प्रभु प्रार्थना के कुछ सुन्दर रूप

November 1953

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(श्री ज्वाला प्रसाद गुप्त, एम. ए. एल. टी.)

“हे प्रभो! तेरे सामने हाथ जोड़कर सच्चे हृदय से इतनी ही प्रार्थना करता हूँ कि मैं माँगू या न माँगू, मुझे कोई ऐसी चीज कभी न देना जो मुझे अच्छी लगने पर भी मेरा बुरा करने वाली ही और मेरी बुद्धि को कुमार्ग पर ले जाने वाली हो। ।”

“हे प्रभो! चुम्बक उसी लोहे को अपनी ओर खींचता है, जो शुद्ध होकर उसके सामने आता है। मुझे भी, हे कृपासागर! समस्त अभिमानों तथा विकारों के मिश्रण से रहित कर दीन-हीन शुद्ध लोहा बना दो, जो तुम्हारे आकर्षक कृष्ण नाम चुम्बक को पाते ही दौड़कर उसमें सदी के लिये चिपट जाय।”

“हे नाथ! तुम कृपा करके ऐसी शक्ति दो जिससे मैं विषय शक्ति से पिण्ड छुड़ाकर तुम्हारी और अपने मन को निरन्तर लगाये रख सकूँ, तुम्हारा चिन्तन ही मेरे जीवन का आधार बन जाय।”

“हे मेरी आत्मा के प्रियतम स्वामी! मैं तुमको ही चाहता हूँ, मुझे और कोई भी वस्तु प्यारी न लगने दो, जो वस्तुएँ मुझे तुमसे दूर हटाती हों, वे मुझे जहर सी लगने लगें। एकमात्र तुम्हारी इच्छा ही मेरे लिए मधुर हो-तुम्हारी इच्छा ही हमारी इच्छा बन जाय।’

“दयामय! तुम दयालु हो, मेरी ओर न देख कर अपनी कृपा से ही मेरे इस, दुष्ट मन को अपनी ओर खींच लो। इसे ऐसा जकड़कर बाँद लो कि यह कभी दूसरी ओर जा ही न सके। मेरे स्वामी! ऐसा कब होगा? कब मेरा यह मन तुम्हारे चरणों के दर्शनों में ही तल्लीन हो रहेगा। कब यह तुम्हारी मनोहर मूरति की झाँकी कर-करके कृतार्थ होता रहेगा।

अब देर न करो दीन बन्धु! जीवन सन्ध्या समीप है। इससे पहले-पहले ही तुम अपनी दिव्य ज्योति से जीवन में नित्य प्रकाश फैला दो। इसे समुज्ज्वल बनाकर अपने मन्दिर में ले चलो और सदा के लिए वहीं रहने का स्थान देकर निहाल कर दे।

‘हे परमेश्वर! आप तेज पुँज हो, आप बुद्धि के सागर हो, शक्ति के अथाह उदधि हो। मुझे भी तेज से परिपूरित कीजिए। उड़ेल दो। मुझे भी तेज से परिपूरित कीजिए। उड़ेल दीजिए, बुद्धि शक्ति से अंग अंग भर दीजिए। हृदय में सद्गुणों का विकास कीजिए।”

“नाथ! मैं जैसा हूँ, जो कुछ हूँ, तुम्हारे सामने हूँ। मेरी त्रुटियाँ, जिनका मुझे बोध नहीं है, तुम्हारे सामने एक-एक प्रत्यक्ष हैं। उन त्रुटियों को पूरा भी तुम्हीं करोगे। मुझे तो उनमें से बहुतों का पता तक नहीं है। त्रुटियाँ हैं, इसका विश्वास इसी से होता है कि मेरा मनोरथ-तुम्हारी माधुरी के नित्य आस्वादन का मनोभिलाष पूर्ण जो नहीं हो रहा है।

मेरे प्राणों के प्राण, नित्य मधुर, प्रियतम जो कुछ भी कमी हो, उसे अपनी कृपादृष्टि से पूरी कर दो और अपने रस समुद्र में सदा के लिये डुबोकर निकाल दो।”


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