैं। चावल को धान की भूसी या खोल से अलग करने पर वह जिस रूप में उपलब्ध होता है, उसमें एक साल परत रहती है। उस परत को हटाकर फिर पालिश कर जो चमचमाता चावल बाजार में बिकता है, उसके पोषक तत्व नष्ट हो चुके होते हैं।

अन्न के दो वर्ग किये जा सकते हैं। एक पौष्टिक वर्ग के अन्न, दूसरे अल्प पौष्टिक तत्व वाले अन्न। गेहूं, चावल, चना, जो, बाजरा पौष्टिक अन्न हैं। ज्वार, मक्का आदि में पौष्टिकता अपेक्षाकृत कम होता है।

दालों, अनाजों, फलों और सागों के बारे में एक तथ्य सदा ध्यान में रखना चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो, इन्हें छिलके समेत खाएं। कोदों या धान जैसे अन्न के बाहरी छिलके तो खाये नहीं जा सकते, इनमें भूसी हटाने के बाद जो अन्न निकलता है, उसका छिलका नहीं हटाना चाहिए। छिलके समेत खाने का कारण यह है कि छिलके सूर्य किरणों के अधिक स्पर्श में रहते है, अतः उनमें जीवनी शक्ति अधिक होती है। दालें सदैव छिलकों समेत खानी चाहिए। अभी सफाई के नाम पर अरहर, चना, मूंग, उड़द, आदि की दालों के छिलके अलग कर उन्हें साफ रूप में खाया जाता है। इस प्रक्रिया में छिलके के साथ ही बहुमूल्य पोषक तत्व भी साफ हो चुका होता है। दालें साबुत खाने की आदत डाल ली जाये, उन्हें दलकर दो दालों में विभक्त न किया जाये, तो यह अधिक उपयोगी होता है। जहाँ दालों के दोनों दल मिलते हैं, वहाँ बीच में एक अंकुर सा ऊपर उठा रहता है, जिसे बीज की नाक भी कहते हैं। यह छोटा सा अंश यद्यपि कसैला होता है, पर उसमें अत्यधिक उपयोगी तत्व होते हैं। यदि घुन पूरे दाने को भी खा ले किन्तु इस नाक को न खाये, तो खेत में वह बीज बोये जाने पर अंकुरित होकर फूलता फलता है। किन्तु यदि पूरा दाना साबुत रहा आये और नाक, घुन खा जाये, तो फिर वह अंकुरित नहीं हो सकता। इसी से स्पष्ट है कि उसमें ही जीवन्त शक्ति होती है। दूसरे अन्न की भी यही स्थिति है। पर गेहूँ आदि की रोटी बनानी होती है और दाल चावल व रोटी दोनों के साथ खाई जाती है, अतः दाल को यदि साबुत खाने का अभ्यास हो जाये तो पके भोजन के रूप में भी वह उतनी ही उपयोगी बनी रहती है।

हरी शाक सब्जी भी अपने प्राकृतिक रूप में खाने पर ही लाभकारी होती है। कच्ची न खायी जा सके, या कच्ची खाने का अभ्यास नहीं हो, तो भी धीमी आँच में पकाकर खाई जाय। तेल, घी, मिर्च मसाले की अधिकता से उनके गुण नष्ट हो जाते हैं। शाकों में जमीकन्द या सूरन, रतालू और कटहल जैसे दो चार ही ऐसे वर्ग में आते हैं, जिन्हें अधिक पकाना आवश्यक होता है और जिनमें जीवन तत्व भी कम होते हैं। शेष को सदा कम पकाना चाहिए। हरा साग जहाँ जो जब उपलब्ध हो उसका प्रयोग अवश्य करना चाहिए। लौकी, बन्दगोभी, फूलगोभी, भिंडी, बैंगन आदि सबको कम ही उबालना चाहिए। कई शाक तो कच्चे ही खाये जा सकते हैं और उनमें पोषक तत्व प्रचुरता से पाये जाते हैं।

टमाटर, गाजर ,मूली, चुकन्दर, खीरा ,ककड़ी आदि को कच्चा ही खाया जा सकता है। स्वाद के लिये साथ में नमक, जीरा, काली मिर्च का पुट दे सकते हैं। जिन्हें प्याज खाने में आपत्ति न हो, वे प्याज को शाक रूप में नहीं, कच्चे रूप में ही खाये, तो अधिक लाभ होगा। प्याज,टमाटर, गाजर, लौकी, मूली, ककड़ी, आदि के छोटे छोटे टुकड़े कर सलाद बना ली जाती है। उसमें धनिया, नमक, नीबू अदरक सबको मिला देने से यह स्वादिष्ट भी हो जाती है। और जीवन तत्वों से भी भरपूर होती है।

प्राकृतिक आहार की दृष्टि से फलों का अपना विशेष स्थान है। केला, आम, पपीता, नीबू, अमरूद, बेल आदि ऋतु फलों को मौसम में अवश्य खाना चाहिए, क्योंकि इनमें जीवन तत्व होते हैं।

भाजी कोमल होती है। इन्हें अधिक पकाने से इनका कचूमर ही निकल जाता है अतः धीमी आंच में थोड़ी देर ही पकाये। छोंक बधार की अधिकता न की जाये। भाजी को तेजी से रगड़कर धोना भी नहीं चाहिए। अपितु पानी में हलके हाथ से धोकर साफ कर लेना चाहिए। भाजी और तरकारी को सदा काटने से पहले धो लिया जाय। काटकर फिर धोने पर जीवन तत्व क्षरित हो जाते हैं। हाँ यह सदा देख लिया जाये कि उनमें कही कोई कीड़े आदि तो नहीं है। शाक सब्जी तथा फलों के साथ भी यह सतर्कता बरतनी चाहिए।

दूध को बहुत अधिक उबालने से उसके भी जीवन तत्व नष्ट हो जाते हैं। अतः उसे भी एक या दो उफान तक ही उबालना चाहिए। धारोष्ण दूध में जीवन तत्व अधिक रहते हैं।

इस प्रकार यह सदा ध्यान में रखा जाना चाहिये कि हमारा भोजन जीवन्त हो। मृत और व्यर्थ न हो। मैदा, सूजी आदि अन्न का कचूमर निकाल डालने की ही स्थितियाँ हैं। फिर उनकी डबल रोटी, पूरी, पकवान बनाना तो उन्हें और कमजोर व हानिकर बना डालता है। यही बात मशीन से पिसे गेहूं के आटे का चोकर छान डालने और चावल की लाल परत हटाकर पालिश कर देने के बारे में है। चावल को रगड़ रगड़कर धोना और फिर माड़ भी निकाल देना, दालों को मसालों और बघार से भून तल कर गरिष्ठ बना देना ये सभी जीवन तत्व को नष्ट कर डालने के उपक्रम है।

खाद्य पदार्थों में शक्ति, लावण्य, स्निग्धता और प्राण उनमें निहित जल तत्व होता है। यह जल, पेड़, अपनी जड़ा के द्वारा धरती के गर्भ से चूसते हैं और फिर फल की कोशिकाओं तक पहुँचाते हैं। अतः इस जल तत्व को जितना सुरक्षित रखा जा सके, खाद्य पदार्थ उतने ही प्राणवान रहते हैं। जिस पदार्थ के जल तत्व को पका सुखा कर जितना कम कर दिया जायेगा, उसका जीवन तत्व उसी अनुपात में कम हो जायेगा। तलने से या चिकनाई से भर देने से तो पदार्थों की कोशिकाओं का जल तत्व से सम्बन्ध ही विच्छिन्न हो जाता है और वे निष्प्राण से हो जाते हैं। इन्हें खाने पर पेट में विष विकार ही तो बढ़ेगा।

खाद्य पदार्थों को इस तरह जलाने भूनने, रूपांतरित कर डालने के सारे प्रयास मात्र इसलिये ही तो होते हैं कि वे स्वादिष्ट हो जायें और सरलता से खाये जा सके। किन्तु यदि भोजन इस तरह खाया गया कि दाँत और दाढ़ों को पर्याप्त परिश्रम न करना पढ़े तो उसमें पर्याप्त लार भी मिल न पायेगी ओर तब वह दुष्पाच्य हो जायेगा।

आखिर भोजन का ठीक से पचना तो आवश्यक ही है, तभी वह रस व शक्ति दे सकेगा, अन्यथा भोजन के ये चार उद्देश्य पूरे न हो सकेंगे:- (1) शरीर के टूटे ऊतकों की मरम्मत करना और उन्हें पोषण देना।

(2) शरीर की ऊष्मा बनाये रखना तथा जीवनी शक्ति व रोग प्रतिरोधक शक्ति को बनाये रखना।

(3) शरीर को विकसित करना और (4) कार्य की शक्ति देना।

भोजन के पदार्थों का चुनाव करते समय भोजन के इन कार्यों को ध्यान में रखा जाये, तो फिर यह स्पष्ट हो जायेगा कि इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए उसमें जीवन तत्व का बने रहना आवश्यक है। उन्हें सदा सुरक्षित रखना चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118