(श्रीमती प्रीतमदेवी जी कोटा)
जिन तोप बंदूकों को जलयान के लिए रखा जाता है, चुनाव से पूर्व उसकी परीक्षा होती है। उनमें उनकी शक्ति से कुछ अधिक बारूद भरकर चलाया जाता है। यदि उस बढ़ी हुई शक्ति के भार को वे वहन कर लेती हैं, तो उन्हें युद्ध के लिए उपयुक्त समझ कर चुन लिया जाता है। अनेक तोप-बन्दूकें इस परीक्षा में ही विनष्ट होकर खण्ड खण्ड हो जाती हैं। इनमें से अनेक ऐसी होती हैं, जो साधारण स्थितियों, दैनिक कार्यों, मामूली तौर पर काम चला सकती हैं। पर अधिक काम या बोझ पड़ने पर टूट सकती हैं।
पुलों का भी यही हाल है। काम में लाने से पहले उन पर भारी ऐंजन को चलाकर देखा जाता है कि कहीं अधिक भार से टूट तो न जायेंगे? प्रत्येक ऐजिंन या लोकोमाटिव में कुछ हार्स पावर की शक्ति सुरक्षित रखी जाती है। यदि आप 20 हार्स पावर का ऐंजिन चाहते हैं, तो कम्पनी आपको 30 हार्स पावर का ऐंजिन भेजेगी। यह 10 हार्स पावर की अधिक शक्ति काम में नहीं आवेगी, पर कभी अड़चन या जरूरी मौके के लिए उसे सोचते रखना अति आवश्यक है। मौके बे मौके कभी भी उसकी जरूरत पड़ सकती है। सम्भावित आवश्यकताओं के लिए इसे संचित रखना जरूरी है।
ऐसा ही हाल मनुष्य की शक्तियों का होना चाहिए। अनन्त मानसिक शक्ति से परिपूर्ण, सुसंचालित विवेक, संतुलित चरित्र वाला व्यक्ति आपत्तिकाल या जरूरत के समय किंकर्त्तव्यविमूढ़ नहीं होता। अधिक काम में भी वह अपनी शक्तियों का पूर्ण परिचय देता है, जबकि ऊपरी दृष्टि से मोटे-ताजे व्यक्ति पीछे रह जाते हैं। जरा कार्योधिक हुआ कि उनके प्राणों पर आ बनती है।
बड़े व्यापारी उन व्यक्तियों को पसन्द करते हैं जो आपत्तिकाल में, जब मजदूरी भी कम हो उसी उत्साह से कार्य में संलग्न रहते हैं, जितने वे आराम के समृद्धिशाली दिनों में थे। प्रारम्भिक काल में जब व्यापार प्रारम्भ ही किया जाता है, उसे आगे विकसित करने के बड़े परिश्रमी, संयमी और शक्तिशाली व्यक्तियों की आवश्यकता पड़ती है। व्यापार में मनुष्य का पुस्तकीय ज्ञान, शक्ति या अनुभव कार्य नहीं करता है, प्रत्युत उसे समुन्नत बनाने वाला वह भाव है जो उसके मन में पुनः-2 यह भावना उत्पन्न करता है कि खतरे के समय भी वह अपने कार्य को संभाल सकेगा। बची हुई शक्ति, संचित सम्पत्ति, एकत्रित ताकतें वे चीजें हैं जो मनुष्य को सफल व्यापारी बनाती हैं।
आपमें संचित शक्तियाँ कितनी हैं? जरूरत के समय के लिए आपने कितनी शक्तियाँ इकट्ठी कर रखी हैं? जो व्यक्ति जरूरत के समय के लिए अपनी शक्तियाँ एकत्रित नहीं रखता, वह मूर्ख है।
वे कौन सी शक्तियाँ हैं, जिनके संचय की आवश्यकता है। इसके उत्तर में कहा जायगा कि सर्वप्रथम हमें अपनी प्राण शक्ति का अधिकाधिक संचय करना चाहिए। प्राण शक्ति के द्वारा ही हमारा इस जगत से नाता है। जब तक प्राण तब तक संसार। प्राणों का जो कोष आपको मिलता है, उसकी रक्षा के लिए सदा सर्वदा जागरुक रहने की आवश्यकता है।
प्राण का अर्थ मनुष्य की शारीरिक शक्ति, सामर्थ्य, और क्रिया शक्ति का विकास है। मनुष्य के शरीर में दो प्रधान शक्तियाँ हैं- (1) शरीर का विकास पोषण एवं क्रियान्वित करने की शक्तियाँ (2) रोगों से युद्ध कर शरीर को स्वस्थ रखने की शक्ति। प्रथम शक्ति के द्वारा हमारे हाथ-पाँव शरीर के सब अवयव अपनी पुष्टि प्राप्त करते हैं, रक्त के द्वारा उनमें बल, भोजन, वीर्य का संचार होता है। दूसरी शक्ति से गन्दगी तथा सब प्रकार के विजातीय विषों का निष्कासन। यह शक्ति हमें जीवन को स्थिर रखने के हेतु संघर्ष करना सिखाती है। शरीर की रक्षा के लिए हमें इन दोनों ही शक्तियों का एक वृहत् संचित कोष अपने पास रखना चाहिए।
स्वस्थ जीवनी शक्ति वाले व्यक्ति के लक्षण इस प्रकार हैं- उसकी त्वचा वीर्य युक्त लाल स्निग्ध होती है, पाचन शक्ति सुव्यवस्थित होती है, मल द्वारा मल निष्कासन की क्रिया बड़े उत्तम तरीके से करता है, नेत्र निर्मल और तेजस्वी रहते हैं, घाव लगने पर आसानी से ठीक हो जाता है, निद्रा स्वस्थ और गहरी आती हैं। हमें चाहिए कि ऋषियों द्वारा प्रतिपादित सूर्यस्नान, प्राणायाम, उपयुक्त पौष्टिक भोजन द्वारा प्राणशक्ति का संचय करते रहें, वीर्य नाश न करें। व्यर्थ की छोटी-बड़ी चिन्ताओं में लगे रहने से असन्तोषी, अतृप्त विषादमय मनःस्थिति रखने से प्राण शक्ति का अपव्यय होता है। मन में आह्लाद तथा आशा का सुखद वातावरण बनाये रखें जैसे शरीर को पुष्ट करने से प्राणशक्ति संचित होती है, वैसे ही निर्भयता, ईमानदारी, प्रसन्नता, और आत्म निर्भरता जैसे सद्गुणों को चरित्र में उतारने से प्राणशक्ति को स्थिर रखा जा सकता है। प्राणशक्ति का निरन्तर संग्रह करना चाहिये। यह वह सम्पदा है, जिसकी रक्षा से संसार का सुख हमारे लिए सम्भव है।
अर्थ शक्ति अर्थात् संचित पूँजी की शक्ति महान् है। हम ऐसे सामाजिक युग में निवास कर रहे हैं, जिसमें हमारे सामाजिक सम्बन्ध अर्थ से संचालित होते है। जिसके पास जितनी संचित पूँजी है, समाज में उसको उतनी ही मान प्रतिष्ठा का अधिकार है। संचित पूँजी का तात्पर्य है, संचित श्रम। जो व्यक्ति श्रम को संचित कर पूँजी की शेल्फ में रखता है, उसके मन में एक आन्तरिक शान्ति विद्यमान रहती है, जो समय-समय पर उसके काम आती रहती हैं। हमारे समाज का विधान कुछ ऐसा है कि जब तक जीवन है, तब तक रुपये-पैसे की आवश्यकता रहती है। यौवन काल की संचित पूजी वृद्धावस्था की एक शक्ति बन जाती है।
जो व्यक्ति अर्थ-शक्ति को संचित रखता है वह अपने साथ एक ऐसा सेवक रखता है, जो हर समय हर अवस्था, हर स्थिति में सेवा-सहायता को प्रस्तुत रहता है। अर्थ एक जीती जागती शक्ति है। इस सम्बन्ध में बड़ा जागरुक रहने की आवश्यकता है। लक्ष्मी को चंचला कहा गया है। यह एक व्यक्ति के पास स्थिर नहीं रहती। तनिक सी असावधानी से वर्षों की संचित पूँजी अनायास ही हाथ से निकल जाती है। इस शक्ति को संचित करने के लिए अधिक जागरुक रहिये।
ईश्वर की अनुकम्पा, सहायता, प्रेरणा, में विश्वास ऐसी शक्ति है, जो मनुष्य को यौवन से लेकर मृत्यु पर्यन्त सहायता देती है। आस्तिकवाद हमारी सम्पदा है। ईश्वरीय सत्ता में निष्ठा हमें सदा सर्वदा समुन्नत करती है और संकट के समय आन्तरिक शान्ति प्रदान करती है। ईश्वर हमारे जीवन तथा कर्म का आदि स्रोत है, हमारे हृदय मन्दिर में प्रकाश करने वाला तेज पुँज है, हमारे जीवन में प्राण और श्वास है। ईश्वरीय आशा विहीन व्यक्ति उस सूखी पत्ती की तरह है जो विपरीत हवा में यत्र-तत्र मारी-मारी फिरती है। निराशा और वेदनाएँ उसे एक ओर खींचती हैं जो व्यर्थ के प्रलोभन, लोभ, अतृप्ति दूसरी विपरीत दिशा में आकर्षित करती हैं।
मैं ईश्वर के तेज की एक रश्मि हूँ। ईश्वरीय सत्ता में मुझे अन्ततः विलीन हो जाना है। मैं जहाँ से जन्मा हूँ, वहीं पहुँच जाऊंगा। मेरी आत्मा सत्त, चित्त, आनन्द स्वरूप परमेश्वर का अंश है। मुझ में तेरे प्रभु के गुण ही प्रकाशित हो सकते हैं। अनीति, अन्याय, अनर्थ से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं-ऐसी आस्तिक भावना मनः प्राण में संचित रखने वाला व्यक्ति सदा सर्वदा कमल के समान उत्फुल्ल रहता है।
संकट में, विपदा में, निराशा के अवसरों पर दैवी सत्ता से तादात्म्य आपको वह अंतर्बल देगा, जिसके द्वारा आप आन्तरिक शक्ति पाते रहेंगे। ईश्वर शक्ति का आदि स्रोत है। उनसे हमारी आत्मा को सहन शक्ति प्राप्त होती है। इस अंतर्बल से व्यक्ति सब परिस्थितियों में बाह्य जगत के संकटों से सुरक्षित रहता है। ईश्वर की सद् योजनाओं में अपने विश्वास को निरन्तर बढ़ाते चलिए। पूजन, गायत्री जप, भजन, सन्ध्या तथा नाना साधनाएँ आपको सदा दैवी तत्व से संयुक्त रखती हैं।