वेदों के स्वर्ण सूत्र

November 1953

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डमं से वरुण श्रुधी हवम। यजु. 21। 1

हे भगवान मेरी इस प्रार्थना को सुन लो।

ऋतस्य पन्थाँ न तरन्ति दुष्कृतः। ऋग. 9। 73। 6

सत्य के मार्ग को दुष्कर्मी पार नहीं कर पाते।

अघमस्त्वघकृते अथर्व. 10। 1। 5

पापी को दुःख ही मिलता है।

स्वस्ति पन्थामनुचरेम। ऋग. 5। 51। 51

हम कल्याण मार्ग के पथिक हों।

आरोह तमसो ज्योतिः। अ. 8। 1। 8

अन्धकार (अविद्या) से निकल कर (ऊपर उठकर) प्रकाश (ज्ञान) की ओर आओ।

मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे। यजु. 36। 18

हम सब परस्पर मित्र की दृष्टि से देखें।

केवलाघो भवति केवलादी। ऋग. 10। 117। 6

अकेला भोग भोगने वाला व्यक्ति पाप को ही भोगता है।

यज्ञो विश्वस्य भुवनश्य नाभिः। अथ. 9। 10। 14

यज्ञ ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को बाँधने वाला नाभिः स्थान है।

उद्यानं ते पुरुष नावयानम्। अथ. 8। 1। 6

पुरुष तुझे आगे बढ़ना है न कि पीछे हटना।

मर्यादे पुत्रमाधेहि। अथर्व 6। 81। 2

सन्तान को मर्यादा में लगाओ।

चारु वदानि पितरः संगतेपु। अथ. 7। 12। 1

मैं सभाओं में अच्छा साफ, सुन्दर बोलूँ।

दक्षिणावन्तों अमृतं भजन्ते। ऋग. 1125।

दानी अमर पद प्राप्त करते हैं।

मा नो द्विक्षत कश्चन। अथ. 12। 12। 6

हम से कोई भी द्वेष करने वाला न हो।

अग्निनाग्निः समिध्यते। ऋग. 1। 12। 6

अग्नि से अग्नि जलती है या जीवन से जीवन मिलता है।

सम्यंचः सव्रता भूत्वा वाचं बदत भद्रया। अ. 3। 30।

हम सब समान गति, समान कर्म, समान ज्ञान और समान नियम वाले बनकर परस्पर कल्याणी वाणी से बोलें।

देवानाम् सुख्यमुपसेदिमा वयम्। ऋग. 1। 81। 2

हम देवों (विद्वान) की मैत्री करें।

स्वं महिमानमायजताम्। यजु. 21। 47

अपनी महिमा व प्रतिष्ठा को बढ़ाओ।

अस्माकं सन्त्वाशिषः सत्या। यजु. 2। 10

हमारी कामनाएं सच्ची हों।

न कामममव्रतो हिनोति न स्पृशद्रयिम्।

साम. पूर्व. अ: 4 प्र: 5 खं: 1 मं: 5

व्रतहीन (बेऊसूल) न अपनी कामना को पूर्ण कर सकता है और न ऐश्वर्य को ही पाता है।


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