अपनों से अपनी बात

August 1977

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अखण्ड ज्योति के सदस्यों को हम मनोविनोद के लिए सुरुचिपूर्ण साहित्य पढ़ने वाले पाठक नहीं मानते वरन् उनकी अभिरुचि और आस्था के अनुरूप ऐसे परिष्कृत चेतना घटक मानते हैं। जो क्रमश उत्कृष्टता की दिशा में एक एक कदम बढ़ाते हुए निश्चित रूप से उच्च लक्ष्य तक पहुंच सकने में सफल होकर रहेंगे। यह मान्यता, इच्छित अनुकूलता की बात कल्पना नहीं है। इसके पीछे तथ्य ओर कारण है। अखण्ड ज्योति के नीरस समझे जाने वाले विषयोँ में आतुर उत्सुकता का रहना ऐसा प्रमाण है जिससे उनकी चेतना की विशिष्टता का अनुमान लगाया जा सकता है। फिर इस देव परिवार के गठन में उपयुक्त मणिमुक्तक चुनने और पिरोने को ऐसी सूक्ष्म प्रक्रिया काम कर रही है जिसे चालू शब्दों में युगान्तरीय चेतना के साथ नव निर्माण की विभिन्न धाराओं के परिपोषण में जो भूमिका निभा रहा है उसने सर्वत्र उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना को सुनिश्चित आश्वासन निसृत किया है।

जो हो चुका, होता रहा है उसकी तुलना में हमें प्रखरता की दिशा अनेक गुने प्रयास साहसपूर्वक करने होंगे। इनमें से सर्वप्रथम यह है-परिवार के प्रत्येक सदस्य को व्यक्तिगत रूप में सत श्रद्धा को हृदयंगम कराने वाले क्रिया कलापों में अधिक तत्परतापूर्वक जुटा दिया जाय। हमारे व्यक्तित्वों का स्तर जितना ऊंचा होगा उसी अनुपात से परिवार की शक्ति बढ़ेगी और तथ्य को पूरा कर सकने की सम्भावना बनेगी। इस दृष्टि से न्यूनतम कार्यक्रम के रूप में चार आधार सत्संकल्प में आरम्भ से ही जुड़े हुए है। अब उन पर अधिक ध्यान दिये जाने और दार्शनिक शब्दों में महाकाल की उत्कृष्ट इच्छा एवं प्रबल प्रेरणा कहा जा सकता है। इस गठन में मानवी प्रयत्नों का जितना श्रेय है उससे अनेक गुना इस दिव्य चेतना का योगदान समझा जाना चाहिए। फिर इतने लम्बे समय से निरन्तर वह प्रकाश भी तो नियमित रूप से मिलता रहा है। जिसे कागज के पृष्ठों पर लिपटा हुआ नव जीवन का अनुदान कहा जा सकता है। अखण्ड ज्योति के पृष्ठो को छपा कागज या उपयोगी साहित्य भर समझना वस्तुस्थिति का अवमूल्यन करना होगा। किसी उच्चस्तरीय आदान प्रदान ऐसा है। जिससे सर्वतोमुखी उत्कृष्टता की अभिवृद्धि में सन्देह नहीं किया जा सकता है। प्रभाव सामने है। यह परिवार जिस प्रखरता और अधिक सतर्क कड़ाई बरते जाने का समय आ गया। छोटे बच्चों को शिष्टाचार पालन में ढील को हंसकर टाला जा सकता ह, पर बड़े होने पर तो मर्यादाओं का पालन आवश्यक हो जाता है। उनकी उच्छृंखलता उस तरह दर गुजर नहीं की जाती जैसी कि बच्चों की। अपनी परिवार अब 30 वर्ष का प्रौढ़ हो गया उसके सदस्यों को सदस्यता के साथ जुड़े हुए मौलिक कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों के निर्वाह में अधिक जागरुकता एवं तत्परता का परिचय देना होगा।

आत्म विकास के चार चरण माने जाते रहे हैं।

(1)साधना (2) स्वाध्याय (3) संयम (4) सेवा। इन चारों का आत्मिक प्रगति में वही स्थान है जो जीवनयापन में। (1) आहार (2) विश्राम (3) मल विसर्जन (4) श्रम उपार्जन का। इन चारों में से एक को भी छोड़ देने पर निर्वाह सम्भव नहीं हो सकता। इन सभी को समान महत्व देते हुए अपनाये रहना पड़ता है। आत्मिक पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए इन चारों ही साधनों को उसी प्रकार अपनाना पड़ता है जैसा कि कृषक या माली को (1) बीजारोपण (2) खाद (3) पानी (4) रखवाली के सभी पक्षों का समन्वय करते हुए अपनी कार्य पद्धति का निर्धारण करना पड़ता है। युग निर्माण परिवार के सदस्यों अखण्ड ज्योति परिजनों को इस चतुर्मुखी साधना क्रम की चतुर्भुजी भगवान का स्वरूप मानकर अपनाये रहना चाहिए। इस संदर्भ में अब तक जहाँ जो ढील पोल बरती जाती रही हो अब उसका तत्काल सुधार होना चाहिए और चिन्तन में इनकी उपयोगिता एवं कर्तृत्व में उनकी आवश्यकता को अनिवार्य स्तर का सोचा जाना चाहिए। हमारे दैनिक जीवन में इनके लिए नियमित स्थान रहना ही चाहिए भले ही वह आरम्भ में न्यूनतम स्तर का ही क्यों न बन पड़े? इस गुरु पूर्णिमा से अखण्ड ज्योति परिजनों को अपने में यह तत्परता उत्पन्न करने के लिए आग्रहपूर्वक कहा गया है।

इन चारों कार्यक्रमों की उपयोगिता एवं विधिव्यवस्था यों समय समय पर अखण्ड ज्योति में बताई जाती रही है। उन्हें ओर भी अच्छी तरह समझाने के लिए कुछ और अधिक सुसंबद्ध साहित्य छपने दे दिया है। सत्रों में -व्यक्तिगत परामर्शों में भी उन्हें अपनाने की रूप रेखा बताई जाती है। इन पंक्तियों में तो इन चारों चरणों के सम्बन्ध में संक्षिप्त जानकारी इस प्रकार नोट करनी चाहिए।

(1) साधना

साधना के दो पक्ष है-एक उपासना दूसरा जीवन साधना।

उपासना का तात्पर्य है नित्य ईश्वर आराधना के लिए कुछ समय सुनिश्चित रूप में निर्धारित रखना। भले ही वह 10 मिनट जितना न्यूनतम ही क्यों न हो? इस आधार पर आस्तिकता की आस्था अन्तःकरण में परिपक्व होतीं है। ओर उस आधार पर ईश्वरीय अनुशासन में चलने का अभ्यास बनता है। उत्कृष्टता की प्रतिमा ही ईश्वर है। उसकी असीम शक्ति पर विश्वास करने की आस्तिकता कहते हैं। उसके साथ अधिकाधिक घनिष्ठता स्थापित करने की भक्ति भावना जब अंकुरित , विकसित परिपुष्ट होती है तो स्वभावतः मनुष्य की आकाँक्षाएं विचारणाओँ की प्रवृत्तियाँ उच्चस्तरीय बनती है। हम अपने घटियापन के कारण ईश्वर को भी पूजा के प्रलोभन में पक्षपात करने और अव्यवस्था फैलाने वाला मान ले तो बात दूसरी है किन्तु यदि उसे न्यायकारी, समदर्शी , कर्म पारखी के स्तर पर बनाये रहे तो निश्चय ही भगवत् भक्ति के प्रति, क्रिया, चरित्र निष्ठा और समाज निष्ठा रूप में दृष्टिगोचर होनी चाहिए।

व्यक्ति निर्माण का भावनात्मक आधार सत श्रद्धा है। उसका अभ्यास ईश्वर भक्ति के सहारे जितनी सरलता एवं सुनिश्चितता के साथ संपन्न हो सकता है उतना और किसी प्रकार नहीं। मानवी भविष्य को उज्ज्वल बनाने की आधार शिला आस्तिकता के सिद्धांतों पर ही रखी जा सकती है। आस्तिकता को दर्शन स्वभाव और व्यवहार में उतारने के लिए उपासना का अभ्यास करना पड़ता है। अस्तु उपासना को, वैयक्तिक रुचि का विषय रहने देने की बात को, आगे बढ़ना और उसे अनिवार्य नित्य कर्मों में सम्मिलित किया जाना चाहिए।

उपासना में भी यथा सम्भव एकरूपता लाई जानी चाहिए इससे विभेद की दीवारें गिरेंगी और सर्वजनीन सर्वतोमुखी एकता की दशा में बढ़ चलना सम्भव होगा। कहना न होगा कि गायत्री मन्त्र भारतीय मूल के समस्त संप्रदाओं को मान्य रहा है। यदि उसका स्वरूप और महत्व समझाया जा सके तो उसे विश्व अध्यात्म के बीज मन्त्र का स्थान मिल सकता है। उसकी प्रेरणाओं को यदि जन मानस में उतारा जा सके तो ऐसी विचार पद्धति एवं आचार संहिता उभर कर आगे आवेगी जो मनुष्य में देवत्व और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का स्वप्न साकार कर सके।

गायत्री उपासना के साथ जुड़े हुए तत्वदर्शन और साधना विधान का उल्लेख समय समय पर किया जाता है। अखण्ड ज्योति वर्ष 76 के जनवरी अंक में उसकी विस्तृत विवेचना छपी है। गायत्री की उच्चस्तरीय साधना का दिग्दर्शन इन्हीं मार्च, अप्रैल, मई, जून के अंकों में बताया गया है। व्यक्ति विशेष रुचि एवं स्थिति के अनुरूप यह निर्धारण हो सकता है कि कौन किस प्रकार, कितनी उपासना करे, इसका निर्धारण तो व्यक्तिगत परामर्श से भी हो सकता है पर न्यूनतम पन्द्रह मिनट इस प्रयोजन के लिए निकल सकें इसके लिए प्रत्येक आत्मवादी को प्रयत्न करना चाहिए। मन्त्र, जप के साथ साथ गायत्री माता अथवा सविता पिता के साथ गहरी घनिष्ठता स्थापित करने की चेष्टा में यह समय लगना चाहिएं जिन्हें गायत्री से आपत्ति हो वे इच्छानुसार दूसरी उपासना विधि भी अपना सकते हैं। पर अच्छा यही है कि सार्वभौम अध्यात्म एकता को ध्यान में रखते हुए आग्रह छोड़कर इस केन्द्र बिन्दु पर एकत्रित होने का प्रयत्न किया जाय। जिनके पास अधिक समय है वे इस प्रयोजन के लिए अधिक समय लगाते रह सकते हैं। न्यूनतम पन्द्रह मिनट तो हम सभी लगाने लगे और आत्म निर्माण का एक महत्वपूर्ण आधार अपनाये, यही उचित है।

उपासना का दूसरा पक्ष है-जीवन साधना जीवन को सुव्यवस्थित , सुविकसित एवं सुसंस्कृत बनाने के लिए क्रमबद्ध योजना बनाना और उस पर दृढ़ निश्चय के साथ चलना ही साधना है। श्रम, समय, कौशल, मन, बुद्धि, धन, बल आदि का अपव्यय अथवा दुरुपयोग होते रहने से पश्चाताप, पीड़ा, पतन, दारिद्रय, सन्ताप जैसे अनेकानेक कष्ट सहने पड़ते है। दुर्गति और दुर्भाग्य जीवन सम्पदा के दुरुपयोग का ही दूसरा नाम है। दूरदर्शी सृजनात्मक प्रयासों के आधार पर हिंस्र पशुओं तक को उपयोगी एवं आज्ञानुवर्ती बना लिया जाता है। झाड़ियों की जगह उद्यान खड़े होते हैं ओर मिट्टी से सोना उगाया जाता है। जीवन सम्पदा का यदि कलात्मक उपयोग हो सके तो उसकी गरिमा और शोभा गगनचुम्बी बनती चली जाती है। अस्त व्यस्तता को अवगति और सुव्यवस्था को प्रगति कहते हैं। दोनों में से किसी को भी हम स्वेच्छापूर्वक चुन सकते हैं।

प्रातः। उठते ही जीवन के महत्व को समझते हुए उसके श्रेष्ठतम सदुपयोग की दिनचर्या बनाई जानी चाहिए। उसमें न केवलं समय का टाइम टेबल निर्धारित रहे वरन् श्रम, प्रतिभा, चिन्तन,प्रभाव और सभी विभूतियों के सदुपयोग का एक दिवसीय कार्यक्रम उसी समय निर्धारित किया जाय। इस निर्धारित में पेट और परिवार की ही पूर्ति पर केन्द्रित न रहा जाय वरन् आत्मिक एवं सामाजिक उच्चस्तरीय कर्तव्यों का पालन भी सम्मिलित रखा जाय। यह जीवन साधना की प्रात कालीन प्रक्रिया हुई।

प्रात के निर्धारण में आलस्य प्रमाद तो नहीं हो रहा है। सारे दिन अति सतर्कता पूर्वक देख भाल करते रहना। कुसंस्कारोँ की फिसलन से पग पग पर जूझना और उत्कृष्टता को , चिंतन तथा क्रिया कलाप में दृढ़ता पूर्वक समन्वित किये रहना यह जीवन साधना की मध्य कालीन प्रक्रिया है।

रात को सोते समय निद्रा को मृत्यु के समतुल्य मानना। दिन भर के कार्यों का लेखा जोखा लेना। शरीर, परिवार एवं साधनों को ईश्वर की अमानत समझ कर विदाई के समय उसे लौटाना। निश्चित और निस्पृह भाव से मन हलका करते हुए मृत्यु रूपी निद्रा की गोद में शान्ति पूर्वक शयन करना। साथ ही यह सोचना कि यदि प्रस्तुत धरोहरों को कल फिर सौंपा गया तो आज से भी अच्छा सदुपयोग करने का प्रयत्न करेंगे। इस प्रकार का चिन्तन जीवन साधना की रात्रिकालीन संध्या कही जा सकती है।

हर व्यक्ति की मन स्थिति एवं परिस्थिति भिन्न होती है। इसलिए सबके लिए एक कार्यक्रम जीवन साधना का नहीं बन सकता। उसके लिए भी निर्धारण प्रस्तुत समस्याओं ओर आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए ही करना पड़ता है। मात्र दिशा धारा ही सबके लिए एक सिद्धांत पर आधारित हो सकती है।

जीवन साधना के अनेक पक्ष समाधान और उपचार है उन सबका उल्लेख इन पंक्तियों में सम्भव नहीं। अखण्ड ज्योति के पृष्ठो से भी उस प्रसंग को आगे बढ़ाया जाता रहेगा। यहाँ तो इतना ही समझना होगा कि हम सबको व्यक्तित्व को परिष्कृत करने की तपश्चर्या में संलग्न होना चाहिए ओर जीवन लक्ष्य की पूर्ति में सर्वाधिक सहायता करने वाली उपासना एवं जीवन साधना के दोनों प्रयोजनों को अन्न जल की तरह आवश्यक मान कर चलना चाहिए।

(2) स्वाध्याय’-

नव निर्माण का अर्थ है-भावनात्मक परिष्कार। युग परिवर्तन का अर्थ है- जीवन व्यवस्था सम्बन्धी दृष्टिकोण का परिवर्तन। विचार क्रान्ति एवं ज्ञान यज्ञ का एक ही उद्देश्य है कि नैतिक, बौद्धिक एवं सामाजिक क्षेत्र में संव्याप्त अवांछनीयताओं को निरस्त करके उनके स्थान पर न्याय निष्ठा, विवेकशीलता एवं आदर्शवादिता की प्रतिष्ठापना की जाय। यह कार्य विकृतियों की हानि और सत्प्रवृत्तियों की सुखद सम्भावनाओं के प्रखर प्रतिपादन से ही सम्भव होगा। इसी प्रयोजन के लिए अपनी पत्रिकाएं छपती है। और युगान्तरीय चेतना उत्पन्न करने वाले साहित्य का सृजन होता है। इसका पढ़ना पढ़ाना सुनना सुनाना एक प्रकार से युग धर्म ही हो जाता है। बौद्धिक परिवर्तन के लिए यही सर्वोपरि महत्व का माध्यम है। इसलिए इस प्रेरक साहित्य का प्रकाश अन्त करण तक पहुंचाने को प्रभावशाली प्रक्रिया की तरह स्वाध्याय कर प्रवृत्ति को विकसित करने के लिए प्राणप्रण से प्रयत्न करने की आवश्यकता है। यह कार्य छुटपुट तो सर्वत्र होता रहता है। आवश्यकता इस बात की है कि उसे नियमित , व्यवस्थित बनाया जाय और अनिवार्य आवश्यकता में सम्मिलित रखा जाय।

यों सत्संग भी स्वाध्याय के अंतर्गत ही आता है। उत्कृष्टता की दिशा में प्रेरणा देने वाले और प्रगति का पथ प्रशस्त करने वाले परामर्श सत्संग की परिधि में आते हैं। सभा सम्मेलनों विचार गोष्ठियों कथा प्रवचनों से इस प्रयोजन की पूर्ति होती है। व्यक्तिगत प्रत्यक्ष परामर्श एवं पत्र व्यवहार के माध्यम से भी सत्संग का क्रम चलता रह सकता है।

बिना दूसरे की सहायता के अपनी त्रुटियों को समझना और उनके निष्कासन का उपाय सोचना मनन और सद्प्रवृत्तियों के संवर्धन का पथ प्रशस्त करना चिन्तन कहा जाता है। यह नित्य या दूसरे चौथे दिन एकान्त में बैठकर विवेक की साक्षी में संपन्न किया जाता रह सकता है।

सरसरी निगाह से कुछ भी पढ़ लेना एक बात है और स्वाध्याय की दृष्टि से उपयुक्त समाधान के सत्साहित्य का चयन और उसका अति गम्भीरतापूर्वक अध्ययन अवगाहन दूसरी। इसका चयन तक कठिन है। किसे, किस प्रयोजन के लिए क्या पढ़ना चाहिए। इसका निर्धारण चिकित्सा शास्त्र के अंतर्गत बताये जाने वाले उपचारों की तरह महत्वपूर्ण है। फिर यह एक नित्य की आवश्यकता और क्रमिक विकास के स्कूली अध्ययन की तरह सुसंबद्ध प्रक्रिया है। सत्साहित्य खरीदने के लिए बजट, स्वाध्यायशीलों का परस्पर साहित्य विनिमय, पुस्तकालयों की स्थापना, चल पुस्तकालय जैसे अनेक कार्य इसी स्वाध्याय परिधि में आते हैं। पढ़े हुए का अध्यवसाय भी पशुओं के घास खाने के उपरान्त जुगाली करने की तरह हैं। खाने का लाभ तभी है जब वह पचे। स्वाध्याय उसी का नाम है जो चिन्तन परिष्कार, गतिविधियों के मार्गदर्शन एवं व्यक्तित्व के उन्नयन में कारगर मदद करे। ऐसा स्वाध्याय भजन के समतुल्य तो होता ही है कईबार उससे भी अधिक कारगर एवं फलप्रद सिद्ध होता है। हममें से प्रत्येक को कर्तव्य निष्ठा की तरह ही स्वाध्याय शीलता को भी अपने व्यक्तित्व का अंग बनाकर चलने की सुनिश्चित योजना बनानी चाहिएं

3-संयम-

ईश्वर प्रदत्त एवं स्वउपार्जित उपलब्धियोँ को अवांछनीय अपव्यय से दुरुपयोग से बचाना और उस बचत को उच्च उद्देश्यों के लिए नियोजित रखना संयम है। समय, श्रम, चिन्तन, कौशल, प्रभाव, पद बल धन साधन आदि को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष सम्पदाएं कह सकते हैं। इनमें से अधिकांश को हम आलस्य प्रसाद में निरर्थक गंवाते हैं। शेष को दुर्व्यसनों और दुराचरणों में नष्ट करते हैं जिसे सदुपयोग कहा जा सके ऐसा तो प्रायः नहीं के बराबर ही बन पड़ता है। जीवन रस का अधिकतर भाग वासना, तृष्णा ,अहंता और उद्विग्नता की भट्ठियों में ही जलता और खाक होता रहता है। उसे उच्चस्तरीय रचनात्मक प्रयोजनों में कई विरले ही लगा पाते हैं जो लगाते हैं वे धन्य बन कर रहते हैं। सफल महामानवों में उन्हीं की गणना होती है। इस प्रकार का संयम बरतना विवेकवान सूक्ष्मदर्शी अध्यात्म मर्मज्ञों का ही काम है। इन दिनों संयम का प्रचलन ही नहीं रहा। जो बरतते हैं। मूर्ख समझे जाते हैं। सादा जीवन उच्च विचार का पाठ अध्यात्म की पाठशाला में पहले ही दिन पढ़ना पड़ता है। संयम के अनुरूप आत्म नियन्त्रण का अभ्यास करने का नाम ही तप तितीक्षा है। उपवास, मौन, ब्रह्मचर्य आदि का प्रयोग संयम की साधना के निमित्त ही किया जाता है। इनके सहारे प्रसुप्त आत्म शक्ति जगती हैं और ब्रह्मतेज की प्रखरता प्रकट होती है।

सप्ताह में एक दिन का उपहास या अस्वाद व्रत करने की हमें आदत डालनी चाहिए। उस दिन शारीरिक ही नहीं मानसिक ब्रह्मचर्य भी रखा जाय। उसी दिन सुविधा के समय दो घन्टे का मौन भी रखा जाय। मौन का समय आत्म चिन्तन में ही लगे। यह न्यूनतम आधार है जिसे संयम का अभ्यास करने के लिए हम सभी को अपनाये रहना चाहिए। विगत पापों के प्रायश्चित तथा आत्मबल बढ़ाने के लिए समय समय पर विशिष्ट तपश्चर्याओं का सिलसिला भी चलता रह सकता है। लोक जीवन में संयम के प्रति उत्साह उत्पन्न किया जाय। व्यक्ति तथा समाज के उज्ज्वल भविष्य की संरचना में इस संयम प्रवृत्ति के संवर्धन का आशातीत योगदान हो सकता है।

4-सेवा-

मनुष्य सामाजिक प्राणी है। उसके निर्वाह से लेकर सुविधा एवं प्रगति के सभी साधन दूसरों की सहायता से उपलब्ध होते हैं। पूर्वजों के अनुभवों का लाभ उठाने और उन्हें बढ़ाकर आगे वालों के लिए छोड़ने की उदार सहकारिता ने ही हमें आदिम काल के पिछड़ेपन से उबारा और सभ्यता के वर्तमान स्तर पर पहुंचाया है। अभी भी हमारे सारे कार्य इसी रीति नीति के सहारे चलते हैं। करुणा, उदारता, सेवा, पुण्य, परमार्थ की सत्प्रवृत्तियोँ को अपनाकर ही आत्म सन्तोष और श्रद्धासिक्त सम्मान पाया जा सकता है। सेवा ही मानवी गरिमा का चिन्ह है। कृपण, स्वार्थी , संग्रही ,विलासी , अनुदार व्यक्ति घिनौने एवं तुच्छ समझे जाते हैं। यही व्यक्तिवादी संकीर्णता अमर्यादित हो उठने पर मनुष्य को पापी और पिशाच बनाती देखी गई है। आत्म प्रताड़ना से लेकर समाज तिरस्कार तक , जेल से लेकर नरक तक , दण्ड प्रारब्ध से लेकर पतन धिक्कार तक न जाने कितने अभिशाप ऐसे लोगों पर बरसते रहते हैं। उदार सेवा साधना को जीवन का अंग बनाये बिना उसमें कुछ सरलता रह ही नहीं जाती।

सेवा के कई क्षेत्र है तथा-(1) सुविधा संवर्धन (2) पीड़ा निवारण (3) प्रगति प्रोत्साहन (4) सदाशयता अभिवर्धन इनमें क्रमश एक के बाद दूसरे का महत्व अधिकाधिक बढ़ता चला जाता है। साधु ओर ब्राह्मणों ने अन्त चेतना के उच्चस्तर को उभारा ओर संजोया यह बहुत बड़ा काम है। नर से नारायण और तुच्छ से महान बनने का अवसर इसी सत्प्रेरणा की पारस मणि के स्पर्श से उपलब्ध होता है। अपनी ज्ञान यज्ञ योजना इसी निमित्त है। उसे उच्चस्तरीय सेवा साधन कह सकते हैं। ज्ञान दान को ब्रह्मदान कहकर उसे सर्वोत्कृष्ट सेवा का मान दिया गया है। अपने परिवार में एक घण्टा समय ओर दस पैसा नित्य का अंशदान इसी निमित्त किया जाता है। इस अनुदान से अपने को, अपने परिवार को , अपने समीपवर्ती क्षेत्र को ओर प्रकारान्तर से समस्त विश्व को ऐसा प्रकाश प्रोत्साहन मिलता है जिसे ईश्वरीय अनुग्रह के समतुल्य कहने में तनिक भी अत्युक्ति नहीं मानी जा सकती।

सेवा धर्मं को जीवन क्रम का अनिच्छित अंग मान लेने से एक भव्य भवन का शिलान्यास हो जाता है आज की परिस्थितियों ओर आवश्यकताओँ को देखते हुए भावनात्मक नव निर्माण की धुरी पर घूमने वाली गतिविधियों को ही सर्वोपरि ठहराया जा सकता है। इसके लिए धर्म तन्त्र से लोक शिक्षण की योजना में युग धर्म के सभी तत्व समाविष्ट पाये जा सकते हैं। झोला पुस्तकालय का चलाना, संपर्क क्षेत्र में सत्साहित्य कार्यक्रम है। इसके अतिरिक्त भी हर व्यक्ति अपनी योग्यता रुचि, स्थिति एवं सामयिक आवश्यकताओं को देखते हुए विभिन्न प्रकार के सेवा कृत्यों का पुण्य परमार्थों का चयन कर सकता है।

अखण्ड ज्योति परिवार के सदस्यों की व्यक्ति और समाज की समग्र प्रगति के लिए हलके किन्तु अति महत्वपूर्ण उपरोक्त चार साधन अपनाने के लिए अनुरोध किया जाता रहा है। अब उसके साथ आग्रह स्तर का दबाव जोड़ दिया गया है। और कहा जा रहा है कि साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा इन धर्म के चार चरणों को अध्यात्म के चार आधारों को युग परिवर्तन के चार साधनों को अपनाने के लिए साहस जगाया जाना चाहिएं।प्रयत्न भले ही न्यूनतम हो- आरम्भ भले ही छोटा हो-पर उसे सिद्धांत रूप में स्वीकार करके प्रतीक प्रत्यक्ष की तरह-टोकन संकेत की तरह किसी न किसी तरह कार्य रूप में परिणत करने के लिए कुछ तो प्रारम्भ कर ही दिया जाना चाहिएं अपने परिवार का एक भी सभ्य ऐसा न हो जिसके ऊपर इन चारों से अपरिचित होने या उपेक्षा करने का दोष लगाया जा सके।

गत गुरुपूर्णिमा 1 जुलाई को यह निश्चय किया गया है कि परिजनों में इन चारों प्रवृत्तियों को अपनाने की उत्कृष्ट आकांक्षा उत्पन्न की जाय और उसे आत्मोत्कर्ष की दिशा में आवश्यक मार्ग दर्शन प्रदान किया जाय। शरीर में असंख्यों नस नाड़ियां होती है।, वे सभी हृदय के साथ जुड़ी रहती है। हृदय उन सब तक स्वच्छ रक्त पहुंचाता है। ओर उसकी मलीनताओं को बटोर की वापिस लाता है। पोषण और परिशोधन के दोनों ही प्रयत्न हृदय निरन्तर करता है। नस नाड़ियां के माध्यम से समस्त शरीर इसी रक्ताभिषरण प्रक्रिया के सहारे पोषण प्राप्त करता है। अपने अखण्ड ज्योति परिवार में भी यही परम्परा चल पड़े तो उससे नस नाड़ियां की तरह परिजनों को ही नहीं-समस्त विश्व में फैले हुए जीवकोशों को उस प्रवाह का समुचित लाभ मिल सकता है। व्यक्ति निर्माण और समाज निर्माण के युग निर्माण और विश्व निर्माण के समस्त सपने उसी प्रयास के सहारे पल्लवित और फलित हो सकते हैं।

कहने सुनने में कार्य छोटा सा दीखता और महत्वहीन सा लगता है। पर दीपक से दीपक जलाने वाली व्यवस्था बनेगी इसी प्रकार से कोटी कोटी मानवों तक नवयुग का प्रकाश पहुंचाने के लिए जागृत आत्माओं में से प्रत्येक को अपने अपने समीपवर्ती क्षेत्र में अपने को ही केन्द्र मान कर समर्थ धुरी की तरह गतिचक्र घुमाना आरम्भ कर देना चाहिए। इन दिनों की यही सबसे बड़ी सेवा है।

अखण्ड ज्योति के-उसके सूत्र संचालक तन्त्र के माध्यम से यदि कही कुछ श्रद्धा उभरी हो तो अब उसे सक्रियता के रूप में परिणित होना चाहिए और उस सक्रियता से प्रखरता की मात्रा निरन्तर बढ़नी चाहिए। सक्रियता के यह चारों ही चरण हमें उठाने चाहिए और साधना, स्वाध्याय, संयम सेवा की दृष्टि से कुछ न कुछ करते रहने के लिए आत्मोत्कर्ष की दिशा में अनवरत गति से बढ़ने के लिए , युग चुनौती को अंगीकार करने के लिए जीवन्त तत्परता का परिचय देना चाहिए। पुनर्गठन की बात ऐसे ही लोगों को प्रमुखता देने की दृष्टि से सामने आई है कि श्रद्धा को निष्क्रिय न रहने दिया जाय। उसे गतिशील तत्परता अपनाने के लिए बलपूर्वक आगे धकेल दिया जाय।

संगठन-

संगठन को अब दस दस की इकाइयों में बाटा जा रहा है। अखण्ड ज्योति एवं मिशन की अन्य पत्रिकाओं के सदस्य परिजन कहे जायेंगे। दस दस की टोलियाँ बनेगी। इन टोलियों को जीवन्त बनाये रहने का उत्तरदायित्व एक टोली नायक संभालेगा। टोली नायक केन्द्र के संदेशों को अपनी टीम के जीवन व्यवहार में उतारने के लिए हमारे स्थानीय प्रतिनिधि की भूमिका निभाएगा। वह इस बात के लिए प्रयत्नशील रहेगा हक टोली के सदस्य चारों आधारों को किस प्रकार अपनाते हैं व्यक्तिगत पूछताछ करते और परामर्श प्रोत्साहन देते रहने का कार्य उसी का है प्रगति की सूचना केंद्र को भिजवाते रहने और वहाँ के परामर्श को अपने संपर्क क्षेत्र में हृदयंगम कराने के लिए उसी की चेष्टाएं काम करेगी। टोली नायक को एक काम और भी करना है कि दसों सदस्यों की पत्रिकाओं को पाँच पाँच अन्य व्यक्ति भी पढ़ते रहें। दस पत्रिकाओं के पचास पाठक होने की चाहिए। मँगाने वालों के निजी परिवार वालों तथा संपर्क वालों को इस पठन का चस्का लगाया जाना चाहिए। इतनी सक्रियता तो हर परिजन को पाँच को पढ़ाकर ही चैन ले। यह न्यूनतम उत्तरदायित्व परिवार के हर सदस्य का है। टोली नायक इस कार्य में अपने साथियों की सक्रिय सहायता करेगा और नियमित पाठकों की संख्या पचास तक पहुँच जाने तक उस विस्तार का ताना बाना बुनता ही रहेगा। पचास पाठक-दस सदस्य-इस प्रकार 60 व्यक्तियों की मंडली का गठन टोली नायक के कन्धे पर लादा गया है ओर उसे पूरा कर दिखाने का अपनी प्रतिभा का परिचय देने के लिए कहा गया है।

सदस्यों के जन्म दिन मनाने की परम्परा चलती तो बहुत समय से रही है, पर अब उसे एक प्रकार से अनिवार्य किया जा रहा है। टोली नायक का कर्तव्य है अपने दसों साथियों के जन्म दिन उसके घरों पर एक छोटे अध्यात्म समारोह के रूप में मनाने की व्यवस्था जुटायें। सामूहिक गायत्री जप, हवन, सहगान कीर्तन, प्रवचन, अभिवादन, आशीर्वाद जैसे सरल कृत्यों के साथ जन्म दिन के धर्मानुष्ठान स्वल्प व्यय और स्वल्प समय में संपन्न हो जाते हैं। जिसका जन्म है वह इस प्रेरणा से शेष जीवन को अधिकाधिक परिष्कृत बनाने का प्रयास करेगा। उसके स्वजन सम्बन्धी इससे प्रेरणा ग्रहण करेंगे और जन्म दिन आयोजक के माध्यम से जीवन साधना का नवयुग का-प्रकाश उपस्थिति लोगों में फैलता चला जायगा। युग प्रकाश को प्रखर परिपक्व और सुविस्तृत बनाने की दृष्टि से जन्म दिन मनाने से बढ़कर सरल और प्रभावोत्पादक प्रयास दूसरा कोई हो ही नहीं सकता। अस्तु टोली नायक यह प्रयत्न करेंगे कि उनके दसों साथियों के जन्म दिन उत्साहपूर्वक वातावरण में संपन्न हों। इसकी व्यवस्था बनाने का ताना बाना उसी को बुनना पड़ेगा।

एक स्थान पर कितनी ही टोलियाँ और कितने ही टोली नायक हो सकते हैं। उन सबका सम्मिलित संगठन पहले की तरह शाखा के रूप में यथावत बना रहे।

शाखा को अन्य कार्यों के अतिरिक्त सदस्यों को सजग और सक्रिय बनाये रहने के लिए वर्ष में तीन आयोजन करने ही होंगे। 1 गुरुपूर्णिमा पर्व 2 वसन्त पर्व इनके मध्य प्रायः छह-छह महीने का अन्तर होता है। आयोजनों से उत्साह और सक्रियता की वृद्धि निश्चित है। इसलिए हर शाखा को अपने सभी सदस्यों को एकत्रित करके इन्हें भाव भरे वातावरण में मनाते रहने का प्रयास करना चाहिए।

एक बड़ा आयोजन वार्षिकोत्सव के रूप में किया जाना अब हर जीवन्त शाखा के लिए अनिवार्य कर दिया गया है। यह साधना सत्र के रूप में होगा। उसे संपन्न करने के लिए हमारा एक प्रति निधि पहुँचा करेगा। इस वर्ष यह आयोजन ढाई ढाई दिन के होगे। प्रातः साधना सत्र, मध्याह्न स्वजन संपर्क, रात्रि को प्रवचन। यह क्रम दो दिन तक चलेगा। तीसरे दिन प्रातः पाँच या नौ कुण्डों का गायत्री यज्ञ होगा। पूर्णाहुति के उपरान्त विसर्जन जुलूस निकलेगा और कार्य समाप्त हो जायगा।

अब हमारा हरिद्वार केन्द्र को छोड़कर अन्यत्र जाना नहीं होता। किन्तु सूक्ष्म शरीर से इन सभी वार्षिकोत्सवों में पहुँचते रहने का हम लोग प्रयत्न करेंगे। इसकी प्रत्यक्ष अनुभूति भी होती रहे; इसके लिए स्थूल परिचय देने के लिए ‘टेप रिकार्डर’ पहुँचायेगा और अगले दिन के लिए भेजे गये सन्देशों को प्रस्तुत करेगा। प्रातःकाल साधना सत्र दो घन्टे का होगा, उसमें एक घंटा शान्ति कुंज की भेजी प्रेरणाएं सुनने को मिलेगी और एक घन्टे प्रतिनिधि उन सन्देशों की व्याख्या अपने प्रवचन में करेगा। एक घन्टे के टेप में साधना सहकार और प्रेरणा उद्बोधन के दोनों ही तत्वों का समावेश रहेगा। यह टेप चार वर्गों में विभक्त रहेगा। प्रथम वर्ग में-(1) पाँच बार की ऊँकार की अन्तर्ध्वनि (2) चौबीस बार गायत्री मन्त्र की सस्वर वेद ध्वनि (3) तमसो मा ज्योतिर्गमय, असतो मा सद्गमय मृत्यो मा मृतगमय की पाँच पुनरावृत्तियाँ। यह तीनों ही उच्चारण हमारे होंगे और उन्हें उपस्थिति साधक मौन वाणी से साथ साथ बोलते हुए एकात्मता का अनुभव करेंगे। यह तीनों प्रयोग, साधकों के तीन शरीरों में दिव्य तत्वों की स्थापना और कुसंस्कारों के निष्कासन का उद्देश्य पूरा करेंगे। यह साधना हम सब एकत्व की अनुभूति के साथ संपन्न करेंगे। इसमें पन्द्रह मिनट लगेंगे।

द्वितीय वर्ग में-हमारा पन्द्रह मिनट का सन्देश उद्बोधन होगा। यह हर वर्ष नया बदल जाया करेगा।

तीसरे वर्ग में माता जी और उनकी देव कन्याएं संयुक्त रूप से ओऽम्भूः ओऽम् भुवः ओऽम् स्वः ओऽमः ओऽमः ओऽम् ओऽम् ओऽमः ओऽमः ओऽम् का ब्रह्म कीर्तन करेगी। साधक उसका मौन सहगान करेंगे। गायत्री महाशक्ति के प्राण तत्व सविता का दिव्य कीर्तन यन्मडंल दीप्ति की विशाल स्तोत्र के माध्यम से होगा। उसे भी माताजी और देव कन्याएं मिलकर संपन्न करेगी। यह दोनों ही वर्ग आधा घन्टे के होंगे। पन्द्रह मिनट ब्रह्म कीर्तन और पन्द्रह मिनट दिव्य कीर्तन इस प्रकार आधा घन्टे तक हमारे और आधे घन्टे माताजी तथा देवकन्याओं के साथ सहकीर्तन करने का अवसर सभी साधकों को मिलेगा। अन्य उद्बोधन प्रतिनिधि के मुख से सुनने को मिलेगा ही।

तीसरे प्रहर वार्षिकोत्सव के लिए भेजा गया प्रतिनिधि यथासम्भव सभी परिजनों के घरों का पर्यवेक्षण करने जायगा। विशेषतया पूजा स्थल का निरीक्षण और परिवार में चल रही उपासना प्रक्रिया के बारे में पूछताछ करेगा। उस परिवार की मनःस्थिति और परिस्थिति को जानने का प्रयत्न करेगा। इस प्रकार प्रतिनिधियों के माध्यम से हम सभी परिजनों की अंतरंग और बहिरंग स्थिति की ओर भी अधिक स्पष्ट रूप से जान सकेंगे। अवरोधों के निराकरण और सुविधाओं के संवर्धन में यदि यत्किंचित् योगदान सम्भव हो सका तो वह भी करेंगे।

रात्रि के सम्मेलन में दोनों दिन के लिए पन्द्रह पन्द्रह मिनट के टेप करा दिये गये है। जन साधारण को भी नवयुग का सन्देश योँ पहुँचता तो मिशन के साहित्य और प्रचारकों के माध्यम से ही है। पर सम्भवतः हमारे निज के उद्बोधन की प्रतिक्रिया कुछ और भी अच्छी है यह सोचकर स्वयं भी टेप के माध्यम से इन वार्षिकोत्सवों में उपस्थित रहने और अपने अनुरोध आग्रह से जन साधारण को अवगत कराने का यह नया तरीका ढूंढ़ निकाला गया है। टेप रिकार्डर और हमारे प्रतिनिधि की संयुक्त उपस्थिति से सम्भवतः उस आयोजन में हमारे, माताजी के और देवकन्याओँ के पहुँचने की आँशिक अनुभूति और प्रतिक्रिया उत्पन्न हो सकेगी। इस प्रकार यह वार्षिकोत्सवों के रूप में किये जाने वाले साधना सत्र अधिक प्रेरणाप्रद सिद्ध हो सकेंगे। सभी जगह तो नहीं, पर जहाँ आग्रह होगा तथा सम्भव रहेगा वहाँ देवकन्याओं की मोटर भेजने का भी प्रयत्न किया जायेगा।

साधना सत्रों का क्रम इसी 1 अक्टूबर से आरम्भ होगा और 30 जून तक नौ महीन चलेगा। जहाँ भी शाखाएं टोलियां सक्रिय हों वहाँ से इन आयोजनों के आमन्त्रण आने की प्रतीक्षा की जायगी। यों इसके लिए मथुरा से उद्बोधन और आग्रह परामर्श भी भेजे जायेंगे। इस बार सर्वत्र पुनर्गठन की प्रक्रिया भी संपन्न होनी है वह आरम्भ तो अभी से कर दी जाय, पर उसे समग्र एवं सांगोपांग रूप से वार्षिकोत्सव के अवसर पर अधिक अच्छी तरह पूरी कर दिया जायगा।

पुनर्गठन के उपरोक्त चरण पूरे हो जा


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