अपना परिवार मत बढ़ाइए।

November 1953

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(प्रो.रामचरण महेन्द्र एम. ए.)

जनसंख्या की वृद्धि-

भारत में अधिक सन्तान उत्पन्न होने से देश की खाद्य समस्या इतने प्रयत्न करने पर भी ज्यों की त्यों जटिल हो रही है। जितना खाद्य पदार्थों की उत्पत्ति में प्रयत्न किया जाता है, उतने ही अधिक मुँह खाने के लिये उत्पन्न हो जाते हैं। डॉ. सी. चन्द्रशेखर के अनुसार सन् 1920 में दुनिया की आबादी 1 अरब 83 करोड़ 40 लाख थी, जो सन् 1943 में 2 अरब 37 करोड़ 80 लाख हो गई। यदि आबादी का यही क्रम जारी रहा, तो अगले सौ वर्ष में दुनिया की आबादी दुगुनी हो जायगी। भारत में सन् 1872 से 1942 तक भारत की आबादी में 54 प्रतिशत वृद्धि हुई। अब तक करोड़ हैं जो अगले दस वर्षों में 40 करोड़ हो जायेंगे। उस संकटमय परिस्थिति की कल्पना कीजिए, जो इन अल्प शिक्षित, निर्धन, नंगे-भूखे, दीन-हीन नागरिकों के बढ़ जाने से भारत में उपस्थित हो जायगी।

डॉ. चन्द्रशेखरन ने लिखा है- “उस समय तक परिवार नियोजन से कुछ नहीं होगा, जब तक शीघ्र ही प्रभावपूर्ण ढंग से देश की बढ़ती हुई आबादी को रोकने का आन्दोलन न किया जायगा। रोगी-अपाहिज और असाध्य रोगों से पीड़ित लोगों को अनिवार्य रूप से आपरेशन कर राष्ट्रीय जीवन में रोगियों, अपाहिजों और अस्वस्थ लोगों की संख्या बढ़ाने से रोका जाय। सरकार को यदि वास्तव में जनकल्याण राज्य स्थापित करना है तो आबादी का कठोर नियन्त्रण एक आवश्यक कर्त्तव्य है। देश में एक ऐसा वातावरण उत्पन्न किया जाय, जिसमें देश की नस्ल को स्वस्थ बनाने के उपचार का दुर्बल और अस्वस्थ व्यक्ति भी स्वागत कर सके।”

स्वास्थ्य का नाश-

अनियंत्रित सन्तान के जन्म से माता के स्वास्थ्य सौंदर्य और जीवन शक्ति का नाश होता है। प्रत्येक बच्चे के जन्म से माता के स्वास्थ्य को ऐसी क्षति पहुँचती हैं, जिसकी पूर्ति विशेष देख-रेख पौष्टिक अन्न तथा डाक्टरी निर्देश से ही हो सकती है। यह साधारण परिवारों में सम्भव नहीं होता। उधर एक के पश्चात दूसरी, तीसरी, चौथी सन्तान निरन्तर आती रहती है। प्रत्येक बार माता का गर्भाशय निर्बल पड़ता जाता है, गुप्तेन्द्रियाँ शिथिल पड़ती जाती हैं, मानसिक शक्तियाँ कमजोर होने लगती हैं, और श्वेत प्रदर, कमर पीड़ा, सर दर्द, बदहजमी, अनिद्रा, निर्बलता, यक्ष्मा, हृदयरोग उत्पन्न होने लगते हैं। प्रत्येक सन्तान माता की जीवनी शक्ति को कम करती है। उसकी आन्तरिक इन्द्रियाँ शिथिल पड़ जाती हैं, पेट की त्वचा सिकुड़ जाती है और दूध पिलाते-पिलाते स्तन सुख कर लटक जाते हैं। जल्दी-जल्दी प्रसव होने से वे एक का पोषण ठीक तरह कर नहीं पातीं कि दूसरे का भार उन पर आ जाता है।

प्रकृति ने मनुष्य, चाहे स्त्री हो या पुरुष, के गुप्त सौंदर्य का मूल स्रोत उसकी गुप्त इंद्रियां को रखा है। जिस व्यक्ति के गुप्त अवयव अशक्त नहीं हैं, जिनमें वीर्य रज का भण्डार परिपूर्ण है, वे ही सबसे सुन्दर हैं। वीर्यवान पुरुष का सौंदर्य नहीं छिपता। वीर्यपात करने वाला लम्पट, कामी, आवारा पुरुष धीरे-धीरे कुरूप, काले रंग पुनः सन्तान को जन्म देने से निस्तेज, अनाकर्षक, काला रंग, झुर्रियों वाली त्वचा तथा स्फूर्ति विहीन वृद्धा जैसी बन जाती है। उसकी आयु क्षीण हो जाती है। अनावश्यक अधिक सन्तान का बोझ उस पर डालना उसे बदसूरत और वृद्ध बनाना है।

प्रत्येक शिशु रहन-सहन का स्तर नीचे लाता है

श्री सन्तराम जी ने लिखा है- ऐसे बहुत से उदाहरण मिलते हैं, जिनमें पिता की औसत आयु 27-28 वर्ष की और मासिक आय 40) है, पर 25 वर्ष की अवस्था पहुँचते-पहुँचते स्त्री पाँच बच्चों की माँ बन गई है। चालीस रुपये मासिक में 7 प्राणियों का निर्वाह होना कठिन हो जाता है बच्चों के बीमार हो जाने पर दवा-दारु के लिए पैसा नहीं होता, शीत से बचने के लिए गर्म कपड़ा नहीं खरीदा जा सकता और सन्तान को लिखा-पढ़ा कर उपयोगी नागरिक बनाना असम्भव हो जाता है। जो गृहस्थाश्रम सुखी होना चाहिए था, वह दुःख का धाम बन जाता है।”

प्रत्येक शिशु के पालन पोषण, वस्त्र, शिक्षा इत्यादि का अर्थ है सम्पूर्ण कुटुम्ब का रहन-सहन का स्तर नीचे आना। यदि स्तर उतना ही रखा जाय, तो बड़े कुटुम्ब के भरण पोषण में अपेक्षाकृत अधिक श्रम करना पड़ेगा। यदि श्रम न हुआ (जैसा प्रायः होता है) तो स्तर धीरे-धीरे नीचे आता रहता है। अन्तिम बच्चे की देख-रेख वस्त्र, शिक्षा इत्यादि के लिए बहुत कम शेष बचता है। सबसे छोटे बच्चे विशेषतः लड़कियाँ तिरस्कृत रहती हैं। ज्यों-ज्यों ये बच्चे बड़े होते हैं, त्यों-त्यों उनकी शिक्षा विवाह इत्यादि का भार निरन्तर एक मानसिक बोझ के रूप में गृहपति को परेशान करता है। उचित रुपया न व्यय होने के कारण अधिकतर बच्चे अल्पज्ञ और अविकसित पड़े रहते हैं। बड़े कुटुम्ब के बहुत से बच्चे बिना शिक्षा के यों ही पलते रहते हैं। सारे दिन वे कहाँ रहते हैं, क्या करते हैं, क्या खाते पीते हैं कोई इसकी परवाह नहीं करता।

अधिक सन्तान से उत्पन्न मानसिक चिन्ता

बड़े परिवार के मुखिया को एक प्रकार कष्ट रहता है। कैसे इन्हें भोजन दिया जाय? कैसे शहरों में रह कर इनके लिए मकान की व्यवस्था हो? कैसे कपड़े जुटाए जायं? इनका स्वास्थ्य कैसे स्थिर रहे? इनकी शिक्षा पर कैसे व्यय किया जाय? लड़कियों की शादियाँ कैसे होंगी? लड़कों का रोजगार कैसे लगे? ऐसी असंख्य छोटी-बड़ी चिन्ताएँ माता-पिता के मन को निरन्तर विक्षुब्ध रखती हैं। कोई न कोई बीमार पड़ा ही रहता है। किसी के विवाह की चिन्ता है, तो किसी की परीक्षा की फीस, पुस्तकों और पढ़ाई की चिन्ता परेशान किए रहती है। अधिक सन्तान वाले व्यक्ति का ज्यादातर समय क्षुद्र भय, संकीर्ण विचार, निराशा, शोक, क्रोध, अनिष्ट चिन्तन, आमदनी जुटाने में व्यय होता है। उसका मोह बढ़ जाता है। रुपये एकत्रित करने के लोभ में वह बेईमानी का मार्ग भी पकड़ लेता है। कभी-कभी मानसिक भार से उत्तेजित हो वह बच्चों की हत्या तक करने का पाप कर बैठता है।

अधिक सन्तान की चिन्ता मनुष्य को समय से पूर्व ही जर्जरित कर डालती है। पहले तो अपनी आय बढ़ाने में ही उसकी शक्ति-सुख व्यय होते चलते हैं। अवकाश, मनोरंजन, ब्रह्म चिन्तन, भजन, पूजन, सुख के लिए समय नहीं बचता। वह जो रुपया-पैसा संग्रह भी करता है, वह भी दो-चार शादियों या शिक्षा में ही व्यय हो जाता है। वृद्धावस्था में, जब उसके शरीर में शक्ति और हृदय में उत्साह नहीं रहता, ये ही आर्थिक संकट मनुष्य को बड़ा परेशान करते हैं। वृद्ध को एक ओर सन्तान को काम से लगाने की चिन्ता होती है, दूसरी ओर अपनी आर्थिक अवस्था को बनाने की फिक्र चलती रहती है। माता पुत्री की उत्तरोत्तर बढ़ती हुई आयु को देख कर खीजती जाती है। पिता को संसार वासना लोलुप दृष्टि से उसे बचाने की चिन्ता रहती है। कहीं पुत्री पथ भ्रष्ट न हो जाय? कोई उसे बहका कर न ले जाय? गन्दी परिस्थिति में न बहक जाय? उसे कोई शारीरिक या मानसिक रोग न लग जाय? इस प्रकार की सैंकड़ों दुश्चिन्ताएँ माता-पिता को मानसिक नर्क में डाले रहती हैं। सुखी वही है जो परिवार नियोजन द्वारा इस नर्क से बचा रहे।

परिवार नियोजन के उपाय

भारतीय संस्कृति के अनुसार ब्रह्मचर्य इन्द्रिय निग्रह का सुलभ एवं सर्वोत्तम उपाय है। इससे मनुष्य की जीवन-शक्ति बनी रहती है। वीर्य मनुष्य का प्राण है। जो जितना इस जीवन तत्व का अपव्यय करता है, वह उतना ही अपनी शक्ति का ह्रास करता है। एक बार में नष्ट किया हुआ वीर्य महीनों में जाकर फिर प्राप्त होता है। अतः क्षणभर के पाशविक आनन्द के लिए वीर्य का नाश करना मूर्खता है।

केवल आनन्द मात्र के लिए विषय भोग करना अनुचित है। महात्मा गाँधी जी ने अपनी पुस्तक “ब्रह्मचर्य” में इस विषय पर लिखा है- “सन्तानोत्पत्ति की इच्छा पर ही सहवास करना चाहिए, अन्यथा नहीं। क्योंकि मातृत्व एवं पितृत्व की इच्छाओं से रहित केवल शारीरिक इच्छाओं की पूर्ति करना नैतिक पतन है केवल आत्म संयम की आवश्यकता है और मेरी समझ में पुरुष की अपेक्षा स्त्री के लिए आत्मसंयम करना ज्यादा आसान है संयम का अभाव स्त्री की अपेक्षा पुरुष में ही अधिक होता है हमारे देश में जरूरत बस इसी बात की है कि स्त्री अपने पति तक से “ना” कर सके। ऐसी सुशिक्षा स्त्रियों को मिलनी चाहिये।

विवाहित होकर भी आप ब्रह्मचर्य धारण करें। विश्वास करें, आपके लिए यह सर्वथा सम्भव है। आप दृढ़ता से प्रण करें तो बखूबी इस व्रत को धारण कर सकते हैं। आप वासना की क्षण भंगुरता को समझ गए हैं। अतः अब आप मानसिक दृष्टि से भी यह व्रत धारण कर सकते हैं।

महात्मा भगवान दीन लिखते हैं- “खाने का आनन्द जोर की भूख पर निर्भर है, जोर की भूख लम्बे समय का नतीजा है। इसी तरह दुनियादारी का आनन्द ब्रह्मचर्य पर निर्भर है। ब्रह्मचर्य माने आनन्द भण्डार को बढ़ाते रहना। ईंट का मकान जिस तरह पलस्तर से मजबूत बनता है और वर्षों टिक सकता है, वैसे ही इस हाड़मांस के मकान का पलस्तर ब्रह्मचर्य है, जो बरसों टिक सकता है।”

ब्रह्मचर्य मनुष्य की सबसे बड़ी उत्पादक शक्ति है, वह सन्तान उत्पन्न नहीं करेगी, तो बल, बुद्धि, दीर्घ जीवन, उत्तम स्वास्थ्य दूरदर्शिता और ओज उत्पन्न करेगी। वीर्य संग्रह देह को नया का नया बनाए रखेगा। मन की चंचलता पर यदि कोई काबू पा सकता है, तो वह ब्रह्मचारी ही कहलाता है।

आपके जितनी संतानें हैं, उनकी जिम्मेदारियों तो किसी प्रकार पूर्ण हो ही जायेंगी, नई सन्तान को जन्म न दीजिए। यदि सन्तान नहीं है, तो अपने को और भाग्यशाली समझिये। परमेश्वर ने आपको एक स्तर और ऊँचा उठा दिया है। विकास तथा ज्ञान प्राप्ति के लिए व्यर्थ के झंझटों को स्वयं दूर कर दिया है। आपकी असंख्य जिम्मेदारियाँ कम हो गई हैं। वस्तुतः आपको हर्षित होना चाहिए। उच्च कार्यों में अपनी शक्ति व्यय करनी चाहिए। संभव हो तो अपनी जीवन सहचरी को भी अपने मानसिक स्थल तक ऊँचा उठाना और उसका सर्वांगीण विकास करना चाहिए। आपके परिवार में ऐसे अनेक सदस्य हैं, जो आपका प्रेम, सेवा, सहायता, सौहार्द, पथ-प्रदर्शन चाहते हैं। उन्मुक्त हृदय से आपको ये सब प्रदान करने चाहिये। “हमारी ही संतान हो तो हम उस की देख रेख करें” यह अज्ञान है। इस अज्ञान से निकलें और परिवार के अन्य सदस्य पर अपने प्रेम की वर्षा करें।


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