प्राणायाम-विज्ञान

November 1953

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(श्री स्वामी शिवानन्द जी सरस्वती)

प्राण और अपान के संयोग को प्राणायाम कहते हैं। प्राण के प्रच्छर्द्दन या निर्धारण से मनोनाश होवेगा। उपनिषदों में प्राणायाम की महत्ता कही है- क्षुतृष्णालस्य निद्रा न जायते। गुल्मप्लीहज्वरपितक्षुधादीनि नश्यति- से प्राणायाम को सर्वरोग निवारक जानना चाहिये। प्राणायाम के दीर्घ अभ्यास से अल्पाशी स्वल्पनिद्रश्च तेजस्वी बलवान भवेत की उक्ति सिद्ध होती है। प्राण-निरोध से वासना का स्वतः क्षय हो जायगा।

प्राणायाम तीन प्रकार का होता है- पूरक, कुम्भक तथा रेचक। वायु के उत्क्षेपण की क्रिया को पूरक जानना और वायु निरोध की क्रिया को कुम्भक कहते हैं। इसी तरह वायु-रेचन की संज्ञा ही रेचक है।

आहार- शुद्धि रखते हुए, जो प्राणायाम का निरन्तर अभ्यास करता है, वह प्रथम अवस्था में पसीने का अनुभव करता है, पुनः वह शरीर के हल्केपन का अनुभव करता है। कालान्तर में यदि प्राणायाम उचित और निर्बाध हो तो भूमि त्याग की अवस्था आती है। परन्तु याद रहे कि आहार तथा प्रकृति में अपना पूर्ण निरोध रहे। यदि साधक नियमानुसार प्राणायाम का अभ्यास करे तो उसका स्वस्थ होना अनिवार्य है। प्राणायाम से नाड़ी-शुद्धि होगी, जठराग्नि तीव्र होगी और अनहद शब्द स्पष्ट सुनाई देगा।

कुम्भक दो प्रकार का होता है सहित कुम्भक तथा केवल कुम्भक। रेचक युक्त कुम्भक को सहित कुम्भक कहते हैं। इन दोनों से जो रहित होता है, उसे केवल कुम्भक जानना। अभ्यासी के लिए सहित कुम्भक का ही अभ्यास करना चाहिए। केवल कुम्भक के द्वारा शरीर कृश हो जाता है और कुण्डलिनी शक्ति जागृत होती है। केवल कुम्भक के दृढ़ अभ्यास से साधक बिन्दु विजयी होता है। उसमें तेजस्विता का प्रसार होता हैं।

योगी सदा इस बात पर विचार करता आया है। सूक्ष्म बुद्धि तथा महत-ज्ञान के द्वारा वह इस बात पर ज्ञान कर पाया कि वह अपने बिन्दु-निरोध में क्यों नहीं सफल हुआ। काम वासना के दमन करने का उसने भरसक प्रयत्न भी किया। आसन मुद्रा बन्ध के सतत अभ्यास से वह अपने कार्य में अग्रसर भी हुआ। तत्फलतः आन्तरिक-वृत्ति स्रोत विमुख भी हो गया तथा विपरीत अंश स्रोत में परिवर्तन भी हुआ। अब उसे अपनी शक्ति का परिवर्तन ज्ञात हो पाया जब कि शक्ति अभ्यासी में चमकने लगी। ऐसी अवस्था में, जब सफलता निकटवर्ती अनुभूत होवे, साधक को योग्य है कि वह अपने शरीर को आध्यात्मिक-शक्ति की प्राप्ति के योग्य बना लेवे। शरीर की समस्त वासनाओं तथा आधि−व्याधियों का परिष्कार पूर्णतः आवश्यक है।

इस प्रकार शरीर तथा मन का निकटस्थ सम्बन्ध योगी के ज्ञान प्रदेश में सूत्रित होता है, जिसके योग में शरीर तथा मन के निरोध की आवश्यकता पुष्ट होती है। अतः योगी ने स्वतः ही स्वतन्त्र विज्ञान को जन्म दिया। शरीर की शुद्धि मन की शुद्धि की प्रस्तावना है क्योंकि मन सहसा ही शरीर द्वारा प्रभावित होता है। अतः शारीरिक क्षुधा का निरोध करना चाहिए। अधिक भोजन, अधिक कार्य, अधिक बातें इत्यादि का योग मार्ग से निराकरण करना चाहिये। शारीरिक पूर्णता ही प्राणशक्ति में अन्तर्मुख वृत्ति लाती है। प्राण शक्ति बाह्यतः श्वास प्रतिरूप है श्वास-निरोध द्वारा प्राण वायु भी निरुद्ध हो जाती है। अतः श्वास प्रतिरोध को प्राणायाम कोष के ऊपर विजय पाने का अस्त्र माना गया है।

स्वभावतः देखने से ज्ञान होगा कि जन साधारण के प्राण संचार में किसी प्रकार की प्रणाली नहीं। परन्तु योगी श्वास-विधान द्वारा एक प्रकार की प्रणाली को जन्म देता है। जब श्वास में समानता अथवा एकमुखवृत्ति आती है तो श्वास का फल कुम्भक हो जाता है। श्वास का स्वतः निरोध हो जाता है। अब कुम्भक का श्रीगणेश होता है। मन में शान्ति का आभास होता है। समाधि का आविर्भाव होता है।

प्राणायाम के अभ्यास का शरीर मन और बुद्धि पर अति सफल प्रभाव होता है, क्योंकि यह सब प्रकार के शारीरिक तथा मानसिक रोगों का हन्ता माना जाता है। सिद्ध भी है कि यह शरीर में बहु शक्ति का संचार करता है, मन की अशुद्धियों को आक्रान्त कर, बुद्धि विकास में सहायक होता है। यह स्मृति प्रकाश में अत्यन्त महत्वपूर्ण योग है।

यह कहना ठीक नहीं कि प्राणायाम का अभ्यास केवल मात्र हठयोगी के ही लिए आवश्यक है। राजयोगी एवं वेदान्ती के लिए भी इसका उतनी ही आवश्यकता है। क्योंकि यह मन-निरोध का प्राथमिक यन्त्र है। वेदान्ती भी अवश्यमेव प्रणव के ध्यान में प्राकृतिक प्राणायाम करेगा। तद्वत् राजयोगी और हठयोगी भी पुरुष तथा शक्ति का ध्यान करते-2 स्वाभाविक प्राणायाम करने लगेंगे।

जैसा बताया जा चुका है कि प्राण एवं वासना का परस्पर अतीव घनिष्ठ सम्बन्ध है। एक के निरोध से दोनों का निरोध होना सम्भव है। प्राणवायु क्रियाशील होने से चित्त भी स्पन्दित होता है। यदि प्राणवायु को वशीभूत किया जाय तो चित्तस्पन्दन स्वतः शान्त हो जायगा क्योंकि प्राण मात्र ही अस्तित्व पदार्थ की कुँजी है। अतः सिद्ध हुआ कि प्राणवायु के संचालन में वशीकरण होना, प्राकृतिक शक्ति संचार को वश में करना है।

उदाहरणार्थ एक बड़े कार्यालय में कई कार्य बिजली के बल से होते हैं। आप उन पर रोकथाम की इच्छा करें तो आपको सत्यतः उस कमरे में जाना होगा जहाँ से आप बिजली के समस्त सम्बन्धों को स्थगित कर दें। फलतः तमाम कार्य सहसा ही समाप्त हो जायेंगे तथा एक से व्यक्तिगत कार्य मात्र से तमाम कार्यालय रुक जायगा। इसी प्रकार एक योग का अभ्यासी भी व्यक्ति-केन्द्रों में निरोध की स्थापना करता है। जिससे वह अपने-अपने चक्रों का कार्य स्वतः स्थगित कर देता है। इस प्रकार प्राण शक्ति के द्वारा योगाभ्यासी मन तथा शरीर को निरुद्ध करता हुआ, ऊर्जत्व के मार्ग पर अग्रसर होता है।

अब हमें ऐसे परिपक्व विज्ञान का ज्ञान होता है, जिसकी प्राप्ति में आज के वैज्ञानिक चूक रहे हैं। परन्तु उसी की प्राप्ति हमारे योगाभ्यासी करते हैं। इसी से भय दृष्टिगत होता है कि एक तो मन सागर की तरंगावलियों को हस्त स्पर्श से शान्त कर देता है, परन्तु अन्य पुरुष मदान्वित हो, अनन्त आनन्द के बदले भूमि पर पतित होता है। अब देखना है कि हम किसको श्रेय मानेंगे?


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