(श्री स्वामी भगवतानन्द जी महाराज)
अनेक स्थानों में ज्ञान शब्द ब्रह्म का वाचक मिलता है, अतः ‘ज्ञानमेव यज्ञः ज्ञानयज्ञः’ यह भी सवाल हो सकता है, अर्थात् ज्ञानरूप ईश्वर, ज्ञान रूप ब्रह्म। यज्ञ का अर्थ ईश्वर भी है, कर्म रूप यज्ञ भी। यज्ञ का अर्थ लिया जाये तो कोई असंगति नहीं है, ज्ञान में यज्ञतत्व का आरोप करके तथा सावधान होकर ज्ञान संपादन करना चाहिए। उसके साधनों का संग्रह करना चाहिए। जरा सी असावधानी भी अनर्थ करने वाली हो सकती है।
जो भी ‘यज्ञ का अर्थ लीजिए, सब यज्ञों में ‘ज्ञानयज्ञ’ ही श्रेष्ठ है। इसकी पुष्टि गीता के अनेक वचनों से होती है।
‘द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथाऽपरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः शंसितव्रताः’॥
गी0 4/28
इसमें अंत में ‘ज्ञान-यज्ञ’ बतलाया है। इसमें ही प्रधानता भगवान को विवक्षित है। आगे के 29-30 के श्लोकों में ‘अपरे’ लिखा है अतः वह गौण यज्ञ है, ऐसा प्रतीत होता है क्योंकि -
श्रेयान् द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञःपरन्तर।
सर्व कर्माखिलं पार्थ ज्ञानं परिसमाप्यते॥
गी0 4/33
इसमें ‘ज्ञान-यज्ञ को श्रेष्ठ बतलाया है, ज्ञान में सब कर्मों की समाप्ति बतलाई है, अतः ज्ञान-यज्ञ’ की उत्कृष्टता स्पष्ट रूप से सिद्ध होती है।
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।
गी0 4/35
‘सर्व ज्ञानसवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि।’
गी0 4/36
ज्ञानाग्निः सर्व कर्मणि भस्सात्कृरुतेअर्जुन।
गी0 4/37
‘नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।’
गी0 4/37
‘श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्।’
गी0 4/38
प्रियो हि ज्ञानिनोअर्त्यथमहं स च मम प्रियः।
गी0 7/17
‘ज्ञानवान्माँ प्रपद्यते।’ गी0 7/19
इन सब वचनों में ज्ञान की श्रेष्ठता स्पष्ट झलकती है। उपसंहार में भगवान ने-
‘इति ते ज्ञानमाख्योतं गुह्यादगुह्यतरं मया’।
गी0 18/62
ज्ञान का उपदेश तुमको किया है- ऐसा अर्जुन के प्रति कहा है।
‘नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोअस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव॥
गी0 18/73
इसमें अर्जुन ने भी ‘स्मृति’ पद से ज्ञान-प्राप्ति स्वीकार की है, अतः ‘ज्ञान-योग को ही भगवान् ने प्रधानता दी है।
‘तमेव विद्वान् नविभायभृत्योः’।
अर्थर्ववेद 10/8/44
‘तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय।’
यजुवैद 31/18
धिया विप्रो अजायत।’ ऋ ॰ 8/6/28
यह मंत्र सामवेद में भी है।
‘य इत्तद्विदुस्ते अमृतत्वमानशुः’।
ऋग्वेद 1/164/39 अर्थर्ववेद -9/15/1
इन सब मंत्रों में ज्ञान से ही अमृतत्व (मोक्ष) की प्राप्ति बतलाई है अतः ‘सर्वशास्त्रमयी गीता’ सर्वोप निषदो गावः इस प्रसिद्धि के अनुरोध से भी गीता में ‘ज्ञान-यज्ञ’ सर्वश्रेष्ठ माना गया है। यह स्वीकार करना पड़ता है।
भाग 2 सम्पादक - श्रीराम शर्मा आचार्य अंक 11