देव! तुम्हारी ज्योति अमर हो

November 1951

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देख सके जिससे भूला मन, वह विवेक की राह पुनीता।

जिसको पावन करती आई, युग युग से रामायण गीता॥

मुखरित जिसके प्रति कण कण से,

दिव्य शाँत समता का स्वर हो।

देव! तुम्हारी ज्योति अमर हो।

जिससे आदि काल से व्यापक, जग का अन्धकार मिट जाये।

सत्यं, शिवं सुन्दर के द्वारा, मानव निज आदर्श बनाये॥

मानवता के पद पखारने को,

बहती कल-काव्य लहर हो।

देव! तुम्हारी ज्योति अमर हो।

इसका प्रिय-प्रकाश यह व्यापक वसुन्धरा परिवार बना दे।

कुविचारों के कारागृह को, भव्य -मुक्ति का द्वार बना दे॥

विमल विश्व मन्दिर में इसकी,

आभा अक्षय हो, अक्षर हो।

देव! तुम्हारी ज्योति अमर हो॥

(श्रीमती विद्यावती मिश्र)


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