अध्यात्मवादी की पृष्ठ भूमि

November 1953

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(श्री बैजनाथ पण्ड्या)

आध्यात्मिक मार्ग की कोई भी साधना क्यों न हो, उसकी बुनियाद ऊँचे से ऊंचा आचार, ऊंचे से ऊंची सच्चरित्रता, पूर्ण निर्मलता, पूर्ण परोपकार भाव है। योग के यम-नियमों में इनका समावेश है। वेदान्त के साधन-चतुष्टय में भी ये ही हैं, भक्तिशास्त्र में, निष्काम कर्मयोग में, इन सबकी आवश्यकता है, पर साधक बहुधा इन सद्गुणों की आवश्यकता और महत्व को न समझ, उनको एक ओर छोड़कर, प्राणायामादि साधनों में लग जाते हैं। इसी कारण उनकी उन्नति नहीं होती। साधक चतुष्टय यम-नियमों के पूर्ण रूप से अपने में आ जाने से अपना विकास आप से आप पूर्ण होकर, हमारी सोती हुई आध्यात्मिक शक्याँ आप से आप जाग उठती हैं और बिना योग साधना के भी हम उच्चशिखर को पहुँच जाते हैं। इन प्रारम्भिक सद्गुणों के बिना योगसिद्धि प्राप्त होने पर भी अधःपतन की सम्भावना रहती है।

सच्ची आध्यात्मिकता तो उस दशा की पूर्ण प्राप्ति या पूर्ण अनुभव है, जिसमें साधक अपने को सब प्राणियों में और सब प्राणियों को अपने में देखते हैं, अर्थात् अपने और दूसरों में एक ही आत्मा का दर्शन करता है और उसमें द्वित भाव थोड़ा भी बाकी नहीं रहता, जैसाकि श्रीमद्भागवत गीता (अ. 6 श्लोक 29) में कहा है। इस दशा में साधक दूसरे भूखे की भूख का, पतित के पाप का, दुःखी के दुःख का, स्वयं अनुभव करता है। योग सिद्धियों का कोई महात्म्य नहीं है वे प्रकृति के नियमों के ज्ञान से प्राप्त हो सकती हैं, पर आध्यात्मिकता प्रेम से आती है। एक तत्व को जानना, उसकी चेतना का बने रहना, उसका सदैव अनुभव होते रहना, यह आध्यात्मिकता है। कबीर ने कहा है ‘न पल बिछुड़े पिया हमसे, न हम बिछुड़े पियारे से’ यह अनुभव अध्यात्म के जिज्ञासु को होते रहना चाहिये। इसका अर्थ ‘यही है कि उसको अपने में और दूसरें में कोई भेद नहीं दीखता। श्री शंकराचार्य से एक कापालिक ने उनका सिर माँगा, उन्होंने यही कहा कि ‘इस समय तो मेरे शिष्य सिर देने में बाधा डालेंगे, पर यदि तुम आधी रात को आओ तो सिर ले जा सकोगे।’

अध्यात्म ज्ञानी के लिये कोई भेदभाव नहीं रह जाता। उसकी शुद्धि के प्रभाव से उसके आस-पास के लोगों में भी शुद्धि फैल जाती हैं। उसकी मुक्ति का अर्थ यह है कि उसके साथ और लोग भी मुक्त होते हैं।

इस प्रकार आध्यात्मिकता और सिद्धियों में बड़ा भेद है। दोनों का उपयोग है और पूर्ण मनुष्य में दोनों पाई जायेंगी। आज कल दूसरों के ऊपर अपना प्रभाव डालने की विधि बतलाने वाली बहुत सी पुस्तकें छपती हैं। ये पीछे हटाने वाली, मार्ग से च्युत करने वाली हैं, क्योंकि दक्षिण मार्ग में कभी किसी की स्वतन्त्र इच्छा शक्ति पर दबाव नहीं डाला जाता। मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण इत्यादि वाममार्ग की पाप भरी विधियाँ हैं, जिनका भारी कर्म विपाक उनके उपयोग करने वाले को अवश्य गिरा देता है।

इसलिए आरम्भ में स्थूल शरीर की और मन के भावों की शुद्धि अच्छी तरह हो चुकनी चाहिए। माँस, मदिरा, भाँग, गाँजा, तम्बाकू आदि मादक द्रव्य- ये योगी के लिए विष हैं। साधना आरम्भ करने के कम से कम एक वर्ष पूर्व से इनका त्याग हो जाना चाहिए। स्थूल शरीर के हाथ पर, नाखून सब साफ रहें और सारा शरीर भी साफ हो। उसके पहनने, बिछाने और ओढ़ने के कपड़े भी शुद्ध साफ रहें। स्थूल शरीर और मन के भाव शान्तिमय हों। पूर्ण आरोग्यता हो। दवाइयों का उपयोग जितना कम हो सके उतना ही उत्तम है। उत्तेजक और मादक द्रव्य योगाभ्यास में परम बाधक हैं। पशुओं की माँस ग्रन्थि आदि से बनी हुई दवाइयों का उपयोग कभी न किया जाय, एक तो इस में हिंसा होती है और दूसरे उनका प्रभाव साधक पर बहुत बुरा पड़ता है। शरीर को छिन्न-भिन्न या विकृत न होने देना चाहिए। जैसे तंग जूते पहनना, जो अपने पैरों की उंगलियों को विकृत कर देते हैं, योग साधना में बाधक होता है। भगवद्गीता में कहा है कि युक्त आहार-विहार वाले और कर्मों में युक्त दर्जे तक ही लगने वाले को योग दुःख हरण करने वाला होता है। उसका सोना, जागना भी ठीक-ठीक होना चाहिए।

(गी. 6। 17)

योगाभ्यास में अपनी साधारण बुद्धि का उपयोग न छोड़ देना चाहिए शरीर की विचार, श्वास या किसी अंग पर अधिक ध्यान लगाने में जोखिम है। यदि जरा भी भारीपन, दर्द या सिर घूमना या दबाव मालूम पड़े तो अभ्यास को रोक देना चाहिए, क्योंकि दर्द इस बात की एक चेतावनी है कि स्थूल और सूक्ष्म शरीर पर बहुत अधिक दबाव डाला जाता है। योगाभ्यासी के मन के क्रोध, चिड़चिड़ापन और द्वेष तो बिलकुल ही निकल जाना चाहिए। उसे उत्सुकता न सतावे। सब योगों में एकत्व की प्राप्ति की इच्छा रहने से सेवाभाव, परोपकार भाव, जगत के कल्याण की भावना स्वाभाविक ही रहती है। यदि योगाभ्यासी में कोई सोते दुर्गुण छिपे हैं तो वह योगाभ्यास से उत्तेजित होकर बाहर प्रकट हो जाते हैं, इसलिए यम और नियम योगी में अवश्य आरम्भ से ही होने चाहिए। अहिंसा (किसी को दुःख न पहुँचाना), सत्य, अस्तेय (दूसरों की वस्तु बिना दिये न लेना), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह अर्थात् वस्तुओं का संग्रह न करना ये ‘यम’ हैं। शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय (जप और सद्ग्रन्थों का अध्ययन) और ईश्वर की भक्ति- ये नियम हैं।

साधना में- जिन साधारण सद्गुणों की आवश्यकता है, वे ये हैं- पवित्र जीवन खुला मन, शुद्ध हृदय, सबके प्रति भ्रातृभाव, सलाह और ज्ञान देने और लेने के लिए सदैव तैयार रहना, गुरु के प्रति श्रद्धा, सत्य पालन में तत्परता, अपने ऊपर अन्याय हो, उसे निर्भयता से सहना, जो नियम हैं, उनके कहने में निर्भय तत्परता, जिनकी अयोग्य निन्दा होती हो, उनका हिम्मत से बचाव करना और मनुष्य जाति की उन्नति और पूर्णता के ध्येय को सदैव ध्यान में रखना- ये वे सुवर्ण-सीढ़ियाँ हैं, जिन पर चढ़ कर जिज्ञासु ब्रह्मज्ञान के मन्दिर में सहज प्रवेश कर सकता है।


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