वैज्ञानिक दृष्टि में ईश्वर का स्वरूप

August 1977

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प्रसिद्ध वैज्ञानिक न्यूटन से एक बार उनके एक मित्र ने पूछा-आप वैज्ञानिक होकर भी ईश्वर की उपासना करते हैं। यदि सचमुच भगवान् है तो वह क्या है?

“ज्ञान” न्यूटन ने गम्भीरतापूर्वक उत्तर दिया। हमार मस्तिष्क ज्ञान की खोज में जहाँ पहुँचता है वही उसे शाश्वत चेतना का ज्ञान होता है। कण-कण में जो ज्ञान की अनुभूति भरी पड़ी है वह परमात्मा का ही स्वरूप है। ज्ञान की ही शक्ति से संसार का नियन्त्रण होता है। विनाश के लिए भी ज्ञान की ही आवश्यकता है। परमात्मा इसी रूप में सर्व शक्तिमान है

स्पिनाजा ने विज्ञान और दर्शन दोनों का अध्ययन कर यह निष्कर्ष निकाला कि संसार में दो प्रकार की सत्ताएँ काम कर रही है। एक दृश्य है-एक अदृश्य। एक का नाम है प्रकृति या पदार्थ। एक अदृश्य-अपदार्थ अथवा विचार। मृत्यु के अंतिम क्षणों तक विचार प्रक्रिया का बने रहना और मृत्यु के तुरन्त बाद समाप्त हो जाना इस तथ्य का द्योतक है कि जिस तरह पदार्थ अर्थात् धातुएं खनिजों, लवणों गैसों आदि से बना शरीर मृत्यु के बाद सड़ गलकर अपने-अपने तत्व से जा मिलता है, उसी तरह विचार अपनी प्रणाली में जा मिलते हैं विचार कभी नष्ट नहीं होते उससे यह सिद्ध होता है कि अविनाशी विचारों की केन्द्रीभूत सत्ता है और दार्शनिक दृष्टि से देखा जाये तो भी उनका अस्तित्व कभी नष्ट नहीं होता। विचार अवचेतन मन से आते हैं। कब किस विचार के स्पन्दन मन में उमड़ने लगें यह मनुष्य के नियन्त्रण में नहीं आते इससे प्रकट है कि यह अविनाशी तरंगें सूक्ष्म जगत में लहराती है और मस्तिष्क के किसी भाग से स्वसंचालित व्यवस्था की तरह उमड़ते रहते हैं। वैज्ञानिक हीगल के मतानुसार परमात्मा सामान्य इच्छाओं से अत्यधिक समुन्नत श्रेणी का इच्छाओं को भी नियन्त्रण में रखने वाला विचार (अव्सोलूट आइडिया) बताया है। वे लिखते हैं जिस तरह सामान्य श्रेणी से उच्च विद्वान लोग अपने ज्ञान से नये-नये विचारों और भावनाओं का स्वयं ही निर्माण करते हैं उन विचारों के अनुसार उन्नत श्रेणी की रचनाएँ या वैज्ञानिक अनुसन्धान कर सकने में सक्षम होते हैं उसी तरह “परम विचार” अति विशिष्ट रचनाएँ और वैज्ञानिक अनुसंधान करने में समर्थ है तभी तो उसका बनाया संसार इतना सुन्दर और उसके बनाये जीव-जन्तु अत्यधिक उन्नत श्रेणी के यन्त्रों से भी श्रेष्ठ ठहरते हैं। इस संदर्भ में मनुष्य शरीर की रचना उसका अत्यन्त उच्चकोटि का शिल्प और कलाकारिता कही जा सकती है।

सन्त इमर्सन और वर्कले में मन में सब आत्माओं में श्रेष्ठ शक्ति का नाम ही परमात्मा है। सारा संसार कहीं से उधार प्राण और चेतना ले रहो है। प्राणं और चेतना अपने मूल रूप में एक जैसी ही है मनुष्य व जीवों में एक जैसा स्पन्दन, आहार ,निद्रा ,भय, मैथुन के एक से क्रिया कलाप है। जिस तरह एक विद्युत घर से प्रवाहित विद्युत भार ही अनेक विद्युत बल्बों में प्रकाशित दृश्यमान होता है उसी तरह उधार ली गई यह चेतना जिस मूल उद्गम से निसृत होती है उसी का नाम परमात्मा है। यदि आत्माओं का स्वरूप प्रकाश है तो परमेश्वर भी निःसंदेह प्रकाश है। यदि “प्राण” अग्नि रूप है तो जगत नियन्तः भी अग्नि रूप होना चाहिए।

आइन्स्टीन का सापेक्षवाद सिद्धान्त और वेदान्त का “माया वाद” वस्तुतः एक ही व्याख्या के दो प्रकार हैं। वेदान्त “ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या” कहता है तो आइन्स्टीन ने जगत को “समय, ब्रह्मांड गति और कारण” नाम दिया गया है। आइन्स्टीन कहते हैं-समय नाम की कोई सत्ता नहीं है, घटनाओं के तारतम्य को ही समय कह सकते हैं। घड़ी की सुई एक प्वाइंट से दूसरे प्वाइंट तक चली उसे 1 मिनट कह दिया। सूर्य ने एक गोलार्द्ध पार कर लिया यह हमारे लिए 12 घन्टे हो गए, पर सूर्य के लिए तो वह निमिष मात्र ही हुआ जैसे जैसे घटनाओं का विराट बढ़ता है समय संकुचित होता जाता है एक स्थान ऐसा आता है जहाँ भूत भविष्य और वर्तमान सब एकाकार हो जाते हैं, इसी तरह गतियाँ परस्पर सापेक्ष है और परम-गति की स्थिति में वे सभी निस्तब्ध हैं, ब्रह्मांड अपने आप में पूर्ण नहीं, सभी एक दूसरे से सापेक्ष हैं वे सब एक महा ब्रह्मांड में जाकर स्थिर हो जाते हैं इसी तरह “कारण” सभी सापेक्ष हैं एक से दूसरे कारण की खोज करते चलें तो एक ऐसे महा कारण तक जा पहुँचते हैं जो समस्त सृष्टि की रचना का मूलाधार है। अब इस मूल तत्व को किस तरह अनुभव किया जाये उसके लिए आइन्स्टीन कहते हैं कि वहाँ ज्ञान के अतिरिक्त कुछ नहीं ठहरता इसी को वेदान्त में अनुभवगम्य स्थिति कहा है। आइन्स्टीन के इस सिद्धान्त की कई विशेषताएं हैं। जैसे उनका कथन है कि इस बिन्दु से जो वस्तु आज चलेगी वह कल वहाँ पहुँच जायेगी। हमारे दर्शन में प्रयुक्त हुआ कालातीत और आइन्स्टीन के इस सिद्धान्त में कोई अन्तर नहीं। यदि उसे समझा जा सके तो बह्म को समझना गणित के समीकरण की तरह सरल और आसान है। उपनिषद् के- अहं ब्रह्मास्मि, अयमात्मा ब्रह्म, तत्वमसि इसी सत्य के दार्शनिक भाव मात्र हैं। इसे ही वैज्ञानिक यूकन ने आध्यात्मिक जीवन का आधार कहा है।

1937 में प्रकाशित “दि मिस्टीरियस यूनीवर्स” नामक पुस्तक और “दि न्यू बैक ग्राउण्ड आफ साइंस” में सर जेम्स जीन्स ने लिखा है-”उन्नीसवीं शताब्दी के विज्ञान में पदार्थ और पदार्थ जगत ऊँचे सिद्धान्त माने जाते थे, अब हम उनसे दूर होते चले जायेंगे। अब जो नये तथ्य प्रकाश में आ रहे हैं उनसे हम विवश हैं कि प्रारम्भ में शीघ्रता में आकर हमने जो धारणा बनाली थी, उसे अब फिर से जाँचे। अब मालूम होता है कि जिस जड़ पदार्थ को शाश्वत सत्य मानकर बैठे थे वह भ्रम है पदार्थ मन या आत्मा से पैदा हुआ है और उसी का महूर (रूप) है।

“साशेल एनविरानमेण्ट्स एण्ड मारल प्रोग्रेस” पुस्तक में चार्ल्स डार्विन के मित्र जो कभी डार्विन के अनन्य समर्थक थे लिखा है कि “मुझे विश्वास है कि चेतना (आत्मा) ही पदार्थ का हस्तान्तरण करती है।

सर आलिवर लाज ने “आत्मा और मृत्यु” विषय पर भाषण करते हुए 1930 में व्रिस्टल में कहा था “यह सच है कि हम सब चेतन जगत में जी रहे हैं। यह चेतना शक्ति पदार्थ पर हावी है। पदार्थ उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता।”

सर ए॰ एस॰ एडिग्टन का कथन है कि-हम इस निष्कर्ष पर पहुँच गए हैं कि एक असाधारण शक्ति काम कर रही है, पर हम नहीं जानते वह क्या कर रही है।

1934 में प्रकाशित पुस्तक “दि ग्रेट डिजाइन “ में विश्व के 14 प्रख्यात विज्ञानाचार्यों का संयुक्त प्रतिवेदन प्रकाशित हुआ है-इस संसार को एक मशीन कहें तो यह मानना पड़ेगा कि वह अनायास ही नहीं बन गई, वरन् पदार्थ से भी सूक्ष्म मस्तिष्क और चेतना शक्ति उसका नियंत्रण कर रही है।

“स्टे एलाइव आल योग लाइफ” नामक पुस्तक में डॉ. नार्मन विन्सेन्ट पीले ने मरते हुए मनुष्यों की गति विधियों के बड़े सूक्ष्म निष्कर्ष प्रकाशित किये है। उन्होंने एक संस्मरण लिखा है-एक मनुष्य मर रहा था कुछ-कुछ इस संसार से भी संपर्क साध सकती थी और अतीन्द्रिय जगत को भी देख सकती थी उसने बताया मैं बहुत आश्चर्यजनक ज्योति देख रहा हूँ, उस ज्योति पुँज से बहुत मधुर संगीत विस्फुटित हो रहा है। स्मरण रहे ईश्वर को भारतीय तत्व दर्शन में “ऊंकार” इस्लाम दर्शन में “अलम” ध्वनि वाला मधुर संगीत बताया है।

वैज्ञानिकों, विचारकों और दार्शनिकों के यह कथन भ्रान्त प्रलाप नहीं ठहरायें जा सकते। यह प्रतिपादन अनुभूतियों और तथ्यों की ठोस शिला पर आधारित हैं। ब्रह्म की सत्ता दृश्य जगत का प्राण है उसके बिना इतना व्यवस्थित विश्व कभी भी सम्भव नहीं हो सकता था।


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