(श्री ब्रजलाल त्रि. कामदार ‘धर्मरत्न’)
विचार शक्ति का केन्द्र स्थान मनुष्य का मस्तिष्क है किन्तु उस विचार शक्ति का आधार मन की स्थिरता पर अवलम्बित है। चंचल मन में अनेक प्रकार के संकल्पों-विकल्पों की तरंगें उठती रहती हैं और वे तरंगें चित्त में खलबली मचाकर मस्तिष्क को अशान्त बना देती हैं। विचार शक्ति का स्थान अन्तर जगत है। और इन्द्रियों सहित मन बुद्धि चित्त का व्यापार बाह्य जगत से है। अतः इन्द्रियों तथा मन बुद्धि और चित्त को बाह्य विषयों से हटा कर अन्तरमुख करना चाहिए। जब तक मन बुद्धि आदि अन्तरमुख होकर स्वस्थ, निश्चल एवं संयमित न हो जायं तब तक विचारों की एकाग्रता नहीं बन सकती। विचारों की एकाग्रता अथवा विच्छिन्न विचारधाराओं का समीकरण ही विचार शक्ति है।
मनुष्य जो कुछ करता है अथवा कर सकता है पर सब अपनी विचार शक्ति के बल पर ही करता है। विचारों का प्रवाह जब तक भिन्न-भिन्न दिशाओं में प्रवाहित होता रहता है तब तक उसमें महान कार्य सम्पादित हो सकता है। विचार धारा का निग्रह, विरोध एवं संयम करने से ही उसमें महान शक्ति का आविर्भाव होता है और शक्ति संसार के साम्राज्य तो क्या स्वर्ग पर भी अपना अधिकार जमा लेती है। नदियों के प्राकृतिक जल प्रवाहों को बाँधों के द्वारा रोक कर, उस निग्रही जल प्रवाह के प्रयत्न से महान विद्युत बल को उत्पन्न किया जा सकता है और लाखों एकड़ जमीन सींची जा सकती है, जबकि वर्षा का बूँद-2 करके गिरा हुआ जल थोड़े क्षणों में प्रवाहित होकर पृथ्वी पर जाता है या सूर्य की ताप में सूख जाता है।
इस विश्व के अनेक प्रकार के बलों में निरोधक विचारों का बल सबसे प्रचण्ड एवं महान बल है और वह निग्रहीत बल ही अब्य परिस्थित मन को अपने अधिकार में लाने, उसे सुधारने और बाह्य विषयों से हटाकर अन्तरमुख करने में समर्थ होता है। मन भी एक शक्तिशाली यन्त्र है और मन के द्वारा ही इस विश्व की रचना हुई है। विचारशक्ति प्रेरणा से ही मन रूपी यन्त्र कार्य तत्पर होता है। अतः उस मन के द्वारा अगर हमें महान कार्य को सम्पादन करना है तो हमें अपनी विचारशक्ति निग्रहीत एवं केन्द्रित करनी होगी। किसी भी विषय को लेकर उस एक विषय के सम्बन्ध में ही बार-बार विचार करना और अत्यन्तासक्त भाव से निरन्तर एकाग्रता पूर्वक बाधक एवं बिखरे हुए संकल्पों-विकल्पों का नाश कर, कार्य सिद्धि के लिए दृढ़ निश्चय करना- इसी का नाम निग्रहीत विचारशक्ति है। विचार जितने सूक्ष्म होंगे उसकी शक्ति उतनी ही विस्तृत, व्यापक एवं बलवती होगी।
शरीर स्थूल होने के कारण ही अमुक स्थल एवं काल विशेष में मर्यादित रहता है, किन्तु आत्मा सूक्ष्म होने के कारण सर्वत्र व्यापक अजर, अमर, नित्य, शाश्वत, सनातन एवं महान है। शरीर बल से आत्मबल महान शक्ति सम्पन्न है और समस्त विश्व ब्रह्माण्डों का संचालन करता है। जल से भाप अधिक बलवान है और भाप का बल बड़ी-बड़ी मिलों, स्टीमरों एवं रेलवे के इंजनों द्वारा लाखों मन माल ढोने में समर्थ होता है। भाप से विद्युत शक्ति में अधिक बल है और केंद्रीभूत-पावर हाउस-स्थित विद्युत का एक जरा सा आघात एक ही समय में सैकड़ों विशाल कार्य यन्त्रों को गतिमान कर देता है, हजारों दीपक एक साथ प्रज्वलित कर देता है और तार टेलीफोन के द्वारा हजारों मील को दूरी पर संदेश पहुँचा देता है, तब मनुष्यों के अन्तःकरण में केंद्रित विचार शक्ति का कितना प्राबल्य एवं प्रभाव होगा उसका सहज ही अनुमान किया जा सकता है।
विचार शक्ति आँतर जगत की विद्युत शक्ति है मनुष्य ईश्वर का अंश है और मनुष्य की उस आत्मा का जब परमात्मा में योग हो जाता है, तब उसकी विचार शक्ति की सामर्थ्य नूतन जगत की रचना करने में भी समर्थ हो जाती है। ऐसी विचार शक्ति अपनी ओर आकर्षित करके कार्य को सम्पादित करती है। विचारों के स्फुरण से ही इच्छा शक्ति जागृत होती है और उस इच्छा शक्ति द्वारा महान पुरुषों ने इस संसार में क्या-क्या चमत्कार नहीं दिखलाया है! निग्रहीत विचारों में जितना बल होगा उतनी ही उसमें आकर्षणशक्ति अधिक होगी। केन्द्रित विचारों की शक्ति का तेजोवलय घेरा मनुष्य के मुखमण्डल के आस-पास बना रहता है। और उसमें लोह चुम्बक की भाँति सजातीय विचारों को अपनी ओर आकर्षित करने की शक्ति होती है। उस शक्ति के कारण हम चाहे जाने या न जाने परन्तु समान विचार अपने आप ही एक दूसरे के विचारों में सम्मिलित हो जाते हैं और वे भले या बुरे अथवा सबल या निर्बल बन कर, मनुष्य को कार्य तत्पर अथवा अकर्मण्य बना देते हैं। हमारे अच्छे अथवा बुरे विचारों के साथ बाहर के समान विचारों का जब सम्मिलित होकर बल मिल जाता है तब हम उस बुरे अथवा भले कार्य को करने में तत्पर हो जाते हैं और उसकी अच्छाई-बुराई का अनुभव करते हैं। अतएव हमें अपने विचारों के प्रति बहुत ही सावधान रहना चाहिए।
हम सब एक ही परम चैतन्य तत्व के अविनाशी अंश हैं और हम सबके अन्तःकरण में वही एक चैतन्य तत्व विराजमान है। अतः हमारा विचार समूह सजातीय-विजातीय विचार समूहों में मिलकर जगत की भलाई अथवा बुराई का कारण बन सकता है। ऐसी परिस्थिति में हमारा कर्त्तव्य है कि हम सदैव देवी विचारों का सेवन करें, दैवी विचारों का संग्रह करें और दैवी विचारों का बल बढ़ावें, ताकि हम जगत में शान्ति, दया, दान, क्षमा, सत्य, अहिंसा, धृति, अस्तेय, प्रेम, उदारता आदि दैवी गुणों की स्थापना करके संसार को विनाश के मार्ग से बचा सकें, और उस समान विचार शक्ति के सामूहिक बल से आसुर भावापन्न काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, रोग, शोक, दुःख, द्वेष, क्लेश आदि जगत का अहित एवं क्षय करने वाले दुर्गुणों का नाश कर जगत की रक्षा करने में समर्थ हो सकें।
मनुष्यों को राक्षस न होकर देवता बनने के लिये अपने जीवन में सत्वगुण की वृद्धि करनी चाहिए। बिना सत्वगुण की वृद्धि के दैवी विचारों का सेवन हो नहीं सकता और बिना धर्म के आचरण किये सत्वगुण की वृद्धि हो नहीं सकती। धर्म के पालन से सत्वगुण के द्वारा दैवी भावना एवं अधर्माचरण से रजोगुण, तमोगुण के द्वारा राक्षसी अथवा आसुरी भावनाओं का उदय होता है। ये भावनायें हमारी मनोवृत्ति एवं विचार शक्ति के ऊपर अधिकार रखती हैं। अतः हमारे जीवन में अगर सत्वगुण की वृद्धि होगी तो वह दैवी प्रवृत्ति का विस्तार करेगी। अथवा रजोगुण, तमोगुण की वृद्धि होगी तो वह आसुरी भावों का उत्कर्ष करके राक्षसी प्रवृत्ति को बढ़ावेगी। इन दैवी एवं आसुरी वृत्तियों को जानने के लिए हमें अपनी स्वसत्ता का अनुभव एवं अध्ययन करना चाहिए। हम से आत्मा का, हमारे जीवन का, हमारे कार्यों का तथा हमारी भावना एवं विचारों का हमें ज्ञान प्राप्त करना चाहियें। दूसरे शब्दों के द्वारा हमें आत्म निरीक्षण करना चाहिए। अपने अन्दर के दोषों को दूर करना चाहिए तथा दुर्भावनाओं और दुवृत्तियों को हटाकर सदाचार एवं सद्गुणों को बढ़ाना चाहिए। तब ही हमारा अन्तःकरण निर्मल एवं पवित्र होगा, हमारा मन, बुद्धि, चित्त शान्त एवं स्वस्थ होंगे तथा हमारा गर्व और अहंकार गल कर वासनाओं का विनाश होगा। ऐसा होने पर ही सत्वगुण की धवल धारा का उर्ध्वगामी प्रवाह हमारे विचारों के केन्द्र स्थान मस्तिष्क के सब दोषों को धोकर मनः क्षेत्र को स्वच्छ, निर्मल एवं प्रफुल्लित करेगा और फिर उसमें से विचारों का जो स्फुरण होगा वह आपके जीवन को ही नहीं समस्त जगत के लिए भी स्वास्थ्यकर, रुचिकर एवं कल्याणप्रद होगा।