फूल की आत्मा (kahani)

August 1977

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वन्धुवर! पुष्प। लो सवेरा हुआ, माली इधर ही आ रहा है, अपनी सज्जनता, सोमनस्यता तथा उपकार की सजा भुगतने के लिए तैयार हो जाओ। तात ! यदि मेरी सीख मानते और कठोरता व कुटिलता का आश्रय ग्रहण किये रहते तो आज यह नौबत नहीं आती।

फूल कुछ बोला नहीं, उसकी स्मिति और भी मोहक हो उठी। माली आया, उसने फूल को तोड़ा और डलिया में रखा। काँटा दर्प में हंसा, माली की वृद्ध उंगलियों में चुभा भी ओर अहंकार में ऐंठ गया। माली उसे गालियाँ बकता हुआ वापस लौट गया।

समय बीता एक दिन देव मन्दिर में चढ़ाये उस फूल की सूखी काया को उठाकर कोई उसी वृक्ष की जड़ों के पास डाल गया। काटें ने म्यान सुमन को देखा तो हंसा और बोला कहो तात! अब तो समझ गये कि परोपकारी होना अपनी ही दुर्गति कराना है।

फूल की आत्मा बोली-बन्धु, यह तुम्हारा अपना विश्वास है। शरीरों में चुभ कर दूसरों की आत्मा को कष्ट पहुंचाने के पाप के अतिरिक्त तुम अपयश के भी भागी बने। अन्त तो सभी का सुनिश्चित है, किन्तु अपने प्राणों को देवत्व में परिणत करने और संसार को प्रसन्नता प्रदान करने का जो श्रेय मुझे मिला, तुम उससे सदैव के लिए वंचित रह गये।


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