(श्रीमती कौशिल्या देवी वर्मा ‘शान्ति’)
संसार में कर्म का सबसे बढ़कर महत्व है। कर्म से बड़ा कुछ भी नहीं हैं। बात-बात में लोग कर्म की दुहाई देते हैं। मनुष्य को दुःख-सुख, मान-मर्यादा जो कुछ भी प्राप्त होती है, सब कर्मानुसार ही होती हैं।
मनुष्य जैसा कर्म करता है, वैसा ही उसे फल मिलता है। सुकर्म करने वाला इहलोक और परलोक दोनों में सुख भोगता है और कुकर्म करने वाला उसके विपरीत फल पाता है। अतः मनुष्य को बहुत सोच समझकर कर्त्तव्य करना चाहिये, क्योंकि उसके कर्म की जाँच करने वाला भी इहलोक और परलोक दोनों में वर्त्तमान है। इस अवसर पर गोसांई तुलसीदास जी ने क्या ही अच्छा कहा है-
“कोउ न काहु दुख-सुख कर दाता। निज कृत कर्म भोग सब भ्राता॥
करै जो कर्म पाव फल सोई। निगम नेति अस कह सब कोई॥
शुभ अरु अशुभ कर्म अनुहारी। ईश देहि फल हृदय विचारी॥”
अर्थात्- मनुष्य अपने आप ही दुःख-दुख का बनाने वाला है, परमात्मा तो केवल फल देने वाला है, किन्तु अज्ञानवश मनुष्य उसको ही दोषी ठहराता है और अपने कर्म की और किञ्चित्मात्र भी ध्यान नहीं देता।
मनुष्य कर्मों का दास है।
“कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः॥”
कर्म से ही जनकादिक को उत्तम सिद्धि मिली थी।
यद्यदाचरित श्रेष्ठस्तत्तबेवेतरोजनः। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्त्तते॥
हे अर्जुन! श्रेष्ठ पुरुष जो-जो करता है, वही और लोग भी करते हैं। श्रेष्ठ जिसे उत्तम समझता है और लोग भी उसे ही उत्तम समझते हैं।
अतः बड़े लोगों को खूब सोच-समझकर काम करना चाहिये, और अपना आचरण शुद्ध रखना चाहिये, क्योंकि समाज उन्हीं का अनुसरण करता है। बड़ों को अपना यह दायित्व कभी भी भूलना नहीं चाहिए।
न में पाथास्ति कर्त्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंजन। नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त्त एव च कर्मणि॥
हे अर्जुन! मुझे कोई कर्त्तव्य नहीं है, क्योंकि तीनों लोकों में ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो मुझे न मिली हो, या आगे न मिलने वाली हो, फिर भी मैं कर्म करता ही रहता हूँ।
यदि ह्यहं न वर्त्तयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः। मम वर्त्मानुवर्त्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥
आलस्य त्याग कर यदि मैं ही कर्म न करूं, तो अन्य सब मनुष्य भी सब प्रकार से मेरा ही अनुसरण करेंगे।
कर्म को संसार में सभी लोगों ने प्रधान माना है। गोसांई तुलसीदासजी ने भी कहा है-
“कर्म प्रधान विश्व करि राखा। जो जस करै सो तस फल चाखा॥
संसारी सभी मनुष्य काम के वशीभूत हैं। इच्छापूर्वक कर्म करने से मनुष्य बन्धन में फँसता है और निःस्वार्थ भाव काम करने से उसकी आध्यात्मिक उन्नति होती है। इस सिद्धान्त के अनुसार हमको बिना फल की इच्छा किये हुए अपना धर्म समझकर कर्म करना चाहिये। अतः यह निर्विवाद सिद्ध है कि कर्त्तव्य धर्म सबके लिये आवश्यक है।
कर्म साधारणतः किसी उद्देश्य के निमित्त ही किये जाते हैं। उद्देश्य मनुष्य के संस्कारवश अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के होते हैं, परन्तु कर्म के रूप भिन्न-भिन्न होते हैं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने निष्काम कर्म करने का ही उपदेश दिया है।
चित्त की शुद्धि के लिए निष्काम कर्मयोग की बड़ी आवश्यकता है। मन के पवित्र होने से काम, क्रोध आदि नष्ट हो जाते हैं। दृष्टि में अद्वैत भावना आ बसती है। इसके बाद जीवनमुक्ति का मार्ग मिल जाता है। जिस प्रकार गीता में योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ने निष्काम कर्म के ऊपर जोर दिया है, वैसे ही उन्होंने चित्त-शुद्धि को भी अत्यावश्यक बतलाया है, क्योंकि इसके बिना तो ईश्वर-सान्निध्य प्राप्त होना असम्भव है।
कोई जीव क्षण भर भी बिना कर्म किये नहीं रह सकता। अतः कर्म करने से पूर्व मनुष्य को यह निश्चय कर लेना चाहिए, कि क्या कर्त्तव्य है, और क्या अकर्त्तव्य है। उस निश्चय के लिये धार्मिक ग्रन्थों की सहायता लेनी पड़ती है, परन्तु अपनी आत्मा यदि पवित्र हो तो वह इसकी सबसे अच्छी और सच्ची निर्णायक हो सकती है। यह छिपा हुआ शब्द प्रत्येक काम करने के पहले हमें सावधान करता रहता है। चाहे हम उसे ध्यान से सुनें या न सुनें, उसकी आज्ञा मानें या न मानें। इससे भी बड़ी बात यह है, कि निःस्वार्थ स्वधर्मोवित्त कर्त्तव्य सारी बाधाओं और बन्धनों से परे हैं।
कर्म की सहायता से सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है। लोक और परलोक दोनों सुधारे जा सकते हैं। कर्म के आगे असम्भव को कहीं स्थान ही नहीं है। संसार के इतिहास पर दृष्टि दौड़ाइये, हजारों उदाहरण मिलेंगे। अतः मनुष्य को सदा सावधान होकर कर्म करना चाहिये।
मृत्यु के बाद कोई भी अपने साथ नहीं जाता, केवल अपना किया हुआ शुभाशुभ कर्म ही साथ जाता है। स्वार्थमय जगत में जब तक धन है, तभी तक आत्मीय स्वजन अपने बनें हुये हैं, निर्धन व्यक्ति के तो स्वजन पराये हो जाते हैं। मित्रगण तथा कुटुम्बीजन तो केवल श्मशान तक साथ जाकर मृत-शरीर को आग पर फेंककर चले जाते हैं और यहाँ तक उनकी अन्तिम कर्त्तव्य की समाप्ति हो जाती है। साथ एकमात्र केवल कर्म ही जाता है। अतः बड़ी सावधानी से साथ जाने वाले शुभ कर्मों की मनुष्य को आराधना करनी चाहिये।
शुभ कर्म ही मनुष्य का सच्चा मित्र है। इस मित्र की सहायता से वह साँसारिक तथा पारलौकिक सुख सम्पत्तियों को प्राप्त करता है। इसके विपरीत अशुभ कर्म से बढ़कर मनुष्य का कोई शत्रु नहीं जो कुविचारों और कुकर्मों में लिप्त रहेगा उसे सदा सर्वत्र अशाँति पीड़ा एवं दुर्गति ही मिलेगी।